Friday, November 22, 2024
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क्या अब हिंदुओं के मुद्दों पर ज्यादा बातें हो रहीं हैं?

वर्तमान में मोदी सरकार के द्वारा हिंदुओं के लिए कई कदम उठाए जा रहे हैं! चुनाव जीतने के लिए आपको सबसे पहले भारत को समझना होगा, अपने कान को जमीन से लगाए रखना होगा और उभरते ट्रेंड्स को भांपना होगा। जानेमाने लेखक और विश्लेषक चेतन भगत कहते हैं कि भारतीय मतदाताओं के सोचने का तरीका बदल रहा है और कोई भी सियासी दल या नेता इन ट्रेंड्स को नजरअंदाज नहीं कर सकता। उन्होंने भारत के मौजूदा सियासी परिदृश्य को लेकर हमारे सहयोगी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया में लेख लिखा है। चेतन (Chetan Bhagat) ने भारतीय राजनीति के 5 ऐसे मजबूत ट्रेंड्स सामने रखे हैं जो आगे और भी प्रभावशाली हो सकते हैं। यह भारत के बदलते राजनीतिक स्वरूप को दिखाते हैं और नेताओं के लिए भी 5 सबक की तरह हैं।

वंशवाद का समय खत्म?

चेतन भगत लिखते हैं कि एक दौर था जब भारतीय वंशवाद को पसंद करते थे। अगर आपके पिता या मां उसी प्रोफेशन में हैं तो अभिनेताओं से लेकर नेताओं तक को बड़े पैमाने पर फायदा होता था। वह खुद में एक ब्रांड बन जाते थे और भारतीय उनके नाम के आखिरी शब्द यानी टाइटल पर भरोसा करते थे। विरासत एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक निर्बाध रूप से आगे बढ़ी। हम रांची के किसी युवक की फिल्म क्यों देखें, जब हमारे पास एक स्टार के बेटे की फिल्म देखने का विकल्प है? सड़क पर प्रदर्शन करने वाले पूर्व IRS अधिकारी को हमें वोट क्यों करना चाहिए, जब हम प्रधानमंत्री के बेटे को वोट कर सकते हैं? कुछ इसी तरह से भारतीय सोचते आए हैं। लोगों की यह मानसिकता कुछ समय पहले तक बरकरार रही।

हालांकि अब भारतीय थोड़ा अलग तरह से सोचने लगे हैं। उन्होंने ऐसा क्या किया है जिससे लगे कि वह अपनी पिता की विरासत को आगे ले जा सकने के योग्य है? क्या वह अच्छी एक्टिंग करती है या वह सिर्फ इसलिए है क्योंकि उसकी मां भी एक एक्टर थी? लोगों के दिमाग में अब ऐसे सवाल उठते हैं और इस तरह से परिवार में ब्रांड वैल्यू का ट्रांसफर अब पहले जैसा नहीं रहा।

हालांकि, इसका मतलब यह भी नहीं है कि भारतीयों ने योग्यता और भाई-भतीजावाद को लेकर पूरी तरह से यू-टर्न ले लिया है। विरासत, वंशवाद अब भी मायने रखता है। हां, अब पात्रता और जवाबदेही के ऐंगल से लोग सोचने लगे हैं। कांग्रेस, शिवसेना और सुपरस्टारों के कई बच्चे जो अच्छा नहीं कर पा रहे हैं, वे वंशवाद की वैल्यू घटने के ज्वलंत उदाहरण हैं।

वैसे, जाति अब भी मायने रखती है। यहां हम ट्रेंड्स की बात कर रहे हैं, पूरी तरह से बदलाव की नहीं। और ट्रेंड्स यह कहता है कि आज के समय में वोटर जाति को उतना महत्व नहीं देता, जितना पहले था। कई राज्यों में, उम्मीदवार की जाति अब भी मायने रखती है लेकिन अब यह प्रमुख बात नहीं रही जिसके आधार पर कोई जीत का अनुमान लगा सके। यही वजह है कि भाजपा हिंदू वोट को एकजुट कर सकी है। जातिगत भेदभाव भारत से अभी खत्म नहीं हुआ है लेकिन कुछ हद तक यह घटा जरूर है। स्थिति कुछ ऐसी है कि पूरी तरह से जाति आधारित राजनीति करने वाली बसपा जैसी पार्टियों को सफलता बहुत कम मिल रही है।

