वर्तमान में बिहार की कांग्रेस में ऊंच-नीच चल रही है! बिहार कांग्रेस परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। सबसे पहले पार्टी ने अखिलेश सिंह को बिहार प्रदेश का अध्यक्ष बनाया। अब विधायक दल के नेता पद से अजित शर्मा को हटा दिया गया। विधायक दल के नये नेता शकील अहमद खां बनाए गए हैं। पिछले ही महीने कांग्रेस की जिला कमेटियां घोषित की गई, जिसमें यह तो दिखता है कि जातीय समीकरण पर ध्यान दिया गया है, लेकिन बहुलता सवर्णों की है। बिहार कांग्रेस में सांगठनिक तौर पर इस फेरबदल को अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव से जोड़ कर देखा जा रहा है। हर दल अपने कील-कांटे दुरुस्त करने में लगा है। लेकिन नये नेता के चुनाव के वक्त 11 विधायकों की गैरहाजिरी दूसरे ही खतरे की ओर इशारा करती है। नाराजगी में ही अशोक चौधरी और तीन अन्य एमएलसी ने कांग्रेस को बाय बोल दिया था। बीजेपी से मुकाबले के लिए विपक्षी पार्टियां गोलबंद हो रही हैं। कर्नाटक विधानसभा में कांग्रेस को मिले भारी बहुमत से दो बातें स्पष्ट हो रही हैं। पहला यह कि बीजेपी अपराजेय नहीं है। दूसरा यह कि लोकसभा में भले ही कांग्रेस के चार दर्जन से थोड़ा ही अधिक सांसद हैं, लेकिन पार्टी में अब भी जान बची हुई है। राहुल गांधी ने कर्नाटक चुनाव से पांच-छह महीना पहले ही अपनी भारत जोड़ो यात्रा शुरू की थी। उनकी यात्रा दक्षिण के राज्यों से गुजरी। राहुल की मेहनत का फल कर्नाटक चुनाव परिणाम के रूप में सामने आया। अब देश के चार राज्यों में कांग्रेस की सरकार हैं। तीन प्रदेशों में चल रही सरकार में कांग्रेस साझीदार है। कांग्रेस बिहार में कांग्रेस कई दशक से हाशिये पर खड़ी है। उसका अपना जनाधार खत्म हो चुका है। कांग्रेस में हो रहे बदलाव को खोया जनाधार वापस लाने का प्रयास माना जा रहा है।
बिहार में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भूमिहार जाति से आते हैं। विधायक दल के नेता अजित शर्मा भी भूमिहार बिरादरी से ही थे। जिला कमेटियों में सर्वाधिक भूमिहार ही हैं। उसके बाद राजपूत, ब्राह्मण और कायस्थों की बारी है। अकेले 67 प्रतिशत जिलाध्यक्ष सवर्ण हैं। कांग्रेस ने अनजाने में ऐसा नहीं किया है। कांग्रेस ने जरूर सोची-समझी रणनीति के तहत ऐसा किया है। सीनियर लेवल पर मुस्लिम की कमी महसूस की जा रही थी। कांग्रेस में इस फेरबदल को देख कर ऐसा लगता है कि अपने पारंपरिक वोटर- सवर्ण और मुस्लिम को साधने के लिए ही कांग्रेस ऐसा कर रही है। बिहार में मुस्लिम आबादी 15 प्रतिशत के आसपास मानी जाती है। कांग्रेस के कमजोर होने पर मुस्लिम वोटर आरजेडी और जेडीयू की ओर शिफ्ट हो गए हैं। सवर्णों ने बीजेपी को ठिकाना बना लिया है। अस्सी के दशक तक बिहार में राज करने वाली कांग्रेस को अब आरजेडी और जेडीयू का सहारा लेना पड़ता है।
मंशा भले ही पवित्र हो, लेकिन जब भी बदलाव होता है तो कोई खुश दिखता है, कुछ नाराज होते हैं। कांग्रेस के साथ भी ऐसा ही हुआ है। नेता पद से अजित शर्मा को हटाने और शकील अहमद खां की ताजपोशी के लिए पार्टी मुख्यालय सदाकत आश्रम में जो बैठक बुलाई गई, जिसमें अजीत शर्मा और अन्य 10 विधायक अनुपस्थित रहे। गैरहाजिर होने के वाजिब कारण हो सकते हैं, लेकिन एक साथ उनकी अनुपस्थिति ने पार्टी को भी चौंका दिया। इतना ही नहीं, अजीत शर्मा ने सौजन्य मूलक बधाई भी शकील अहमद को अब तक नहीं दी है। कांग्रेस के लिए यह चौंकाने का विषय हो सकता है।
साल 2018 की वह घटना सबको याद होगी। जेडीयू नेता नीतीश कुमार एनडीए सरकार के मुखिया थे। कांग्रेस के अध्यक्ष पद से अशोक चौधरी को हटा दिया गया। उन्होंने बाद में पार्टी के तीन अन्य एमएलसी के साथ जेडीयू ज्वाइन कर ली। तब कांग्रेस ने सीपी जोशी को बिहार का प्रभारी बनाया था। अशोक चौधरी ने जेडीयू ज्वाइन करने के बाद कहा था कि जोशी लगातार उनका अपमान कर रहे थे। अपमानित करने के लिए ही उन्हें पार्टी के अध्यक्ष पद से हटा दिया गया था। चौधरी ने यह भी कहा था कि बिहार में कांग्रेस की दुर्गति लालू प्रसाद यादव के कारण हुई है। आरजेडी के साथ कांग्रेस का गठबंधन 1996 से चल रहा है। आरजेडी ने कांग्रेस के पारंपरिक वोट बैंक मुस्लिम समुदाय को अपने पाले में कर लिया। सवर्ण आरजेडी के साथ तो जाते नहीं। सो, वे बीजेपी की ओर चले गए। यानी कांग्रेस बिना सपोर्ट एक कदम भी अपने से चलने की स्थिति में नहीं रह गई थी।
अजीत शर्मा को नेता पद से हटाए जाने के पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि प्रदेश अध्यक्ष और विधायक दल के नेता दोनों भूमिहार जाति से आते हैं, इसलिए एक को बदल दिया गया। इससे एक ही जाति को प्रश्रय देने के आरोप से भी कांग्रेस मुक्त हो गई और उस पद पर मुस्लिम को बिठा कर अपने समीकरणों का भी पार्टी ने ख्याल रखा है। इस तर्क के बावजूद अजित शर्मा की प्रतिक्रिया अभी तक नहीं आई है। बैठक में वे नहीं थे। उनके अलावा 10 विधायक भी नेता पद के चुनाव के वक्त मौजूद नहीं थे। पार्टी प्रभारियों के अलावा इक्का-दुक्का विधायक ही बैठक में शामिल थे। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि यह शुभ लक्षण नहीं है। कांग्रेस में आलाकमान के आदेश मानने की परंपरा है। आदेश की अवहेलना की कोई हिम्मत नहीं जुटाता। ऐसे में नेता के चयन के लिए विधायकों का उपस्थित नहीं रहना थोड़ा संदेह तो पैदा करता ही है। संभव है कि अशोक चौधरी की तरह अजीत शर्मा भी नये ठिकाने की तलाश में लगे हों। अगले साल लोकसभा का चुनाव होना है। हर दल में थोड़ी-बहुत टूट-फूट तो होगी ही।