आज हम आपको बताएंगे की राजनीति से अमिताभ बच्चन कैसे बाहर हुए थे! साल 1984 में दिसंबर की एक सर्द रात राजीव गांधी ने औपचारिक तौर पर अमिताभ बच्चन को इलाहाबाद से लोकसभा चुनाव लड़ाने का ऐलान कर दिया। बहुत ही ढके-छिपे ढंग से अमिताभ का बिल्कुल आखिरी मिनट पर नामांकन कराया गया, जिससे कभी कांग्रेसी रहे और लोकदल के टिकट पर चुनौती दे रहे दिग्गज हेमवती नंदन बहुगुणा को बचाव का कोई मौका ना मिल सके। चुनाव में अमिताभ का स्टारडम जीत गया। हालांकि जब राजीव ने उनसे इलेक्शन लड़ने को कहा था, तो अमिताभ का जवाब था कि उन्हें पॉलिटिक्स का P भी नहीं पता। बावजूद इसके, अगर अमिताभ ने हामी भरी, तो इसकी कुछ खास वजहें थीं। एक वजह तो सभी को समझ आती है, बच्चन और गांधी परिवार के बीच की नजदीकी। अमिताभ और राजीव अपने परिवारों की दोस्ती की विरासत को आगे बढ़ा रहे थे। अमिताभ के माता-पिता, हरिवंश राय बच्चन और तेजी बच्चन के ताल्लुक थे जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी से। इंदिरा और तेजी के बीच गहरी दोस्ती थी। हरिवंश राय बच्चन जब राज्यसभा के सदस्य बने, तो पूरा परिवार दिल्ली शिफ्ट हो गया। तब राजीव और अमिताभ का बचपन साथ में बीता। यही नहीं, सोनिया गांधी जब भारत आईं राजीव से शादी करने, तब वह बच्चन परिवार के ही यहां ठहरी थीं। तो, जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई, कांग्रेस की कमान राजीव के पास आई और उन्हें सहयोग के लिए अपने सबसे पुराने दोस्त की जरूरत महसूस हुई, तो अमिताभ इनकार नहीं कर सके।
राजनीति में सिनेमा के एंग्री यंग मैन की एंट्री बहुत ही धमाकेदार रही। उन्होंने सियासत के एक पुराने महारथी को हराया था। वह प्रधानमंत्री राजीव गांधी के दोस्त थे। ऊपर से उनके पास सिलेब्रिटी स्टेटस भी था। यहां से राजनीति के गलियारे में अमिताभ का सफर बहुत आसान हो जाना चाहिए था, लेकिन हुआ उल्टा। बहुत जल्द अमिताभ को लगने लगा कि वह राजनीति के लिए नहीं बने। आखिर ऐसा हुआ क्या कि उन्होंने पॉलिटिक्स से हमेशा के लिए तौबा कर ली?
अगर इसका एक जवाब बनता है, तो वह है एक नाम – विश्वनाथ प्रताप सिंह। राजीव गांधी ने जब अमिताभ को इलाहाबाद से खड़ा किया, तो वीपी सिंह यूपी प्रदेश कांग्रेस के प्रमुख थे। टिकट बंटवारे में पूरा दखल था उनका। उन्होंने इलाहाबाद से भी अपने एक खास केपी तिवारी को उम्मीदवार बनाया था। अमिताभ के अचानक एंट्री मारने से वीपी को अपना कैंडिडेट वापस लेना पड़ा। लेकिन, यह केवल पहला झटका था। असली झटके लगने शुरू हुए अमिताभ के इलाहाबाद में कदम रखने के बाद। उनकी स्टार पावर के आगे सारी चीजें फीकी पड़ गईं। अमिताभ ने भी जनता से संवाद कायम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। चुनाव जीतने के बाद भी वह भरसक प्रयास करते कि शूटिंग से समय निकालकर अपने लोकसभा क्षेत्र का चक्कर लगा लें। क्षेत्र की हर योजना में उनकी दिलचस्पी होती। यह अनोखी चीज थी कि अमिताभ जैसा सितारा सांसद के कामों में इतनी दिलचस्पी ले रहा था। लेकिन, इसने यूपी कांग्रेस के तमाम नेताओं के मन में असुरक्षा की भावना भी पैदा कर दी। इनमें वीपी सिंह भी थे। एक तो