जानिए असम के उल्फा के इतिहास के बारे में सब कुछ!

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आज हम आपको असम के उल्फा के इतिहास के बारे में बताने जा रहे हैं! असम का जिक्र हो और उल्फा का नाम ना लिया जाए ऐसा संभव नहीं है। यूनाइटेट लिब्रेरशन फ्रंट ऑफ असम यानी उल्फा ऐसा शब्द है जो पूर्वोत्तर हिंसा का पर्याय बना रहा है। इस अलगवादी संगठन का अपना ही काला इतिहास है। इसका गठन अप्रैल 1979 में बांग्लादेश तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से आए बिना दस्तावेज वाले अप्रवासियों के खिलाफ आंदोलन के बाद हुआ था। फरवरी 2011 में यह दो समूहों में विभाजित हो गया। अरबिंद राजखोवा के नेतृत्व वाले गुट ने हिंसा छोड़ दी। इसके साथ ही वे सरकार के साथ बिना शर्त बातचीत के लिए सहमत हो गए। दूसरे पुनर्ब्रांडेड उल्फा-स्वतंत्र गुट का नेतृत्व करने वाले परेश बरुआ बातचीत के खिलाफ हैं। 1990 में उल्फा ने चाय कंपनी के मालिक सुरेंद्र पॉल की हत्या कर दी। सुरेंद्र पाल, ब्रिटेन स्थित लॉर्ड स्वराज पॉल के भाई थे। तिनसुकिया जिले में उनकी हत्या एक कुख्यात मील का पत्थर थी। इसके कारण केंद्र ने उल्फा को प्रतिबंधित संगठन घोषित कर दिया। केंद्र की तत्कालीन सरकार ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया था। उस समय उल्फा के खिलाफ सेना का ऑपरेशन बजरंग शुरू किया गया था। 1 जुलाई 1991 को उल्फा ने राज्य के विभिन्न हिस्सों से तत्कालीन यूएसएसआर के एक इंजीनियर सहित 14 लोगों का अपहरण कर लिया था। यह सेना के ऑपरेशन राइनो की शुरुआत का ट्रिगर था। अपहृत रूसी इंजीनियर सर्गेई ग्रेटचेंको का शव कभी नहीं मिला।

छह साल बाद, सामाजिक कार्यकर्ता संजय घोष का माजुली से अपहरण कर लिया गया और मान लिया गया कि उनकी हत्या कर दी गई। उसका शव भी नहीं मिला। उल्फा के सशस्त्र विद्रोह का सबसे चौंकाने वाला क्षण 2004 के स्वतंत्रता दिवस समारोह के दौरान धेमाजी परेड मैदान में एक आईईडी विस्फोट में 13 स्कूली बच्चों की हत्या थी। वार्ता समर्थक गुट की तरफ से 2011 में बातचीत शुरू करने की इच्छा व्यक्त करने के बाद, संगठन ने इन हत्याओं के लिए माफी मांगी। जून, 1979: सदस्यों ने संगठन के नाम, प्रतीक, ध्वज और संविधान पर चर्चा करने के लिए मोरन में बैठक की। 1980: कांग्रेस के राजनीतिज्ञों, राज्य के बाहर के व्यापारिक घरानों, चाय बागानों और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों, विशेषकर तेल और गैस क्षेत्र को निशाना बनाकर अपनी ताकत बढ़ानी शुरू की। 1985-1990: प्रफुल्ल कुमार महंत के नेतृत्व वाली असम गण परिषद अगप सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान असम में अशांति की स्थिति पैदा हो गई और उल्फा ने रूसी इंजीनियर सर्गेई को अगवा किये जाने सहित जबरन वसूली और हत्याओं की कई घटनाओं को अंजाम दिया।

