क्या आपको पता है कि टाटा ग्रुप ने 1919 से अपनी रीति बदल दी! टाटा समूह के दो बड़े ट्रस्ट हैं। सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट और सर रतन टाटा ट्रस्ट । इन दोनों की टाटा संस (Tata Sons) में मालिकाना हिस्सेदारी है। यह कंपनी ही पूरे टाटा साम्राज्य को कंट्रोल करती है। यह 103 अरब डॉलर का है। इसमें एविएशन से लेकर ऑटोमोबाइल तक शामिल हैं। अभी दोनों फाउंडेशनों की टाटा संस में मिलाकर हिस्सेदारी करीब 52 फीसदी है। इसका नेतृत्व एक शख्स रतन टाटा करते हैं। हालांकि, ऐसा 1995 से शुरू हुआ। पहले इन दोनों चैरिटेबल ट्रस्टों का प्रमुख अलग-अलग व्यक्ति होते थे। अब दोबारा पुरानी परंपरा पर लौटने की योजना बनाई जा रही है। यानी दोनों ट्रस्टों का प्रमुख अलग-अलग होगा। ऐसे में कई सवाल उठते हैं। आखिर इसके पीछे क्या कारण हो सकता है? 1919 से चली आ रही परंपरा को 1995 में बदलने का क्या कारण था? आइए, यहां इन सभी पहलुओं को समझने की कोशिश करते हैं।
टाटा समूह का इतिहास बताता है कि सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट और सर रतन टाटा ट्रस्ट के प्रमुख अलग-अलग शख्स होते थे। यह परिपाटि 1995 में जाकर टूट गई। तब से दोनों ट्रस्टों के चेयरमैन रतन टाटा हैं। रतन टाटा के पिता थे नवल टाटा। 1988 में कमान बदली नवल टाटा से रतन टाटा के कंधों पर जिम्मेदारी आई। रतन टाटा SRTT के चेयरमैन बने। उस समय SDTT के चेयरमैन जेआरडी टाटा थे। 1993 में अपने निधन तक जेआरडी इस पद पर रहे।आपको इसके पहले ले चलते है। जेआरडी टाटा के हाथों में SDTT की कमान 1949 में आई थी। उसके पहले आर्देशिर दलाल इसके चेयरमैन थे। उस समय टाटा ग्रुप के संस्थापक जमसेतजी टाटा के दूसरे बेटे सर रतन टाटा की पत्नी नवजबाई टाटा SRTT का नेतृत्व कर रही थीं। 1965 में अपने निधन तक उन्होंने इसकी बागडोर अपने हाथों में रखी। नवजबाई टाटा ने ही अपने पति रतनजी टाटा की मृत्यु के बाद रतन को गोद लिया था। नवजबाई रतन टाटा की दादी हैं।
नहीं हुआ है अंतिम फैसला
दो ट्रस्टों के अलग-अलग चेयरमैन पर अभी कोई अंतिम निर्णय नहीं लिया गया है। इस प्लान में बदलाव भी हो सकता है। दोनों ट्रस्टों के बोर्ड की बैठक 16 अगस्त को होनी है। इसमें मंथन होगा। विचार इस बात पर किया जाएगा कि टाटा संस का चेयरमैन एक या दोनों या दोनों में से किसी भी ट्रस्ट का प्रमुख न बन सके। कंपनी से रिटायरमेंट के बाद ही चेयरमैन की सीट पर उनके बैठने का रास्ता बन सके।
इसका मतलब यह है कि जो कोई भी SDTT और SRTT में रतन टाटा का उत्तराधिकारी होगा, वह टाटा संस का नेतृत्व नहीं करेगा। इस तरह रतन टाटा अंतिम व्यक्ति होंगे जिन्होंने दोनों टाटा ट्रस्टों के चेयरमैन होते हुए टाटा संस का भी नेतृत्व किया। टाटा संस के मौजूदा चेयरमैन एन चंद्रशेखरन हैं। वह सिर्फ रिटायरमेंट के बाद ही दोनों में से किसी एक ट्रस्ट के चेयरमैन बन सकते हैं।
टाटा ग्रुप को जो लोग समझते हैं, उनका कहना है कि इसका मकसद यह है कि पावर किसी एक के हाथ में केंद्रित नहीं हो। वहीं, कुछ का कहना है कि इससे शीर्ष स्तर पर फैसले लेने में समस्याएं आएंगी। टाटा ट्रस्टों में रतन टाटा का उत्तराधिकारी कौन होगा, इस पर तमाम नजरें टिकी हुई हैं। इसकी वजह यह है कि इन ट्रस्टों का टाटा संस पर काफी ज्यादा असर है। इससे तय होगा कि सूई से नमक तक बनाने वाला समूह किस तरह से मैनेज होगा।
1919-1921 नवजबाई रतन टाटा
1922-1927 दोराबजी जे टाटा
1927-1965 नवजबाई रतन टाटा
1965-1988 नवल एच टाटा
1932 दोराबजी टाटा
1932-1938 एन सकलातवाला
1938-1948 सोराब सकलातवाला
1948-1949 होमी मोदी
1949 आर्देशिर दलाल
1949- 1950 जेआरडी टाटा
1957- 1969 होमी मोदी
1969- 1993 जेआरडी टाटा
1994 जेजे भाबा
1995 से रतन एन टाटा
यह वे सभी लोग हैं, जो अब तक टाटा ग्रुप को संभालते आए हैं!
दो ट्रस्टों के अलग-अलग चेयरमैन पर अभी कोई अंतिम निर्णय नहीं लिया गया है। इस प्लान में बदलाव भी हो सकता है। दोनों ट्रस्टों के बोर्ड की बैठक 16 अगस्त को होनी है। इसमें मंथन होगा। विचार इस बात पर किया जाएगा कि टाटा संस का चेयरमैन एक या दोनों या दोनों में से किसी भी ट्रस्ट का प्रमुख न बन सके। कंपनी से रिटायरमेंट के बाद ही चेयरमैन की सीट पर उनके बैठने का रास्ता बन सके।
इसका मतलब यह है कि जो कोई भी SDTT और SRTT में रतन टाटा का उत्तराधिकारी होगा, वह टाटा संस का नेतृत्व नहीं करेगा। इस तरह रतन टाटा अंतिम व्यक्ति होंगे जिन्होंने दोनों टाटा ट्रस्टों के चेयरमैन होते हुए टाटा संस का भी नेतृत्व किया। टाटा संस के मौजूदा चेयरमैन एन चंद्रशेखरन हैं। वह सिर्फ रिटायरमेंट के बाद ही दोनों में से किसी एक ट्रस्ट के चेयरमैन बन सकते हैं।