अब हर देश में चीन का बहिष्कार करना शुरू कर दिया है! कुछ साल पहले की बात है। खिलौने बेचने वाले स्टोरों में ‘मेड-इन-चाइना’ छाया था। हाथ में जो खिलौना उठाओ चीनी टैग ही दिखता था। होता भी क्यों नहीं। भारत में बिकने वाले 10 में से 7 खिलौने चीनी होते थे। लेकिन, तस्वीर बदल रही है। गिल्ली-डंडा, देसी लट्टू और बिक्रम बेताल ने खेल पलटना शुरू कर दिया है। भारतीय टॉय मार्केट में इनकी लोकप्रियता बढ़ने लगी है। पहले इस पिक्चर से भारतीय मैन्यूक्चरर दूर-दूर तक नहीं थे। हालांकि, अब कई भारतीय कंपनियों की एंट्री होने से चीनियों की हवा खराब है। दुनिया में भारतीय खिलौनों का डंका बजने लगा है। इसकी वजह सरकार का एक कदम है। इसने सस्ते चीनी खिलौने के चंगुल से भारत को आजाद किया है। चीनी खिलौनों के आयात पर तगड़ी मार की है। 2021 में सरकार ने इस इंडस्ट्री के लिए क्वालिटी सर्टिफिकेशन लेना अनिवार्य किया था। इसने कुछ सेगमेंट में आयात पर अंकुश लगाया है। इसके साथ ही इनके लिए कोडों की शुरुआत हुई है। इसका अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस्तेमाल होता है। ट्वाज (क्वालिटी कंट्रोल) ऑर्डर के बाद देश में कोई भी खिलौना ISI (इंडियन स्टैंडर्ड्स इंस्टीट्यूट) मार्क के बगैर नहीं बेचा जा सकता है।
सरकार के ये प्रयास रंग लाए हैं। भारतीय खिलौनों का डंका न केवल भारत बल्कि दुनिया में बजने लगा है। भारतीय खिलौनों के बाजार को आप छोटा-मोटा समझने की भूल मत करिए। यह कारोबार 1.5 अरब डॉलर का है। हालांकि, इसमें ज्यादातर खिलाड़ी असंगठित हैं। कुल मार्केट में 90 फीसदी हिस्सेदारी इन्हीं की है। 2 सालों में भारत का ट्वाय मार्केट 2-3 अरब डॉलर का आंकड़ा छू सकता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर डिमांड 5 फीसदी के बजाय बढ़कर 10-15 फीसदी होने के आसार हैं।
केंद्र सरकार के कदम के चलते कंपनियों ने इनोवेशन पर जोर दिया है। देसी कंपनियां जो खिलौने बना रही हैं उनमें भारतीय संस्कृति की झलक दिखती है। इसमें फनस्कूल और हासब्रो मार्केट लीडर्स हैं। ये अपने खिलौनों और गेम्स में भारतीय जायका लाने की कोशिश कर रही हैं। इसके अलावा सेक्टर में तमाम स्टार्टअप भी सामने आ रहे हैं। ये इको-फ्रेंडली भारतीय चीजों से खिलौने बनाते हैं। इन खिलौनों में भारतीय कल्चर दिखता है। इन्हें अलग-अलग थीम पर तैयार किया जाता है। इनमें जन्माष्टमी से लेकर रामायण तक की थीम दिखती है। इन खिलौनों की तगड़ी डिमांड है। भरतीय ग्राहक इन्हें हाथोंहाथ ले रहे हैं। कारण है कि माता-पिता इन खिलौनों के जरिये अपने बच्चों को भारतीय कल्चर से आसानी से जोड़ पाते हैं।
देसी खिलौनों की मांग
पारंपरिक भारतीय खिलौनों की बिक्री उम्मीद से बेहतर है। फनस्कूल इंडिया के सीईओ आर जसवंत ने बताया कि हमें इनमें काफी संभावना दिख रही है।शूमी ट्वायज की संस्थापक मीता शर्मा ने कहा कि पुराने जमाने के खिलौनों ने दोबारा वापसी की है। देसी करेक्टरों से बच्चे खुद को आसानी से जोड़ लेते हैं।हासब्रो इंडिया के कमर्शियल डायरेक्टर ललित परमार ने कहा कि यादों को जोड़ना गेम्स और ट्वायज में सबसे अहम पहलू होता है। हम सभी कई तरह के पारंपरिक खेलों से होकर गुजरे हैं। कुछ करेक्टर हमेशा हमारी जुबान पर होते हैं।
दमदार मैन्यूफैक्चरिंग और सस्ते लेबर के कारण भारतीय खिलौना बाजार में चीनी खिलौनों की भरमार थी। आज की तारीख में दुनिया में जितने भी खिलौने बिकते हैं, उनमें से करीब 75 फीसदी चीन में बनते हैं। ड्रैगन 45 अरब डॉलर के खिलौनों का निर्यात करता है। हालांकि, चीन के खिलौनों के साथ दिक्कत है। ये सिर्फ स्थानीय मैन्यूफैक्चरर्स के लिए खराब नहीं हैं, बल्कि उपभोक्ताओं के लिए भी अच्छे नहीं हैं। 2009 में भारत सरकार ने चीनी खिलौनों पर छह महीने का बैन लगा दिया था। इसमें सुरक्षा का हवाला दिया गया था। भारतीय बाजार में बेचे जाने वाले चीनी खिलौने जहरीले थे। इनमें भारी मात्रा में कैडमियम और लेड पाया गया था। ये दोनों कैंसर करते हैं।भारतीय कंपनियों की एंट्री से बकरी और शेयर जैसे पारंपरिक खेलों की वापसी हुई है। खो-खो और कबड्डी जैसे भारतीय खेलों की थीम पर खिलौनों को डिजाइन किया गया है। फनस्कूल ने लट्टू और गिल्ली-डंडा जैसे गेम्स की पेशकश तक की है।2009 में भारत सरकार ने चीनी खिलौनों पर छह महीने का बैन लगा दिया था। इसमें सुरक्षा का हवाला दिया गया था। भारतीय बाजार में बेचे जाने वाले चीनी खिलौने जहरीले थे। इनमें भारी मात्रा में कैडमियम और लेड पाया गया था। ये दोनों कैंसर करते हैं।भारतीय कंपनियों की एंट्री से बकरी और शेयर जैसे पारंपरिक खेलों की वापसी हुई है। खो-खो और कबड्डी जैसे भारतीय खेलों की थीम पर खिलौनों को डिजाइन किया गया है। फनस्कूल ने लट्टू और गिल्ली-डंडा जैसे गेम्स की पेशकश तक की है।