Sunday, December 22, 2024
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भूटान में लोग कैसे बचा रहे हैं पर्यटन?

भूटान में लोग अब पर्यटन बचाने में लग गए हैं! उत्तराखंड के जोशीमठ में भू-धंसाव के बाद सैकड़ों घरों को खाली करना पड़ा है। शहर के घरों में आई दरारें लगातार बढ़ रही हैं। हालात को देखते हुए इलाके में SDRF की टीमों को तैनात किया गया है। प्रशासन ने खतरे वाले घरों को चिन्हित करके उन्हें खाली करने का निर्देश दिया है। जोशीमठ के लोगों के सामने बेहद भयावह स्थिति हैं। उन्हें अपनी आंखों के सामने अपने आशियाने को टूटता देखना पड़ रहा है। स्थानीय लोग भू-धंसाव के पीछे की वजह अनियंत्रित विकास काम बता रहे हैं। पहाड़ों पर टिन की भद्दी छतों वाली चौक-ए-ब्लॉक की दुकानें पर सबकुछ बिकता है। इसमें छोले-भटूरे और बच्चों के खिलौनों से लेकर नकली पश्मीना शॉल और डाइजेस्टिव चूरन तक सब कुछ मिलता है। यहां आपको वीडियो गेम आर्केड और स्नूकर रूम, फेरीवाले मैगी नूडल्स और सस्ते चीन निर्मित ब्लूटूथ ईयरफोन बड़ी आसानी से मिल जाएंगे। यहां के होटल आपस में कड़ी कॉम्पटिशन करते मिलेंगे। इसमें ओपन एक्सपोज्ड बल्ब और बदसूरत लाइट एक्सेसरी-ट्यूबलाइट्स मिल जाएंगी। ऐसी जगह जो कभी बेहद सुंदर हुआ करती थी, लेकिन अब वो खत्म होने के कगार पर है, जब तक आप इस सब के बारे में नहीं लिखना चाहते, तब तक भारत के हिल स्टेशनों पर जाकर कुछ क्रिएटिव नहीं लिखा जा सकता है।

क्रिएटिविटी तो छोड़िए, भारत के हिल स्टेशनों पर घूमने तक की जगह नहीं बची है। इंस्टाग्राम इन्फ्लुएंसर मोबाइल पर सुंदर फ्रेम बनाने और पॉपुलरिटी पाने के लिए पहाड़ों पर बर्फ से ढके कुछ इलाके को दिखाते हैं और कुरकुरे और चिप्स के पैकेट को नजरअंदाज कर देते हैं।

इस तरह की तस्वीरों और वीडियोज को इंस्टाग्राम पर अपलोड कर देते हैं और साथ में सुनने में कूल लगने वाला कैप्शन भी डालते हैं, जिसका कोई मतलब नहीं होता। जैसे- ‘घूमना मेरी आत्मा है’ और ‘मेरी आत्मा पहाड़ियों में बसती है।’ इंस्टाग्राम पर ये तस्वीरें आपकी फीड पर दिखती हैं और आप उत्साहित हो जाते हैं। इसके बाद परिवार के साथ सामान पैक करके कुछ दिनों के लिए इंस्टाग्राम इन्फ्लुएंसर की तरह पहाड़ों पर छुट्टियां मनाने चले जाते हैं। इसके बाद आपकोतीन घंटे के बाद ट्रैफिक जाम और छह घंटे के सफर के बाद कचरे से भरे शहर का सामना करना पड़ता है। इससे अच्छा आप वहां मत जाओ। ऐसा करते आप पहाड़ों और प्रकृति पर अहसान करेंगे। अगर आप इन पहाड़ियों पर जाते हैं तो सुखद अनुभव नहीं मिलेगा।

इससे भी जरूरी बात यह है कि इन शहरों को हो रहा नुकसान अब गंभीर स्तर पर पहुंच चुका है। यह अब केवल सुंदरता, भद्दी दुकानों और गंदी सड़कों तक नहीं रह गए गए हैं, बल्कि धीरे-धीरे ये शहर बस मर रहे हैं। ये शहर अब मैदानी इलाकों से आ रहे शहरवासियों के हमले को बर्दाश्त नहीं कर सकते। उत्तराखंड में मंदिरों का एक शहर जोशीमठ वास्तव में धंस रहा है। वहां रह रहे लोगों को निकाला जाना चाहिए। अनियंत्रित निर्माण, पर्यावरण की चिंता की कमी और मैदानी इलाकों से लोगों के आने का सिलसिला इस तरह की बदहाली का कारण बना है। जोशीमठ को देखकर अन्य शहर सबक ले सकते हैं। हमारी खूबसूत पहाड़ियों की खातिर रूक जाएं। हमें अपने हिल स्टेशनों को बर्बाद करना बंद करना होगा। वे भारत का गौरव हैं, इसके ईकोलॉजिकल संतुलन की जरूरत है। हम पहाड़ों को पवित्र मानते हैं फिर ऐसा विनाश कैसे होने दे सकते हैं?

