भारत का एक रत्न पाकिस्तान में भी रहता था और आज के दिन ही उसने अपनी आखिरी सांस ली थी। मैं बात ख़ान अब्दुल गफ्फार खान की कर रहा हूँ जिन्हें आप सीमा पार के गांधी भी कह सकते हैं। अभी कुछ सालों पहले ही पाकिस्तान में एक आवाज़ उठी थी कि पाकिस्तानी किताबों से खान अब्दुल गफ्फार खान पर लिखे पाठ को हटा दिया जाए। पाकिस्तान गफ्फार साहब को याद करे न करे हिन्दुस्तान अपने सीमांत गांधी को कभी भूल नही सकता। उनके पुण्यतिथि पर नमन है।
आइए आपको इस लेख में राजमोहन गांधी और दीपक तैनगुरिया की बातचीत पढ़वाते हों जिससे आपको खान अब्दुल गफ्फार खान को समझने में आसानी होगी।
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अक्सर कहा जाता है कि इतिहास की हर किताब का अपना एक इतिहास होता है जो अपने आप में इतिहास के कोनों को देखने की एक मुकम्मल यात्रा होती है। इस पुस्तक की रचना प्रक्रिया की यात्रा क्या थी?
आप ठीक कहते हैं कि हर किताब की एक यात्रा और इतिहास होता है। मेरी इस किताब की शुरुआत तबसे होती है जब मैं 10 साल का था। मेरे पिताजी गांधीजी के चौथे बेटे देवदास गांधी दिल्ली में हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक थे। उस समय बादशाह खान हमारे घर दो बार रुके। तब से मेरा उनसे संबंध रहा। 1969 में उनका एक जबरदस्त भाषण हुआ, जिसमें उन्होंने गरीबी, भ्रष्टाचार और नागरिक अधिकारों के हनन पर बहुत प्रभावी बातें कही थीं। फिर 1987 में देहांत से एक साल पहले इलाज के सिलसिले में वह मुंबई आए थे, तब भी कुछ बातें हुई थीं। 2001 में मैं पाकिस्तान गया और असफंदयार खान, जो बादशाह खान के पोते हैं, उनसे मिला। उन्होंने मुझसे कहा कि बहुत अफसोस है कि कोई अच्छी बायोग्राफी बादशाह खान की नहीं है। तब मुझे लगा कि मुझे उन पर काम करना चाहिए। उन पर बहुत दस्तावेज मौजूद नहीं थे, लेकिन अमेरिका के इलिनॉय विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में मुझे उनकी लिखी आत्मकथा मिल गयी। उससे भी मुझे इस किताब को लिखने में मदद मिली। एक और चीज मैं बताना चाहूंगा, मेरे पिताजी जब 30-31 साल के थे, तब वे दोनों जेल में साथ ही रहे थे। उन दोनों का जो संबंध था, उसकी भी मेरे किताब लिखने के पीछे एक भूमिका है।
गफ्फार खान ने इस उपमहाद्वीप को किन मूल्यों, आदर्शों और सिद्धांतों को विरासत में सौंपा है? आपने यह भी लिखा है कि बाद की पीढ़ियों ने बादशाह खान को भुला दिया। क्यों और कैसे?