भारत विविध संस्कृतियों वाला देश है। हालांकि क्षेत्रीय पहचान अब कमजोर हो रही है और भारत के कई हिस्सों में एक समान भारतीय संस्कृति दिखाई देती है। कुछ क्षेत्र ऐसे भी हैं जहां अभी क्षेत्रीय पहचान मजबूत है जिसमें पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और पूर्वोत्तर हैं। इन क्षेत्रों में राज्य की राजनीति में क्षेत्रीय पार्टियां हावी हैं। हालांकि कई बड़े राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों और क्षेत्रीय नेता अब राजनीतिक मंच के नेपथ्य में दिखाई देते हैं।

मराठियों की समृद्ध संस्कृति है लेकिन यह साफ दिखाई देता है कि उन्हें अब अकेले मराठी पहचान के आधार पर वोट देने की जरूरत नहीं दिखाई देती। कर्नाटक, आंध्र और तेलंगाना में भी क्षेत्रीय पार्टियों का महत्व पहले की तुलना में घटा है। बड़े उत्तरी राज्यों जैसे राजस्थान, गुजरात, यूपी और बिहार में क्षेत्रीय पहचान वाली राजनीति अब राजनीतिक एजेंडा सेट नहीं कर पाती हैं। अत्यंत विशिष्ट संस्कृति वाले राज्यों को छोड़कर भारत में ट्रेंड समरूपता का दिखाई देता है।

हिंदुओं की चर्चा ज्यादा?

शायद इसकी वजह यह है कि पहले जाति और अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण वाली राजनीति के कारण हिंदुओं के मुद्दों को महत्व नहीं दिया जाता था। या, शायद सोशल मीडिया के कारण हिंदुओं के मसले सामने आने लगे हैं। वैसे, राजनीतिक मुद्दे के लिहाज से देखें तो जाति और क्षेत्रीय पहचान कमजोर हो रही है लेकिन हिंदू-मुस्लिम मुद्दे और उससे जुड़ी राजनीति बढ़ रही है। हिंदू-मुस्लिम पॉलिटिक्स के कई वर्जन हैं। एक तरफ बेहद तीखा शोर है और दूसरी तरफ एक बड़ा समूह शांत है जो हिंदुओं से जुड़े मसलों को सपोर्ट करता है।

चेतन भगत कहते हैं कि वह इस तरह की राजनीति का समर्थन नहीं करते हैं, यह केवल एक विचार है। कुछ हद तक भले ही भारत जाति और क्षेत्रीयता के मसले पर समरूप और ज्यादा एकजुट दिखाई देता है, लेकिन मौजूदा राजनीति में धार्मिक मसलों की भूमिका बढ़ी है।लोग समझते हैं कि आज के डिजिटल वर्ल्ड में कंटेंट ही सब कुछ है। एक राजनेता जो भी करता है या कहता है वह कंटेंट है। और सार्थक कंटेंट प्रेरक, प्रासंगिक, स्मार्ट होने के साथ ही उसमें एक भावुक हिस्सा भी जुड़ा होता है। अगर कोई नेता अच्छे कंटेंट नहीं दे पाता है जो इन पैरामीटर्स पर खरा उतरे तो इस बात की संभावना कम ही रहती है कि उसे लोगों का अटेंशन मिले। इससे लोगों का दिल नहीं जीता जा सकेगा और फिर भारतीयों का वोट पाना भी मुश्किल होगा। कुछ ही नेता ऐसे हैं जो हर बार जीतते हैं।

भारतीय राजनीति पर करीबी नजर रखने वाले इस बात से सहमत होंगे कि यहां रोमांच भरा पड़ा है। महाविकास अघाड़ी (MVA) का महाराष्ट्र एपिसोड ताजा उदाहरण है। ऐसे में जीतने के लिए ट्रेंड्स को समझना होगा। राजनीति या अपने निजी जीवन में, अगर दुनिया बदल रही है तो आपको प्रासंगिक बने रहने के लिए खुद को भी बदलना होगा। इस महान लोकतंत्र में जो बदलाव के साथ चले, उन्हें बड़ी सफलता मिली। जो नहीं कर सके, वे शो से हट जाएंगे और अगले सीजन में मौका भी नहीं पाएंगे।

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