Friday, February 7, 2025
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कैसे बने श्रीं वीवी गिरी राष्ट्रपति?

पूर्व राष्ट्रपति श्री वीवी गिरी काफी चर्चा में रहे थे! देश में राष्ट्रपति पद के चुनाव केंद्र में सत्तारूढ पार्टी की ताकत और प्रधानमंत्री की हैसियत का संकेत करते हैं। सत्तारूढ पार्टी तातकवर हो तो प्रधानमंत्री दूसरे दलों को भी एक उम्मीदवार के पक्ष में मनाने में सफल होता है और राष्ट्रपति निर्विरोध चुन लिया जाता है। 1969 में राष्ट्रपति पद के लिए हुआ चुनाव अब तक के सभी चुनावों से अलग था। इस चुनाव में केंद्र में सत्तारूढ पार्टी और तत्कालीन प्रधानमंत्री ही एक-दूसरे के खिलाफ खड़े थे। ताज्जुब यह कि प्रधानमंत्री ही अपने सांसदों को पार्टी लाइन से अलग हटकर अंतरात्मा की आवाज सुनकर वोट करने की अपील कर रही थीं। इसमें वे सफल रहीं और उनकी पसंद का उम्मीदवार राष्ट्रपति चुन लिया गया। इस चुनाव ने राष्ट्रीय राजनीति में एक ऐसे दौर की शुरुआत की जिसमें तब तक कमजोर समझी जाने वाली इंदिरा गांधी देश की सर्वशक्तिमान नेता के रूप में स्थापित हो गईं। और इसमें सबसे अहम भूमिका मध्य प्रदेश की राजनीति के चाणक्य माने जाने वाले द्वारिका प्रसाद मिश्र ने निभाई थी जिन्होंने इंदिरा गांधी को अपनी ही पार्टी संगठन के खिलाफ बगावत के लिए तैयार किया और अंतरात्मा की आवाज पर वोटिंग का नारा बुलंद किया।

जगजीवन राम का नाम खारिज किया

1969 में तत्कालीन राष्ट्रपति जाकिर हुसैन की मृत्यु के बाद उपराष्ट्रपति वी वी गिरी करीब तीन महीने तक कार्यकारी राष्ट्रपति रहे। जब नए राष्ट्रपति के चुनाव का वक्त आया तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जगजीवन राम का नाम आगे किया, लेकिन उस वक्त कांग्रेस पार्टी का संगठन उनके साथ नहीं था। कामराज नाडर, निजलिंगप्पास, एसके पाटिल और मोरारजी देसाई जैसे कांग्रेस के नेता इंदिरा को कमजोर प्रधानमंत्री मानते थे और अक्सर उन्हें गूंगी गुड़िया कह कर संबोधित करते थे। ये सभी नेता ऐसे उम्मीदवार के पक्ष में थे जो उनके अनुसार काम करे और उन्हें केंद्र सरकार को अपने दबाव में रखने का मौका मिल सके।

राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के लिए बंगलौर में कांग्रेस वर्किंग कमेटी की मीटिंग हुई। इसमें इंदिरा के विरोधी कांग्रेस नेताओं ने नीलम संजीव रेड्डी का नाम प्रस्तावित किया। नीलम संजीव रेड्डी उस समय लोकसभा के स्पीकर थे और कामराज के करीबी माने जाते थे। इंदिरा गांधी उनके पक्ष में नहीं थीं, लेकिन वर्किंग कमेटी के अधिकांश सदस्यों का समर्थन रेड्डी को हासिल था। इंदिरा चाहकर भी कुछ नहीं कर पाईं और उन्हें रेड्डी के नाम पर सहमति देनी पड़ी, लेकिन असली खेल तो इसके बाद शुरू हुआ।

वर्किंग कमेटी की मीटिंग के लिए द्वारिका प्रसाद मिश्र भी इंदिरा के साथ दिल्ली से बंगलौर गए थे। मिश्र वर्किंग कमेटी के सदस्य नहीं थे, लेकिन वे उस समय इंदिरा के सबसे विश्वस्त सिपहसालार थे। इंदिरा जब दिल्ली लौट रही थीं, तब भी मिश्र उनके साथ थे। रास्ते में मिश्र ने इंदिरा से पूछा कि उन्होंने रेड्डी के नाम पर सहमति क्यों दी। मिश्र ने कहा कि कामराज गुट के लोग उनकी सत्ता को कमजोर करने में लगे हैं। रेड्डी राष्ट्रपति बन गए तो उनका पहला काम ही केंद्र सरकार को बर्खास्त करने का होगा।

इंदिरा ने जवाब दिया कि वे कुछ नहीं कर सकती क्योंकि वर्किंग कमेटी के सदस्यों का बहुमत रेड्डी के पक्ष में है। हालांकि, उन्होंने मिश्र की बातों से सहमति जताई कि नीलम संजीव रेड्डी राष्ट्रपति चुने जाने के बाद उनकी सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी करेंगे। तब मिश्र ने इंदिरा को सलाह दी उन्हें खुलकर बगावत करनी पड़ेगी। इसके साथ ही रेड्डी के मुकाबले वी वी गिरि का समर्थन करने की रणनीति पर काम शुरू हो गया जो उस समय तक निर्दलीय खड़े होने का ऐलान कर चुके थे।

दिल्ली पहुंचकर मिश्र ने सबसे पहले जगजीवन राम से संपर्क साधा। जगजीवन राम, मिश्र के बेहद करीबी थे। इसके बाद उन्होंने इंदिरा कैबिनेट के मंत्री फखरूद्दीन अली अहमद को अपने साथ लिया। इन तीनों नेताओं ने पहली बार देश के सामने अंतरात्मा की आवाज पर वोट देने का नारा बुलंद किया। इसके बाद वी वी गिरी ने अपना नामांकन किया और मिश्र के साथ इंदिरा समर्थक अन्य नेताओं ने पूरे देश में उनके लिए प्रचार शुरू कर दिया।

चुनाव अभियान के दौरान ही कांग्रेस स्पष्ट रूप से दो गुटों में बंट गई- सिंडीकेट और इंडीकेट। सिंडीकेट के लोग रेड्डी तो इंडीकेट गुट गिरी को जिताने में जी-जान से लगे थे। जीत के लिए उम्मीदवार को 4,18,169 वोटों की जरूरत थी। मतदान में गिरी को प्रथम वरीयता के 4,01,515 और नीलम संजीव रेड्डी को 3,13, 548 मत मिले। इसके बाद दूसरी वरीयता के मतों की गिनती की गई और इसमें गिरी निर्णायक बढ़त लेने में सफल रहे। इंदिरा गांधी के यह जीत काफी बड़ी थी क्योंकि उन्होंने अपने दम पर अपनी ही पार्टी के घोषित उम्मीदवार को हरा दिया था।

गिरी की जीत के साथ यह भी स्पष्ट हो गया कि इंदिरा गांधी और उनके विरोधी ज्यादा दिनों तक एक साथ नहीं रह सकते। थोड़े दिनों बाद नवंबर, 1969 में अनोखा नजारा देखने को मिला जब एक साथ कांग्रेस के दो वर्किंग कमेटियों की बैठक हुई- एक पार्टी मुख्यालय में और दूसरी प्रधानमंत्री आवास में। इसके साथ ही स्थापना के 84 साल बाद कांग्रेस पार्टी का औपचारिक विभाजन हो गया- कांग्रेस ओ और कांग्रेस आर!

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