पूरे देश में जिस तरीके से कांग्रेस कमजोर पर दी जा रही है इस बारे में सभी को पता है! महंगाई, बेरोजगारी और जीएसटी के मुद्दे पर मोदी सरकार को घेरने की कोशिश में लगी कांग्रेस ने अब उस पैंतरे को आजमाना शुरू कर दिया है, जिस पैंतरे से मात खाकर पार्टी खुद 2014 में सत्ता से बाहर हुई थी। हां, आपने सही समझा। कांंग्रेस अब बीजेपी से मुकाबला करने के लिए सिविल सोसायटी के लोगों का समर्थन मांग रही है। मौजूदा राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों में सिविल सोसायटी का साथ कांग्रेस के लिए कितना फायदेमंद और कितना नुकसानदायक होगा, इसका जिक्र करने से पहले हम आपको याद दिला दें कि 2011 में अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी समेत कुछ सिविल सोसायटी के लोगों ने तत्कालीन कांग्रेस सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ एक बड़ा जन आंदोलन खड़ा किया था। जिसका नतीजा रहा है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा और सिविल सोसायटी के लोगों का आंदोलन आगे चलकर राजनीतिक दल ‘आम आदमी पार्टी’ की शक्ल में तब्दील हो गया।
विश्वसनीयता पर क्यों ना हो शक?
राहुल गांधी जिस सिविल सोसायटी के दम पर बीजेपी से टकराने की सोच रहे हैं। यह वही सिविल सोसायटी है कि जिसने साल 2011 में करप्शन के खिलाफ अन्ना आंदोलन को खड़ा किया था। अन्ना आंदोलन किस तरह धाराशाही हुआ वह सभी लोग जानते हैं। हां उस आंदोलन के दम पर अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी जरूर बना ली, जिसने आगे चलकर दिल्ली में सरकार बनाई और अरविंद केजरीवाल खुद सीएम बन गए। अन्ना का आंदोलन जिस मकसद के लिए शुरू हुआ था, वह सब मिट्टी में मिल गए।
हालांकि राजनीतिक जानकारों का कहना है कि सिविल सोसायटी के लोग बीजेपी के हिन्दुत्व के एजेंडे के विरोध में कांग्रेस के साथ चलने के लिए राजी हो रहे हैं। सिविल सोसाइटी के एजेंडे में बीजेपी और RSS के सिद्धांतों का विरोध हमेशा से देखने को मिला है। सिविल सोसायटी से जुड़े ज्यादातर लोग भगत सिंह के सिद्धांतों को मानते हैं। ऐसे में कांग्रेस को लगता है कि भारत जोड़ो यात्रा में सिविल सोसायटी के लोगों को जोड़ने से बीजेपी को बड़ा झटका लगेगा। मगर कुछ राजनीतिक जानकारों का ये भी कहना है कि अन्ना आंदोलन के बाद सिविल सोसायटी अपने उद्देश्य से भटक गई है। ऐसे में देश के आम लोगों के बीच सिविल सोसायटी का कुछ खास रुतबा नहीं है।
साल 2020 के जून महीने में तीन कृषि कानूनों के खिलाफ शुरू हुए किसानों के देशव्यापी आंदोलन में भी सिविल सोसायटी के लोगों ने शिरकत की थी। किसान नेता राकेश टिकैत के साथ सिविल सोसायटी के लोगों ने भी मंच साझा कर बीजेपी सरकार को घेरने की पूरी कोशिश की थी। सिविल सोसायटी के मजबूत संगठन ‘स्वराज इंडिया’ के योगेंद्र यादव ने उस दौरान दावा किया था कि सिविल सोसायटी के लोगों का किसान आंदोलन को समर्थन देना बीजेपी सरकार के लिए खतरे की घंटी है। इसका अंजाम यूपी, उत्तराखंड चुनाव में भुगतने को मिलेंगे। मगर सरकार ने चुनाव से पहले कृषि कानूनों को वापस ले लिया और चुनावों में बीजेपी सरकार ने भारी जीत दर्ज की। सिविल सोसायटी की मेहनत कुछ रंग नहीं लाई। सिविल सोसायटी के लोगों को देश की जनता ने पूरी तरह नकार दिया।
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि सिविल सोसायटी को लेकर लोगों में एक राय नहीं है। कुछ लोग तो इन्हें देश विरोधी गतिविधियों में शामिल लोगों का हितैषी तक बताते हैं। दरअसल 30 साल 2015 के जुलाई महीने में सिविल सोसायटी से जुड़े वकील प्रशांत भूषण और अन्य वकीलों ने 1993 में मुंबई में हुए बम धमाके के दोषी याकूब मेमन की फांसी को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा आधी रात में खटखटाया था। वहीं जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (JNU) में होने वाले विवादों को लेकर नर्मदा बचाओ आंदोलन की प्रमुख नेता मेधा पाटकर भी अपना समर्थन दे चुकी है।
देश में सिविल सोसायटी के लोगों के प्रति भले ही लोगों के दिल में कुछ ज्यादा सहानुभूती ना हो। लेकिन मंहगाई के मुद्दे पर सिविल सोसायटी के लोग देश की जनता को प्रभावित कर सकते हैं। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि सिविल सोसायटी के लोगों की पकड़ शहरी क्षेत्र में ज्यादा है। शहरी क्षेत्र के लोग धर्म और जाति के आधार पर कम और रोजमर्रा की समस्याओं पर अधिक फोकस करते हैं। ऐसे में कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा के मद्देनजर सिविल सोसायटी की भूमिका को कम नहीं आंका जा सकता है।
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने पार्टी की प्रस्तावित ‘भारत जोड़ो’ यात्रा के संदर्भ में सोमवार को सिविल सोसायटी के कई प्रमुख लोगों के साथ बैठक की। राहुल गांधी के साथ यहां हुई बैठक में ‘स्वराज इंडिया’ के योगेंद्र यादव और कई अन्य सामाजिक एवं गैर सरकारी संगठनों के लोग शामिल हुए। सिविल सोसायटी के प्रतिनिधियों के साथ यह बैठक इस बारे में चर्चा के लिए हुई कि कांग्रेस की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा में उनकी क्या भूमिका हो सकती है। कांग्रेस की यह यात्रा 7 सितंबर को तमिलनाडु के कन्याकुमारी से आरंभ होगी, जो 3500 किलोमीटर की दूरी तय करते हुए कश्मीर में समाप्त होगी। कांग्रेस का कहना है कि इस यात्रा में सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधि और समान विचारधारा के लोग शामिल हो सकते हैं।