28 नवंबर, 1990: उल्फा के खिलाफ सेना द्वारा ऑपरेशन ‘बजरंग’ शुरू किया गया। इस अभियान का नेतृत्व जीओसी 4 कोर कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल अजय सिंह ने किया, जो बाद में असम के राज्यपाल बने। 29 नवंबर, 1990: महंत के नेतृत्व वाली अगप सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाया गया। नवंबर 1990: असम को अशांत क्षेत्र घोषित किया गया और सशस्त्र बल विशेष शक्तियां कानून लागू किया गया। उल्फा को अलगाववादी और गैर-कानूनी संगठन घोषित किया गया।

31 जनवरी, 1991: ऑपरेशन ‘बजरंग’ बंद किया गया। जनवरी, 1991: तत्कालीन प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने राज्यसभा को सूचित किया कि यदि उल्फा राजनीतिक वार्ता की इच्छा व्यक्त करता है तो केंद्र सरकार आवश्यक कदम उठाएगी।

उल्फा ने जवाब दिया कि जब तक सैन्य अभियान और राष्ट्रपति शासन जारी रहेगा, कोई बातचीत संभव नहीं है और असम की ‘संप्रभुता’ की उनकी मांग पर कोई समझौता नहीं होगा। जून, 1991: हितेश्वर सैकिया के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने सत्ता संभाली। सितंबर, 1991: उल्फा के खिलाफ ऑपरेशन ‘राइनो’ शुरू किया गया। मार्च 1992: उल्फा दो गुटों में विभाजित हो गया और एक वर्ग ने आत्मसमर्पण कर दिया और खुद को आत्मसमर्पित उल्फा सल्फा के रूप में संगठित किया। 1996: अगप सत्ता में लौटी और प्रफुल्ल कुमार महंत दूसरी बार मुख्यमंत्री बने। जनवरी 1997: उल्फा के खिलाफ समन्वित रणनीति और संचालन के लिए मुख्य सचिव की अध्यक्षता में सेना, राज्य पुलिस और अर्धसैन्य बलों से युक्त एकीकृत कमान का गठन किया गया। 1997-2000: कथित तौर पर सल्फा द्वारा उल्फा उग्रवादियों के परिवार के सदस्यों की हत्याएं की गई। 2001: तरूण गोगोई के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार बनी। दिसंबर 2003: पड़ोसी देश में उल्फा और अन्य पूर्वोत्तर उग्रवादियों के शिविरों को बंद करने के लिए रॉयल भूटान सेना द्वारा ‘ऑपरेशन ऑल क्लियर’ शुरू किया गया। 2004: उल्फा सरकार से बातचीत के लिए राजी हुआ। सितंबर 2005: उल्फा ने 11-सदस्यीय ‘पीपुल्स कंसल्टेटिव ग्रुप’ पीसीजी का गठन किया। प्रख्यात ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता लेखिका इंदिरा मामोनी रायसोम गोस्वामी के नेतृत्व में केंद्र के साथ तीन दौर की वार्ता हुई, लेकिन कोई प्रगति नहीं हो पाई। जून, 2008: उल्फा की 28वीं बटालियन के नेताओं ने एकतरफा युद्धविराम की घोषणा की। दिसंबर, 2009: अरबिंद राजखोवा सहित उल्फा के शीर्ष नेताओं को बांग्लादेश में गिरफ्तार किया गया, भारत निर्वासित किया गया और गुवाहाटी की जेल में बंद कर दिया गया। दिसंबर 2010: जेल में बंद उल्फा नेता ने सरकार से बातचीत का आग्रह करने के लिए ‘सिटीजन फोरम’ बनाया, जिसमें बुद्धिजीवियों, लेखकों, पत्रकारों और पेशेवरों को शामिल किया गया। 2011: राजखोवा और जेल में बंद अन्य नेता रिहा। उल्फा दो गुटों में विभाजित हो गया: राजखोवा के नेतृत्व वाला उल्फा समर्थक वार्ता और परेश बरुआ के नेतृत्व वाला उल्फा स्वतंत्र। उल्फा ने सरकार को 12-सूत्रीय मांगपत्र सौंपा।