जिस उद्देश्य के लिए उन्होंने अपना जीवन जिया, उनमें निर्भीकता, त्याग, तकलीफ के लिए तैयार रहना और अहिंसा प्रमुख है। दुनिया में जेल में लंबे समय तक रहने का उनका रिकॉर्ड है। 1987 में उनके देहांत से एक साल पहले उनसे मैं मिला, तो उन्होंने कहा कि कुरान में जो एक शब्द सबसे ज्यादा है- सब्र, सब्र करो। बादशाह खान की राय में अहिंसा और धैर्य का एक-दूसरे से जबरदस्त संबंध है। 1947 में जब उनके इलाके में हिंदू और सिखों पर अत्याचार हुए, इसके खिलाफ वह एकजुट हुए। हम सब जानते हैं कि इस वक्त अफगानिस्तान में क्या हो रहा है। आज अगर बादशाह खान होते, तो इंसान की आजादी, सब लोगों में दोस्ती और मानव अधिकारों के पक्ष में निस्संदेह उनकी मजबूत आवाज हम सुनते। गांधी जी का कथन ‘ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम’ बादशाह का भी था। हिंदू-मुसलमान-सिख, हम सबको एक जमीन में साथ रहना है, आपसी भाईचारा और दोस्ती को कायम रखना है। अब जो आपका सवाल है कि क्यों उन्हें लोग भूल गए हैं, ये कैसे हुआ, तो इसके उत्तर से पहले मैं कहूंगा कि जब उनका देहांत 98 की उम्र में हुआ, उस समय अफगानिस्तान में सोवियत सेना मौजूद थी। उस समय सब लोगों ने एक सीजफायर किया और पाकिस्तान और अफगानिस्तान, दोनों ही मुल्कों में शोक था। हजारों लोग पाकिस्तान के पख्तून इलाके से खैबर पार करते हुए अफगानिस्तान पहुंचे। उनकी अंतिम यात्रा बहुत जबरदस्त थी। लोग उन्हें इसलिए भूल गए हैं, क्योंकि अफगानिस्तान में और उस इलाके में अब बहुत कुछ हो चुका है। 9/11, अमेरिका का वहां पहुंचना, ओसामा-बिन-लादेन, इतनी बड़ी खबरों का असर दुनिया भर में हुआ, तो लोग कुछ हद तक बादशाह खान को भूल गए। एक और भी कारण है- बादशाह खान हिंदू नहीं थे। वह मुसलमान थे। यह भी एक वजह है कि हमारे प्यारे भारत देश में उन्हें भुला दिया गया है।
खुदाई खिदमतगार की अवधारणा पर अगर आप हमारे पाठकों को थोड़ा बता सकें, कि उनके सिद्धांत क्या थे?
1929-30 में इस संस्था की स्थापना हुई। इस शब्द को थोड़ा और खोलें तो इसका मतलब है खुदा कि सेवा करना, मतलब इंसान की सेवा करना। आजादी के लिए लड़ने, अहिंसा, और धार्मिक एकता इसकी प्रतिबद्धता थी। इससे ही खुदाई खिदमतगार की बुनियाद तैयार हुई। इसके बारे में कुछ पढ़ने लायक किताबें भी उपलब्ध हैं। यह इतिहास का एक बहुत बड़ा हिस्सा है।
आपका मत है कि गफ्फार खान और मोहनदास करमचंद गांधी आत्मिक भाई थे। दोनों विवेक और साहस के बल से लैस थे। एक किस्सा पढ़कर मैं चौंका कि बादशाह खान चाहते थे कि गांधी प्रधानमंत्री बन जाएं। गांधीजी की उनके राजनीतिक और व्यक्तिगत जीवन पर क्या छाप है?
जी, मैंने लिखा है कि महात्मा गांधी और बादशाह खान शारीरिक भाई भले नहीं थे, लेकिन भाई थे। उनके हथियार थे- निडरता, बहादुरी। गांधीजी ने कभी यह नहीं कहा कि मेरी वजह से बादशाह खान कुछ कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि वह मेरे कॉमरेड हैं, मेरे साथी हैं। बिल्कुल बराबरी का रिश्ता गांधीजी के दिल में था। उनका रिश्ता एक नेता और अनुयायी का नहीं था, बल्कि दो भाइयों, दोस्तों और सैनिकों का रिश्ता था। 1919 के रोलेट सत्याग्रह के खिलाफ गांधीजी ने देश भर में सत्याग्रह का आह्वान किया था तो बादशाह खान भी उससे जुड़ गए थे। नमक सत्याग्रह हुआ तो उसके बाद पूरे अविभाजित भारत के हर हिस्से में सत्याग्रह हुए, लेकिन सबसे जबरदस्त सत्याग्रह 1930 में पेशावर में हुआ, जहां बादशाह खान को गिरफ्तार कर लिया गया। तब खुदाई खिदमतगार ने बिल्कुल अहिंसक संघर्ष किया, जो इतना जोरदार था कि अंग्रेजों के कहने के बाद भी सेना ने गोली नहीं चलाई। उसका असर यह हुआ कि सत्याग्रह के सामने अंग्रेज सरकार भी काम नहीं कर सकी। बिहार और नोआखली में 1946 में जब सांप्रदायिक दंगे हुए, उस वक्त बादशाह खान और गांधी साथ-साथ वहां गए थे। साथ-साथ उन्होंने बिहार में काम किया और अंत तक उनका एक-दूसरे के साथ संबंध कायम रहा।