क्या हर साल नुकसानदायक होती है सर्दी?

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बेघर लोगों के लिए सर्दी हमेशा हर साल नुकसानदायक होती है! हर साल दिसंबर से फरवरी तक के तीन महीने उनके लिए किसी आपदा से कम नहीं। शीला के पास दो कंबल हैं। उन्‍होंने दोनों ओढ़ रखे हैं फिर भी कांप रही हैं। अपने दो साल के बच्‍चे को सीने से चिपकाए वह आग तापती दिखती हैं, खुले आसमान के नीचे। उस मासूम ने अभी दुनियादारी नहीं समझी, उसे नहीं मालूम कि फिलहाल यही उसकी नियति है। गरीबी का बोझ बड़ा भारी होता है। बेघरों के लिए वह बोझ दोगुना हो जाता है। हम और आप जरा सी ठंड में स्‍वेटर-जैकेट, मफलर-दस्‍ताने सब लाद लेते हैं। इन लोगों के पास तो कंबल के सिवा कुछ नहीं। हर साल सर्दी आती है और उन्‍हें यह अहसास करा जाती है कि मौसम भी बेरहम हो सकता है। दिल्‍ली समेत उत्‍तर भारत में शीतलहर ने फिर दस्‍तक दी है। हम और आप तो ऑफिस से घर और ऑफिस से घर आने-जाने में ही सिहर जाते हैं। उनकी सोचिए जिनके 24 घंटे खुले आसमान के नीचे बीतते हैं। पहनने को गर्म कपड़े भी उन्‍हें मयस्‍सर नहीं। बर्फीली हवाएं उन्‍हें किसी नश्‍तर की तरह चुभती हैं। एक झीनी स्‍वेटर/जैकेट में वे पूरा दिन ठिठुरते हैं। रात आती है तो किसी तरह कंबल का जुगाड़ कर कहीं भी सो जाते हैं। सुबह उठते हैं तो कोहरा कंबल को भिगो चुका होता है। सरकारें शेल्‍टर होम्‍स के दरवाजे खोल देती हैं मगर हर किसी को उनमें जगह नहीं मिलती। कुछ भले लोग कंबल दान करते हैं तो उन्‍हें दुआएं मिलती हैं। बस वही चुभने वाला कंबल ही ठंड के खिलाफ उनका हथियार है।

सर्दी के मौसम में सरकारें शेल्‍टर होम्‍स के दरवाजे खोल, गरीबों में कंबल बांटकर कर्तव्‍य की इतिश्री कर लेती हैं। शेल्‍टर होम्‍स की हालत भी कौन सी ठीक है। सेंटर फॉर हॉलिस्टिक डिवेलपमेंट (CHD) के एक्‍जीक्‍यूटिव डायरेक्‍टर सुनील कुमार बताते हैं कि दिल्‍ली सरकार ने 2014-15 से शेल्‍टर होम्‍स के लिए नए कंबल नहीं खरीदे हैं। उस वक्‍त 20 हजार कंबल खरीदे गए हैं और तब से बदले नहीं गए। वे इतने झीने हो चुके हैं कि चादर कहें तो सही होगा। शेल्‍टर होम्‍स में पर्याप्‍त बिस्‍तर भी नहीं हैं।

ठंड में ठिठुरते-ठिठुरते कई बेघर दम तोड़ जाते हैं। CHD के अनुसार, 2022 में सर्दी के महीनों में अकेले दिल्‍ली में ही 1,400 बेघरों की मौत हुई। डेटा बताता है कि एक दशक में ऐसी 14,500 मौतें हुई हैं। ये सिर्फ दिल्‍ली के आंकड़े हैं, समूचे उत्‍तर भारत में मौतों का अंदाजा आप लगा सकते हैं। दिल्‍ली का ओखला एरिया। सर्द दोपहर में एक फ्लाइओवर के नीचे उदय फाउंडेशन NGO की कार रुकती है। उसमें करीब कंबल भरे हुए हैं। अहसास होते ही फौरन दो लाइनें लग जाती हैं। एक पुरुषों की और दूसरी महिलाओं की। इनमें से ज्‍यादातर ने एक लेयर कपड़े ही पहन रखे हैं। कुछ ही देर में भारी भीड़ जमा हो जाती है। कंबल के लिए लड़ाई शुरू हो जाती है। अब दूर-दूर से भी लोग जुट गए हैं। भयंकर ठंड में खुद को गर्म रखने के लिए कंबल पाने को बेकरार हैं। यह नजारा किसी एक जगह का नहीं। कमोबेश पूरे उत्‍तर भारत में जब कोई कंबल बांटने निकलता है तो यही मंजर होता है।

ठंड से इंसान ही नहीं, जानवर भी बेहाल हैं। कुछ भले लोग स्‍ट्रीट डॉग्‍स के लिए कोट्स दान करते हैं। जिन कुत्‍तों की किस्‍मत इतनी अच्‍छी नहीं, वे इंसान के पास ही आसरा तलाशते हैं।सेंटर फॉर हॉलिस्टिक डिवेलपमेंट (CHD) के एक्‍जीक्‍यूटिव डायरेक्‍टर सुनील कुमार बताते हैं कि दिल्‍ली सरकार ने 2014-15 से शेल्‍टर होम्‍स के लिए नए कंबल नहीं खरीदे हैं। उस वक्‍त 20 हजार कंबल खरीदे गए हैं और तब से बदले नहीं गए। वे इतने झीने हो चुके हैं कि चादर कहें तो सही होगा। शेल्‍टर होम्‍स में पर्याप्‍त बिस्‍तर भी नहीं हैं।

गूंज’ नाम की सामाजिक संस्था के फाउंडर अंशू गुप्‍ता कहते हैं कि टेम्‍परेरी शेल्‍टर्स की संख्‍या बढ़नी चाहिए।सेंटर फॉर हॉलिस्टिक डिवेलपमेंट (CHD) के एक्‍जीक्‍यूटिव डायरेक्‍टर सुनील कुमार बताते हैं कि दिल्‍ली सरकार ने 2014-15 से शेल्‍टर होम्‍स के लिए नए कंबल नहीं खरीदे हैं। उस वक्‍त 20 हजार कंबल खरीदे गए हैं और तब से बदले नहीं गए। वे इतने झीने हो चुके हैं कि चादर कहें तो सही होगा। शेल्‍टर होम्‍स में पर्याप्‍त बिस्‍तर भी नहीं हैं। उन्‍होंने हमारे सहयोगी टाइम्‍स ऑफ इंडिया से कहा, ‘हम कब से कह रहे हैं कि कम से कम रात के वक्‍त पब्लिक बिल्डिंग्‍स के दरवाजे खोल देने चाहिए।’ कोविड के चलते बड़ी आबादी शहरों से गांव में माइग्रेट कर गई है, उनकी जरूरतें भी बढ़ी हैं, उनपर भी ध्‍यान देना चाहिए।