Thursday, February 6, 2025
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क्या लालू यादव की उपलब्धियों से डर गए है नीतीश कुमार?

नीतीश कुमार अब लालू यादव की उपलब्धियों से डर गए है! कांग्रेस ने बड़े सधे कदमों से ज्यादातर विपक्षी दलों को आखिरकार अपने चक्रव्यूह में फंसा लिया है। इस व्यूह रचना में कांग्रेस और राहुल गांधी का साथ दिया है आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव ने। कांग्रेस और राहुल गांधी के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ने वाले नेताओं और राजनीतिक दलों के अब न राहुल गांधी के पीएम फेस बनने पर आपत्ति है और न कांग्रेस से कोई नफरत। सबसे आश्चर्य इस बात पर है कि जिस नीतीश कुमार ने विपक्षी एकता की जमीन तैयार की, अब विपक्षी गठबंधन I.N.D.I.A में उन्हें ही पूछने वाला कोई नहीं है। साल 2025 में बिहार के सीएम की कुर्सी छोड़ने का उन्होंने पहले ऐलान किया, फिर पीएम फेस की मारामारी से उन्होंने अपने को अलग किया और अब उनकी हालत यह है कि एक अदद संयोजक पद के लिए तरस गए। उनके दिल पर इसे लेकर कैसी गुजरती होगी, इसका सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है। आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव किडनी ट्रांसप्लांट के बाद पहली बार पटना में इस साल 23 जून को हुई विपक्षी बैठक में नमूदार हुए थे। तब से अब तक विपक्षी गठबंधन की तीन बैठकों में वे शिरकत कर चुके हैं। दो बार राहुल गांधी को मटन की पार्टी दे चुके हैं। अब तो राहुल मटन के साथ राजनीति के गुर भी लालू से सीख रहे हैं। उस लालू से वे ट्रेनिंग ले रहे, जो कमोबेश डेढ़ दशक से राजनीति से बाहर रहे हैं। चारा घोटाले में सजायाफ्ता है। उम्र भी ढलान पर है और कई तरह की बीमारियों से जूझ रहा है। लालू का एक ही सपना है कि राहुल गांधी दिल्ली का तख्त संभालें और उनके बेटे मौजूदा डेप्युटी सीएम तेजस्वी यादव बिहार का सरताज बनें। इसके लिए उन्हें नीतीश कुमार की बलि भी देनी पड़े तो शायद ही वे पीछे हटेंगे। यानी विपक्षी दलों को एकजुट करने का भले ही नीतीश कुमार ने अपने सारे अरमानों पर पानी फेर लिए, लेकिन लालू के दिल में इसका तनिक भी मलाल नहीं है।

लालू प्रसाद यादव बेजोड़ नेता हैं। चारा घोटाले में सजायाफ्ता होने, वर्षों जेल में रहने और किडनी बदलने के बाद नए जोश के साथ दोबारा राजनीति में सक्रिय हो गए हैं। उनके सजायाफ्ता होने के बाद यह माना जा रहा था कि उनकी राजनीति अब समाप्त हो गई। उसे उन्होंने गलत साबित कर दिया है। बिहार की राजनीति में उनकी जड़ें इतनी गहरे पैठी हैं कि बड़े से बड़े झंझावात को भी वे झेल जाते हैं। राष्ट्रीय राजनीति में भी उनकी मजबूत पकड़ है। लोकसभा में उनकी पार्टी का एक भी सांसद नहीं है, फिर भी विपक्षी खेमे में उनकी प्रतिष्ठा पूर्व की भांति कायम है। यह लालू का ही कौशल है कि जो राहुल अपनी पार्टी के नेताओं तक को मिलने का समय नहीं देते, वे शिष्य भाव से लालू को सुनते हैं, उन्हें समय और सम्मान देते हैं। अब इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए कि वे राहुल को पीएम बनाने के लिए फील्ड सजा रहे हैं। कांग्रेस वही करेगी, जो लालू चाहेंगे। एक समय था, जब बिहार में कांग्रेस अध्यक्ष बनाने से लेकर किसे कहां से उम्मीदवार बनाना है तक, लालू ही तय करते थे। एक बार फिर इतिहास अपने को दोहराता दिख रहा है।

