कांग्रेस की आंतरिक कलह को खरगे कैसे दूर करेंगे, यह सबसे बड़ा सवाल है! भारत की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस फिलवक्त बुरे दौर से गुजर रही है। इसे उबारने के लिए एक तरफ राहुल गांधी देश भ्रमण पर निकले हैं। अध्यक्षी के चुनाव ने पहले से ही पार्टी में नेताओं की कलह को और हवा दे दी है। सारी तैयारी के बाद अशोक गहलोत ने तो उम्मीदवारी वापस ले ली, लेकिन शशि थरूर अंतिम वक्त तक अड़े रहे। हालांकि शशि थरूर से कांग्रेसियों ने जिस तरह कन्नी काटी, उसी वक्त यह साफ हो गया था कि मल्लिकार्जुन खरगे ही 137 साल पुरानी कांग्रेस के छठी बार अध्यक्ष बनने वाले हैं। लेकिन कांग्रेस जिस मौजूदा दौर में अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही है, उसमें खरगे का खड्ग कितना कारगर होगा, यह यक्ष प्रश्न अब भी बना हुआ है।
यह बात भी सबको पता है कि खरगे सोनिया गांधी की पसंद हैं। 2014 से अब तक के दो आम चुनावों और कई विधानसभा चुनावों में नेहरू परिवार को जनता ने जिस तरह खारिज कर दिया है, उसे देखते हुए इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि नेहरू परिवार के समर्थन से बने छठे अध्यक्ष खरगे कोई करिश्मा कर पाएंगे। अंग्रेजों को भारत से भगाने के उद्देश्य से 137 साल पहले 28 दिसंबर, 1885 को बनी कांग्रेस का इतिहास गौरवशाली तो रहा है। अब तक हुए 18 आम चुनावों में छह बार कांग्रेस ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई तो चार बार गठबंधन की सरकार का नेतृत्व भी किया। लेकिन कांग्रेस का दुर्भाग्य कहें या उसके आंतरिक लोकतंत्र की मजबूती कि उसके नेता किसी-न-किसी बात पर आजादी मिलने के पहले भी नाराज होते थे और आजादी के बाद लंबे समय तक सत्ता में बने रहने के बावजूद समय-समय पर इनकी नाराजगी सामने आती रही है। नाराजगी या नेतृत्व से मनमुटाव के कारण कांग्रेस आजादी से पूर्व भी टूटी और बाद में सत्ता हासिल करने के बाद भी यह सिलसिला थमा नहीं।
गुलाम नबी आजाद की नई पार्टी को शामिल कर लें तो अब तक कांग्रेस तकरीबन छह दर्जन बार टूट चुकी है। यानी कांग्रेस से निकल कर इसके नेताओं ने 71 नई पार्टियां बना ली हैं। यह अलग बात है कि इनमें कई तो अब अस्तित्व में ही नहीं हैं। कांग्रेस के साथ एक और धारणा भी काम करती है कि हर टूट के बाद वह मजबूत होती रही है। बहरहाल, अभी कांग्रेस को नए अध्यक्ष के रूप में खरगे मिले हैं। अध्यक्षी के चुनाव में अशोक गहलोत की जो भूमिका सामने आई या इसके ठीक पहले गुलाम नबी आजाद जैसे पुरानी कांग्रेसी ने अलग राह पकड़ी, उससे साफ है कि 80 साल की उम्र में खरगे को कांग्रेस को संभालने में कितनी मशक्कत करनी पड़ेगी। इसलिए कि कांग्रेस का विक्षुब्ध गुट जी-23 से भी उसे निपटना होगा।
कांग्रेस को अंदरूनी कलह और बाहरी संकटों से उबरने के लिए के. कामराज जैसे व्यक्ति की जरूरत जरूर महसूस हो रही होगी या होगी। 1962 में चीन से युद्ध के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ कांग्रेस के बाहर-भीतर आवाज उठने लगी थी। कांग्रेस फजीहत झेल रही थी। कामराज तब मद्रास के मुख्यमंत्री थे। उन्होंने एक सिंडीकेट बनाया। सिंडीकेट की अवधारणा यह थी कि सत्ता में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोग पद छोड़ें और जनता के बीच जाकर काम करें। उनकी इस योजना पर अमल करते हुए तब छह कैबिनेट मंत्रियों और कई मुख्यमंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया था। कामराज ने कांग्रेस में किंग मेकर की भूमिका भी निभाई। तीन प्रधानमंत्रियों- जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी के चयन में के. कामराज की ही भूमिका थी। उन्होंने स्कूली जीवन से ही स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। गांधीवादी विचारों को उन्होंने आत्मसात किया और सत्ताधारी दल कांग्रेस को मजबूत करने के लिए कामराज प्लान दिया। आज वजूद पर संकट झेलती कांग्रेस में पद के लिए मारामारी मची है, लेकिन कामराज ने अपने प्लान के तहत मुख्यमंत्रियों और केंद्रीय मंत्रियों को पद त्याग कर पार्टी के लिए काम करने को प्रेरित किया था।
