आज हम आपको आर्थिक क्रांति की शुरुआत करने वाले नरसिम्हा राव के बारे में बताने जा रहे हैं! एक दौर था, जब ‘भारत रत्न’ से सम्मानित होने का गौरव गिनी-चुनी महान हस्तियों को मिलता था। आज के हालात देखकर लगता है कि इसका इस्तेमाल चुनावी फायदे की खातिर हो रहा है। इस साल भारत रत्न से सम्मानित होने वालों में लालकृष्ण आडवाणी, कर्पूरी ठाकुर, एमएस स्वामीनाथन, चरण सिंह और पीवी नरसिंह राव शामिल हैं। इनमें राव इस सम्मान के सबसे अधिक हकदार थे और चरण सिंह सबसे कम। चरण सिंह यूपी के जाट किसान नेता थे। यूपी की सियासत पर पचास के दशक में अगड़ी जातियों का दबदबा था। राजनीतिक आकांक्षा रखने वाले चरण सिंह उस दबदबे को किसी भी कीमत पर खत्म करना चाहते थे। उन्होंने ‘आया राम गया राम’ वाले सियासी दौर की अगुआई की। यह वह दौर था, जब जन-प्रतिनिधि निजी फायदे के लिए सरकारें गिरा रहे थे। दलबदल की बदौलत चरण सिंह 1967 और 1970 में कुछ समय के लिए यूपी का मुख्यमंत्री बनने में भी कामयाब रहे।
इमरजेंसी के दौरान उन्हें दूसरे गैर-कांग्रेसी नेताओं के साथ जेल में डाला गया। 1977 में जब इंदिरा विरोधी मंच के जरिये जनता पार्टी को लोकसभा चुनाव में जीत मिली तो पहले वह गृह मंत्री और बाद में उप-प्रधानमंत्री बने। चरण सिंह इस पर भी खुश नहीं हुए और 1979 में फिर दलबदल कर इंदिरा के सहयोग के दम पर प्रधानमंत्री पद की कुर्सी हथियाने में कामयाब हुए। बगैर सिद्धांतों की राजनीति की यह इंतहा थी। लोगों ने जनता पार्टी को इंदिरा विरोध के नाम पर चुना था। लेकिन चरण सिंह ने इस बात को ताक पर रखकर उन्हीं की मदद ली और प्रधानमंत्री बने। यह बात और है कि इस कुर्सी पर वह ज्यादा दिनों तक नहीं रह पाए क्योंकि इंदिरा ने कुछ ही हफ्तों में समर्थन वापस ले लिया। इसलिए चरण सिंह की सबसे बड़ी सफलता यही कही जा सकती है कि कोई सिद्धांत न हो तो दलबदल कर मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक की कुर्सी पाई जा सकती है।
नरसिंह राव की बात अलग है। वह देश के बेहतरीन प्रधानमंत्रियों में थे। 1991 में वह इस कुर्सी पर तब बैठे, जब राजीव गांधी की हत्या हो गई और सोनिया गांधी ने राजनीति में आने से इनकार कर दिया। उस वक्त कांग्रेस के दिग्गज नेताओं ने ‘कमजोर राव’ को इसलिए चुना क्योंकि उन्हें जरूरत पड़ने पर हटाया जा सकता था। राव तब अल्पमत की सरकार का नेतृत्व कर रहे थे। उनकी पार्टी के पास बहुमत नहीं था और विरोधियों के साथ आने पर उसके गिरने का डर बना हुआ था। 1991 में भारत के पास विदेशी मुद्रा भंडार खत्म हो गया और उसे वित्तीय मदद के लिए IMF के पास जाना पड़ा। यह वह दौर है, जब सोवियत संघ बिखर चुका था। इन हालात में समाजवादी धारा वाली कांग्रेस को अपनी सोच बदलने की जरूरत थी। राव की दिक्कत यह थी कि वह ऐसी कमजोर सरकार के नेता थे, जिसकी विचारधारा दुनिया में प्रभाव गंवा चुकी थी। सख्त से सख्त नेता के लिए यह मुश्किल घड़ी थी। वहीं, राव की सियासत में बड़ी हैसियत नहीं थी, न ही उनके पास संसद में बहुमत था।