मुझे लगता है कि पर्यटन ही इन शहरों की अर्थव्यवस्था का आधार है। यहां होटल, दुकानें, ट्रैवल एजेंसियां ही यहां कमाई का साधन हैं। पैसा देकर यहां आनंद दायक यात्रा की जाती है। लेकिन क्या हम किसी भी कीमत पर ऐसा कर सकते हैं? क्या हमें अपने सभी जंगलों में सभी पेड़ों को काटने देना चाहिए? या लोगों को बाघों का शिकार देना चाहिए? अगर उन चीजों की अनुमति नहीं है, तो हम पूरे पर्वतीय शहरों को कैसे नष्ट होने दे सकते हैं?

मैं छुट्टियां लेने की जरूरत को समझता हूं, खासकर गर्म गर्मी के महीनों में। लेकिन वही दस या बीस शहर पर्याप्त नहीं हो सकते। हमें अधिक अच्छे हिल स्टेशनों के साथ भारतीयों की बढ़ती जरूरतों को पूरा करना चाहिए। अगर एक सदी पहले अंग्रेज बहुत ही घटिया तकनीक से इनका निर्माण कर सकते थे तो अब हम क्यों नहीं कर सकते? भारतीयों को छुट्टियां लेने की जरूरत भी समझ में आती है, खासकर गर्मी के महीनों में। बढ़ती प्रति व्यक्ति आय, जो एक अच्छी बात है का मतलब है कि ज्यादा से ज्यादा लोग इन हिल स्टेशनों की यात्रा कर सकते हैं। लेकिन ये पहाड़ी शहर दोगुने, तीनगुने या दसगुने लोगों का भार सहने में सक्षम नहीं है। अगले कुछ वर्षों में पर्यटकों की संख्या का गुना होने वाला है। कई हिल स्टेशन ब्रिटिश काल के दौरान बनाए गए थे। ये शहर अपनी कारों से घूमने आने वाले लाखों पर्यटकों के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं।

इसलिए जब भारतीय ब्रेक लेते हैं और यात्रा करते हैं और अर्थव्यवस्था में योगदान करते हैं, वहीं दस या बीस शहर इसके लिए नाकाफी हैं। हमें और अच्छे हिल स्टेशनों के साथ इस बढ़ती आवश्यकता को पूरा करना चाहिए। अगर एक सदी पहले अंग्रेज बहुत ही घटिया तकनीक से ऐसा कर सकते थे तो हम अब क्यों नहीं कर सकते? हमें आने वाले दशकों में पर्यटकों के भार को देखते हुए कम से कम पचास नए पहाड़ी हिल स्टेशनों को विकसित करने की जरूरत है, जहां अच्छा खासा बुनियादी ढांचा हो। हालांकि इन नए शहरों में से हर एक के पास पर्यटन को पारिस्थितिक रूप से टिकाऊ बनाने के लिए आवश्यक निर्माण, खाली जगह, आने वाले पर्यटकों की संख्या और अन्य सभी नियंत्रणों की सीमाएं होनी चाहिए। अभी हमारे पहाड़ी शहरों में पानी और कूड़ा निस्तारण एक बड़ी समस्या है। इन्हें सड़ने के लिए छोड़े गए शहर को बनाने के बजाय पहले से योजना बनाने की जरूरत है।

बहुत कम संसाधनों के साथ हमारे छोटे से मित्र राष्ट्र भूटान ने पर्यावरण के संरक्षण का शानदार काम किया है। क्या भूटानी लोगों को नौकरी या पैसे की जरूरत नहीं है? फिर वे अपने लालच को कैसे काबू में रख रहे हैं और पर्यावरण को पहले रख रहे हैं? शायद हमें अपने पड़ोसी से बहुत कुछ सीखना है। भूटान विदेशियों से अपने देश में रहने के लिए फीस लेता है। हम भी हिल-टाउन चार्ज ले सकते हैं, जिसका इस्तेमाल शहर को अच्छी स्थिति में रखने के लिए किया जा सकता है। भूटान भी भद्दे होर्डिंग्स की अनुमति नहीं देता है। हर पहाड़ी शहर में मानकीकरण की जरूरत है। जयपुर के जौहरी बाजार में एक समान साइनेज के बारे में सोचें, इसी तरह अगर हम प्लास्टिक की थैलियों पर प्रतिबंध लगाते हैं, तो हमें प्लास्टिक के पैकेटों में बिकने वाली किसी भी चीज पर भी प्रतिबंध लगाना चाहिए। जी हां मैं चिप्स और बिस्कुट की बात कर रहा हूं। वैसे भी ये सेहत के लिए अच्छे नहीं होते हैं।

जोशीमठ के घटनाक्रम को हम सभी के लिए एक वेकअप कॉल के रूप में काम करना चाहिए। चंद रुपयों के लिए कुदरत को बर्बाद करना इसके लायक नहीं है। यह वैसे भी कोई खास बिजनेस नहीं है। अगर कोई शहर नष्ट हो जाता है, तो आप उससे फिर कभी कमाई नहीं कर सकते। हिल-स्टेशन पर्यटन को टिकाऊ बनाने की जरूरत है। हमारे पहाड़ी शहरों को सुंदर बनाने की जरूरत है।

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