आज हम आपको बताएंगे कि आखिर सती एक्ट कैसे अस्तित्व में आया! समान नागरिक संहिता का मुद्दा सुर्खियों में है। 22वां विधि आयोग इसे लागू करने के लिए स्टडी कर रहा है। आम लोगों से भी फीडबैक मांगा गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जून में भोपाल में एक कार्यक्रम के दौरान समान नागरिक संहिता की ये कहकर पुरजोर वकालत की कि एक ही परिवार में दो लोगों के लिए अलग-अलग नियम नहीं हो सकते। उनके बयान के बाद से ही इस मुद्दे पर हलचल तेज हो गई। समान नागरिक संहिता का मतलब है देश के हर नागरिक के लिए एक समान सिविल कानून। वो चाहें जिस भी मजहब के हों, जिस भी जाति के हों, पुरुष हों या महिला हों। शादी, तलाक, उत्तराधिकार, बच्चे को गोद लेना, संपत्ति में अधिकार जैसे सिविल मुद्दों पर सबके लिए एक कानून। फिलहाल इन मुद्दों पर अलग-अलग पर्सनल लॉ हैं, हिंदुओं के लिए अलग, मुस्लिमों के लिए अलग, ईसाइयों के लिए अलग। पर्सनल लॉ प्राचीन काल से चली आ रही प्रथाओं, परंपराओं पर आधारित हैं और उसके पैरोकार मानते हैं कि इन्हें बदला नहीं जा सकता। इसीलिए जरूरी है समान नागरिक संहिता। पर्सनल लॉ के नाम पर लैंगिक भेदभाव और कुरीतियों तक को संरक्षण मिलता है। उदाहरण के तौर पर सती प्रथा को ही ले लें। एक महिला को जिंदा जलने के लिए मजबूर करने या फिर किसी महिला के स्वेच्छा से अपने पति की चिता के साथ जलने की क्रूर परंपरा और उसका महिमामंडन। अंग्रेजों के जमाने में या यूं कहें कि कंपनी राज के वक्त ही सती प्रथा गैरकानूनी होने के बावजूद ये चलता रहा था। राजस्थान की 18 साल की रूप कंवर के जिंदा जल जाने तक चलता रहा जो शादी के महज 8 महीनों में ही विधवा हो गई थीं। राजा राम मोहन रॉय के अथक प्रयासों के बाद 1829 में ईस्ट इंडिया कंपनी शासन के गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिक ने 1829 में सती प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया था। लेकिन क्या आपको पता है कि भारत में ‘सती’ होने यानी पति की चिता के साथ महिला के जिंदा जल जाने की आखिरी रिकॉर्डेड घटना कौन सी थी? कब हुई? 80-90 के दशक या उसके बाद पैदा होने वाली पीढ़ी को शायद इसका अंदाजा भी नहीं होगा। कल्पना करके देखिए, जब भारत में महिला शासन के सर्वोच्च पद यानी प्रधानमंत्री बन चुकी थीं (इंदिरा गांधी-1966), जब अंतरिक्ष में भारतीय कदम रख चुका था (राकेश शर्मा-1984), परमाणु परीक्षण करके भारत एटॉमिक पावर बन चुका था (स्माइलिंग बुद्धा-1974), जब भारत में महिलाएं भी आईपीएस अफसर बनने लगी थीं (किरण बेदी- 1972)…आजादी के बाद समाज में क्रांतिकारी बदलाव आ चुके थे। ज्ञान-विज्ञान पर जोर था। महिलाएं सशक्त हो रही थीं। लेकिन इन सबके बावजूद 1987 में एक 18 साल की महिला अपने पति की चिता के साथ जिंदा जल जाती है। यकीन करना मुश्किल है। 4 सितंबर 1987 को राजस्थान में 18 साल की रूप कंवर ने पति की चिता के साथ आत्मदाह कर लिया। आजाद भारत के इतिहास में किसी महिला के सती होने की ये 40वीं और आखिरी घटना थी। इस घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। देशभर में इस कुप्रथा के खिलाफ आक्रोश दिखा। सामाजिक कार्यकर्ताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और नारीवादी संगठनों ने पूरे देश में इसके खिलाफ अभियान चलाया। आक्रोश इतना जबरदस्त था कि तत्कालीन राजस्थान सरकार को सती (रोकथाम) अधिनियम, 1987 यानी Commission of Sati Act बनाना पड़ा। इसके तहत सती होने की कोशिश करने, किसी को सती होने के लिए उकसाने या सती प्रथा का महिमामंडन करने को आपराधिक और दंडनीय बनाया गया। एक साल बाद 1988 में केंद्र सरकार ने भी इसे संघीय कानून में शामिल कर लिया।