जी-23 के गठन और इस समूह में शामिल नेताओं की शीर्ष नेतृत्व से नाराजगी ने कांग्रेस में एक और विखंडन के हालात पैदा कर दिए हैं। अध्यक्षी के चुनाव से उपजी खटास आने वाले दिनों में एक और टूट को जन्म दे तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने जब अध्यक्षी का चुनाव लड़ने का ऐलान किया तो उन्हें सीएम पद छोड़ने की मजबूरी पैदा हुई। गहलोत अपने करीबी सीपी जोशी को सीएम बनाना चाहते थे, जबकि सचिन पायलट लंबे समय से इसी मौके के इंतजार में थे। सीएम पद को लेकर खींचतान इतनी बढ़ी कि भीतर-ही-भीतर राजस्थान में कांग्रेस परोक्ष तौर पर दोफाड़ तो हो ही गई है। गहलोत अध्यक्ष तो न बन सके, लेकिन उनकी हरकतों से आलाकमान यानी सोनिया गांधी भी नाराज बताई जाती हैं। संभव है कि उन्हें इसकी सजा भी मिले और कहीं सीएम की कुर्सी न छिन जाए। कांग्रेस में गुटबंदी को हवा देने में कपिल सिब्बल जैसे नेता भी पीछे नहीं रहे हैं।
2014 में केंद्र की सत्ता कांग्रेस के हाथ से निकली तो उसके बाद राज्यों में भी फिसलती रही। भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देकर इसे खत्म करने की तो जिद ही ठान ली है। अव्वल तो कांग्रेस का कोई प्रतिनिधि विरले जीतता है और जीत गया तो उसके भाजपा में शरणागत हो जाने के प्रबल आसार बने रहते हैं। फिलहाल कांग्रेस में टूट की जमीन राजस्थान में तैयार हो रही है। यही देखना है कि झटका गहलोत देते हैं या पायलट। इसलिए दोनों एक दूसरे को अपने राजनीतिक भविष्य के लिए सबसे बड़ा खतरा मानते हैं। उससे पहले कांग्रेस को ज्योतिरादित्य सिंधिया ने झटका दिया था। सिंधिया के एक फैसले से मध्यप्रदेश में कांग्रेस औंधे मुंह गिरी थी। राजस्थान में भी मध्यप्रदेश की पुनरावृत्ति उसी वक्त हो रही थी, लेकिन किसी तरह हालात संभल गये। तब सचिन पायलट भी जाते-जाते रुके थे।
कांग्रेस में टूट फूट का इतिहास पुराना है। आजादी मिलने से पहले भी कांग्रेस में दो बार टूट हो चुकी थी। सीआर दास और मोतीलाल नेहरू ने 1923 में स्वराज पार्टी बनाई थी। नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने सार्दुल सिंह और शील भद्र के साथ 1939 में फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन किया था। आजादी के बाद तो कांग्रेस दर्जनों बार टूटी है। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, शरद पवार की एनसीपी जैसी कई पार्टियां बनती रहीं। स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस में पहली टूट 1951 में हुई थी। जेबी कृपलानी ने अलग होकर किसान मजदूर प्रजा पार्टी बना ली थी। एनजी रंगा ने हैदराबाद स्टेट प्रजा पार्टी बनाई थी। सी. राजगोपालाचारी ने कांग्रेस से अलग होकर 1956 में इंडियन नेशनल डेमोक्रेटिक पार्टी बनाई थी। सौराष्ट्र खेदुत संघ भी बनी थी। बिहार, राजस्थान, गुजरात और ओडिशा में 1959 में कांग्रेस टूटी थी। 1964 में केएम जॉर्ज ने केरल कांग्रेस बनाई तो 1967 में चौधरी चरणसिंह ने कांग्रेस छोड़ कर भारतीय क्रांति दल का गठन किया। बाद में चरणसिंह ने लोकदल नाम से पार्टी बनाई। बहरहाल, खड़गे को इस विषम परिस्थिति में कांग्रेस को नया जीवन देने की चुनौती होगी।