देश को दिवालिया होने से बचाने के लिए उन्हें सोना गिरवी रखने का फैसला करना पड़ा। लेकिन राव चतुर राजनेता थे। उन्होंने मौके का फायदा उठाकर देश में आर्थिक सुधारों की शुरुआत कर दी। इसी की बदौलत भारत मिरैकल इकॉनमी जादुई अर्थव्यवस्था बना। राव का मास्टरस्ट्रोक टेक्नॉक्रैट मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाना था। व्यापक आर्थिक सुधार तब देश की जरूरत थी। राव ने मनमोहन से कहा था, ‘अगर सुधार कामयाब होते हैं तो हम दोनों उसका श्रेय लेंगे। लेकिन अगर ये नाकाम होते हैं तो हम इसके लिए आपको दोष देंगे और वित्त मंत्री के पद से हटा देंगे।’ विपक्षी दल तब आरोप लगाते थे कि राव सरकार वर्ल्ड बैंक और IMF के निर्देश पर सारे आर्थिक सुधार कर रही है। उनका यह भी कहना था कि सत्ता में आने पर वे इन सुधारों को वापस ले लेंगे। लेकिन ये सुधार कामयाब हुए और इसकी बदौलत 1994 से 1997 के बीच देश की GDP ग्रोथ 7 प्रतिशत रही। इसलिए राव के बाद जो भी सरकारें सत्ता में आईं, उन्होंने आर्थिक सुधारों को जारी रखा।
1991 में सबसे बड़ा रिफॉर्म औद्योगिक क्षेत्र में लाइसेंस-परमिट राज का खात्मा था। इसकी घोषणा तत्कालीन उद्योग मंत्री ने मनमोहन सिंह के पहला बजट पेश करने से कुछ घंटे पहले की। इसलिए अखबारों ने अगले दिन जब बजट के साथ इसकी खबर दी तो लोगों को लगा कि दोनों के ही पीछे मनमोहन सिंह का हाथ है।
सवाल यह है कि तब उद्योग मंत्री कौन थे और इस क्रांतिकारी सुधार के पीछे कौन था? असल में यह नरसिंह राव ही थे। उद्योग मंत्रालय उनके पास था, लेकिन वह खुद को इस जोखिम भरे सुधार से जोड़ना नहीं चाहते थे। खैर, उनकी यह रणनीति काम आई। पार्टी के अंदर के आलोचकों के निशाने पर आने से वह बच गए और आर्थिक उदारीकरण में कामयाब रहे। अफसोस कि 1996 लोकसभा चुनावों में उनकी हार हुई। आलोचक कहते हैं कि राव ने BJP को बाबरी मस्जिद तोड़ने दी। लेकिन आज यह बात जाहिर है कि BJP की हिंदुत्व की राजनीति आखिर इसमें कामयाब होती। बाबरी मस्जिद की जगह देर-सबेर राम मंदिर बनना तय था। 1998 में सोनिया गांधी ने टूट से बचाने के लिए कांग्रेस का नेतृत्व संभालना मंजूर किया। 2004 और 2009 में उन्होंने कांग्रेस को जीत भी दिलाई। लेकिन गांधी परिवार को यह बात कभी पसंद नहीं आई कि देश में आर्थिक क्रांति की शुरुआत एक गैर-गांधी नेता ने की थी। इसलिए गांधी परिवार ने पार्टी के इतिहास से राव का नाम मिटाने की कोशिश की। आज हालात ऐसे हैं कि गांधी परिवार ही गुमनामी की दहलीज पर है।