अमिताभ का कद और ऊपर से प्रधानमंत्री के दोस्त का तमगा, पुराने कांग्रेसियों को अमिताभ रास नहीं आ रहे थे। हालांकि उस समय तक वीपी सिंह का कद भी बहुत बड़ा हो चुका था। राजीव मंत्रिमंडल में उन्हें वित्त मंत्रालय जैसी बड़ी जिम्मेदारी दी गई थी। इसके बावजूद वह अपने बेस को नहीं छोड़ना चाहते थे। लेकिन, अमिताभ के आने के बाद उन्हें अपना क्षेत्र हाथ से फिसलता लगा। असुरक्षा की इसी भावना ने उन्हें खड़ा कर दिया अमिताभ के खिलाफ।
अमिताभ अपने क्षेत्र के लिए बहुत कुछ करना चाहते थे, लेकिन उन्हें स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं का सहयोग नहीं मिल रहा था। वित्त मंत्रालय में बैठे वीपी सिंह ने एक तरह से अमिताभ के खिलाफ छिपा हुआ मोर्चा खोल दिया था। उनकी ओर से मीडिया को हिंट दिए जाते कि अमिताभ को लेकर कुछ तो गड़बड़ है। दरअसल, तब तक अमिताभ के भाई अजिताभ बच्चन स्विट्जरलैंड शिफ्ट हो गए थे और स्विस बैंक की कहानियां लोगों को तब भी लुभाती थीं। फिर अमिताभ पर यह आरोप भी लगाया गया कि वह एक उद्योगपति परिवार और राजीव गांधी के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभा रहे हैं। और फिर निकला सबसे बड़ा जिन्न, बोफोर्स घोटाला। खबरें उड़ाई गईं कि अमिताभ ने राजीव गांधी की ओर से रिश्वत खाई है। इस घोटाले में हिंदुजा ब्रदर्स का नाम आया, तो कहने वालों ने यहां तक लिंक तलाशा कि हिंदुजा भाइयों ने उन प्रोड्यूसर को फाइनैंस किया, जो अमिताभ को लेकर फिल्में बना रहे थे। यह बदनामी बहुत बड़ी थी, इतनी कि अमिताभ ने संसद से इस्तीफा दे दिया। लेकिन, इससे सवाल और तीखे हो गए। लोग पूछने लगे कि अमिताभ ने इस्तीफा दिया है या राजीव ने उन्हें निकाला है? वीपी सिंह अब खुलकर सामने आ गए थे। कांग्रेस से बगावत कर वह इलाहाबाद उपचुनाव में खड़े हुए और जीत हासिल की। पूरे चुनाव प्रचार अभियान के दरम्यान उनके निशाने पर मुख्य रूप से अमिताभ रहे।
मुसीबत यहीं खत्म नहीं हुई अमिताभ के लिए। बोफोर्स घोटाले की गूंज ने कांग्रेस को अगला आम चुनाव हरवा दिया और वीपी सिंह पीएम बन बैठे। अमिताभ को आशंका थी कि अब उन पर ज्यादा निशाना साधा जाएगा। हुआ भी यही। जांच से जुड़े कुछ लोगों ने दावा किया कि बोफोर्स घोटाले का पैसा एक ऐसे अकाउंट में भी भेजा गया है, जो अमिताभ के भाई अजिताभ के नाम पर है। अमिताभ जानते थे कि खबर गलत है और वह इसके खिलाफ कोर्ट जाना चाहते थे, लेकिन करीबियों ने उन्हें समझाया कि इस केस में फैसला होने में बरसों लग सकते हैं। लेकिन, यह खबर एक स्वीडिश अखबार ने भी पब्लिश की थी और उस अखबार का सर्कुलेशन इंग्लैंड में भी था। अमिताभ ने उस न्यूजपेपर के खिलाफ लंदन की एक अदालत में केस लड़ा और जीत दर्ज की। इलाहाबाद में मिली जीत के बाद यह दूसरी जीत थी उनके नाम, राजनीति में। वीपी सिंह की सरकार बोफोर्स घोटाले में अमिताभ का कोई हाथ तलाश नहीं पाई। आखिरकार जब चंद्रशेखर पीएम बने, तो उन्होंने अमिताभ के मामलों की फाइल हमेशा के लिए बंद कर दी। इसके साथ ही वह स्क्रिप्ट भी अतीत के पन्नों में खो गई, जिसे अमिताभ के राजनीतिक करियर के लिए तैयार किया गया था और जो बुरी तरह फ्लॉप रही।