4 सितंबर 1987 का दिन। राजस्थान के सीकर जिले का दिवराला गांव। राजपूतों के श्मशान घाट पर सैकड़ों की भीड़ जमा है। एक चिता सजी हुई है। भीड़ में कई हाथों में तलवार लिए हुए हैं। तभी 18 साल की रूप कंवर भीड़ से गुजरकर चिता के पास पहुंचती है। चिता पर जो शव रखा था वह कंवर के पति माल सिंह का था। रूप कुंवर मृत पति का सिर अपनी गोद में रखकर चिता पर बैठ जाती है। एक हाथ ऊपर उठाकर भीड़ को आशीर्वाद देने की मुद्रा में। चिता को आग लगाई जाती है और पति के शव के साथ ही रूप कुंवर जिंदा जल जाती है। भीड़ इस विचलित कर देने वाले मंजर से तनिक भी विचलित नहीं होती। उल्टे सती माता की जय का नारा लगाती रही। जब ये सबकुछ हो रहा था तब सैकड़ों की भीड़ में किसी ने भी आवाज नहीं उठाई कि एक महिला का अपने पति की चिता के साथ जिंदा जल जाना, चाहे मर्जी से हो या उसे इसके लिए मजबूर किया गया हो, गलत है। अमानवीय है। रूप कंवर के ससुराल वालों और पूरे गांव पर आरोप लगा कि उन्होंने उसे पति की चिता के साथ जिंदा जलने का दबाव डाला, उकसाया। ये अलग बात है कि अदालत में ये साबित नहीं हुआ।
रूप कंवर का बमुश्किल 8 महीने पहले ही ब्याह हुआ था। दसवीं तक पढ़ी-लिखी कंवर का जनवरी 1987 में माल सिंह से विवाह हुआ था। दोनों की जयपुर के ट्रांसपोर्ट नगर में धूमधाम से शादी हुई जहां कंवर के पिता का ट्रांसपोर्ट का बिजनस था। माल सिंह बीएससी का स्टूडेंट थे और दिवराली गांव में अपने परिवार के साथ रहते थे। हैरानी की बात ये है कि सिंह के पिता कोई अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे व्यक्ति नहीं, बल्कि स्कूल टीचर थे। शादी को अभी 8 महीने ही हुए थे कि एक दिन अचानक माल सिंह की तबीयत खराब हो जाती है। 2 सितंबर 1987 को उनके पेट में दर्द उभरा और उल्टियां होने लगीं। उन्हें सीकर के अस्पताल में भर्ती कराया गया। अगले दिन रूप कंवर भी पति की देखभाल के लिए अस्पताल पहुंच गईं। हालत सुधरने लगी तो रूप कंवर उसी दिन घर लौट आईं लेकिन 4 सितंबर को तड़के 4 बजे माल सिंह की मौत हो जाती है। उसी दिन उनका अंतिम संस्कार होता है और चिता के साथ रूप कंवर भी आत्मदाह कर लेती हैं। सती (रोकथाम) अधिनियम, 1987 भले ही सती प्रथा या सती के महिमामंडन पर रोक लगाती है लेकिन आज भी दिवराली गांव में और रूप कंवर की सती के रूप में पूजा की जाती है। ससुराल में वह जिस कमरे में रहती थीं, वह अब मंदिर है। गांव के घर-घर में देवी-देवताओं की तस्वीरों के बीच रूप कंवर की तस्वीरे भी जगह पाती हैं। उनकी शादी की तस्वीरें। एक एडिट की गई तस्वीर भी है जिसमें कंवर को अपने पति का शव गोद में लेकर चिता पर बैठे हुए दिखाया गया है। ये सबकुछ गैरकानूनी है। सती का महिमामंडन गैरकानूनी है। उसके नाम पर मंदिर बनाना गैरकानूनी है। ये सब तब है जब सती का महिमामंडन गैरकानूनी है। हालांकि, अच्छी बात ये है कि लोगों की सोच बदल रही है। सती प्रथा के खिलाफ कानून बनने के बाद किसी महिला के अपने पति की चिता के साथ जलने की फिर कोई वारदात सामने नहीं आई।
आजादी के 76 साल बाद भी देश के सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून नहीं है। ये तब है जब संविधान के आर्टिकल 44 में समान नागरिक संहिता की बात कही गई है कि सरकार और संसद इसे सुनिश्चित करने की दिशा में काम करेंगी। समान नागरिक संहिता के विरोधी इसे अपने मजहबी, धार्मिक और पारंपरिक मसलों में हस्तक्षेप बताते हैं। वैसे किसी भी सामाजिक सुधार का विरोध होता ही है। जब सुधार की बात होती है तो विरोध के स्वर भी उठते हैं। 1950 के दशक में जब सरकार हिंदू कोड बिल लाई थी तब उसका इतना विरोध हुआ कि एक प्रयास में उसे पास ही कराया जा सका। तब हिंदुवादी नेता राम नारायण सिंह ने इसका ये कहकर विरोध किया था कि सरकार हिंदू समाज में उथल-पुथल लाने के लिए एक साजिश के तहत ये बिल ला रही है। लेकिन उस बिल के जरिए हिंदू महिलाओं को विवाह, उत्तराधिकार और तलाक जैसे मसलों पर पुरुषों की तरह अधिकार मिले।