विपक्षी एकता की सबसे पहली कवायद पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने शुरू की थी। हां, उनकी कोशिश में कांग्रेस के लिए कोई जगह नहीं थी। कांग्रेस मौन साधे रही। तेलंगाना के सीएम केसी राव उसके बाद मुखर हुए। वह भी कुछ दिनों के सियासी पर्यटन के बाद खामोश हो गए। राव की खामोशी तो अब भी बरकरार है। फिर बारी आई नीतीश कुमार की। कांग्रेस ने पहले तो उन्हें कोई भाव ही नहीं दिया, लेकिन लालू यादव के कहने पर सोनिया ने उनसे मुलाकात कर ली। यह रस्म अदायगी भी हो गई। इस बीच लालू किडनी ट्रांसप्लांट के सिलसिले में कुछ महीनों तक सिंगापुर में रहे। लौटते ही उन्होंने अपना काम शुरू किया। मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी ने पहली बार नीतीश कुमार से आमने-सामने मुलाकात की। उन्हें विपक्ष को गोलबंद करने का दायित्व सौंपा गया। नीतीश ने ईमानदारी से पटना में डेढ़ दर्जन विपक्षी दलों के नेताओं को जुटाया। लालू भी बैठक में शामिल हुए, लेकिन राहुल की शादी और विपक्षी नेताओं के बाराती बनने का प्रसंग छेड़ कर उन्होंने अगले कदम का संकेत भी दे दिया। फिर क्या था, मानहानि मामले में सुप्रीम कोर्ट से तात्कालिक राहत मिलते ही राहुल गांधी पहुंच गए लालू के घर मटन पार्टी का लुत्फ उठाने। तीसरी बैठक होते-होते अब यह बात साफ हो गई है कि विपक्ष का पीएम फेस 2024 में राहुल गांधी ही होंगे।

1947 में आजादी मिलने के बाद से लेकर 2014 तक देश में 16 आम चुनाव हुए। कांग्रेस ने इनमें पूर्ण बहुमत की छह बार सरकार बनाई। सत्तारूढ़ गठबंधन का चार बार कांग्रेस ने नेतृत्व भी किया। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में कांग्रेस ने सर्वाधिक समय तक सत्ता में रहने का रिकार्ड बनाया। पहली बार लोकसभा के चुनाव हुए तो कांग्रेस ने 364 सीटों के साथ प्रचंड बहुमत हासिल किया। नरेंद्र मोदी के अभ्युदय के साथ कांग्रेस खात्मे की ओर बढ़ने लगी। साल 2014 यानी 16वीं लोकसभा में कांग्रेस 44 सीटों पर खिसक गई। साल 20019 में थोड़ी स्थिति सुधरी, फिर भी संख्या सिर्फ 51 तक पहुंची। कांग्रेस की खस्ता हालत का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि अमेठी जैसी पारंपरिक सीट गांधी परिवार के हाथ से निकल गई। राहुल गांधी हार गए और अमेठी सीट स्मृति ईरानी ने अपने नाम कर ली। कांग्रेस ने देश को सात प्रधानमंत्री दिए। इनमें जवाहर लाल नेहरू, गुलजारीलाल नंदा कार्यवाहक प्रधानमंत्री, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, पीवी नरसिंह राव और मनमोहन सिंह शामिल हैं। देश में कांग्रेस के नेतृत्व वाली आखिरी सरकार मनमोहन सिंह की रही, जिसका कार्यकाल 2004 से 2014 तक रहा।

साल भर पहले तक ऐसा लग रहा था कि कांग्रेस का कोई नामलेवा अब शायद ही बचे। पीएम नरेंद्र मोदी ने तो कांग्रेस मुक्त भारत का नारा ही दे दिया था। पर, कांग्रेस फिर रिवाइज हो रही है। कांग्रेस का इतिहास भी देखें तो यही बात सामने आएगी। पार्टी कई बार टूटती-बिखरती रही, लेकिन फिर खड़ी भी होती रही है। मल्लिकार्जुन खरगे ने जब से अध्यक्ष पद संभाला है, तब से कांग्रेस के प्रति लोगों का नजरिया भी बदला है। राहुल गांधी की मानहानि केस में जब संसद की सदस्यता गई तो कांग्रेस को नापसंद करने वाले विपक्षी नेता भी उसके करीब आते गए। हालांकि इसके पीछे उनका हिडेन एजेंडा था। पीएम का मैदान खाली दिख रहा था। आज अगर 28 विपक्षी दल कांग्रेस के नेतृत्व में एकजुट हुए हैं तो इसके पीछे खरगे की कुशल राजनीतिक रणनीति ही है।

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