आज हम आपको लाल बहादुर शास्त्री के जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण और रोचक तथ्यों के बारे में जानकारी देने वाले हैं! भारत के दूसरे प्रधानमंत्री स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री की आज पुण्यतिथि है। छोटा कद, साफ-सुथरी छवि और सादगी भरा व्यक्तित्व। लाल बहादुर को जब भी हम याद करते हैं हमारे जहन में यह तस्वीर सहसा ही सामने आ जाती है। शास्त्री डेढ़ साल तक भारत के प्रधानमंत्री रहे। साल 1966 में आज ही के दिन ताशकंद में उन्होंने अंतिम सांस ली थी। जिस व्यक्ति का राजनीतिक जीवन इतना साफ रहा हो, जिसका कोई पॉलिटिकल दुश्मन न रहा हो उसकी ताशकंद में अचानक हुई मौत अब भी सवाल है। 56 साल बाद भी इस रहस्य से पर्दा नहीं उठ पाया है। इस छोट से कार्यकाल में लाल बहादुर शास्त्री ने जो शोहरत और सम्मान हासिल किया वह अपने-आप में काबिले तारीफ था। उनसे जुड़े किस्से आज भी मशहूर हैं। चाहे वह पीएम बनने के बाद तीन मूर्ति भवन में न रहने का फैसला हो, पीएम रहने के बावजूद दुकानदार से सस्ती साड़ी की मांग या ट्रेन के कूलर को निकलवाने का आदेश। आज हम उनकी जिंदगी से जुड़े किस्सों को आपके सामने लेकर आए हैं।
यह तो सब जानते हैं कि लाल बहादुर शास्त्री देश के दूसरे प्रधानमंत्री थे। लेकिन क्या आपको पता है कि आखिर किन हालात में शास्त्री जी को पीएम बनाया गया था। हम आपको बताते हैं। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के निधन के बाद पीएम की रेस में दो लोगों का नाम सबसे आगे चल रहा था। एक थे मोरारजी देसाई और दूसरे थे लाल बहादुर शास्त्री। यहां गौर करने वाली बात यह है कि नेहरू अपने अंतिम दिनों में बहुत हद तक लाल बहादुर शास्त्री पर निर्भर थे। उनपर नेहरू खुलकर भरोसा करते थे। वहीं दूसरी ओर मोरारजी देसाई पीएम की दौड़ में आगे तो थे लेकिन ज्यादातर नेता सहमत नहीं थे। बातचीत के बाद नेताओं का मानना था कि मोरारजी देसाई एक विवादास्पद पसंद हो सकते हैं। देसाई की आक्रामक छवि और मनमर्जी से फैसले लेने की आदत पर नेताओं को आपत्ति थी। जिसके बाद जिस नाम सबकी आम सहमति बनी वो थे लाल बहादुर शास्त्री। नेहरू के निधन के बाद इस पद पर बैठना शास्त्री के लिए आसान नहीं था। नेहरू का कद हर कोई मैच नहीं कर सकता था। लेकिन शास्त्री ने पीएम रहते हुए इस खालीपन को भरने में कोई कमी नहीं आने दी।
भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री किसी भी सूरत में तीन मूर्ति भवन में रहने के पक्ष में नहीं थे। पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद तीन मूर्ति भवन लालबहादुर शास्त्री को आवंटित हुआ, लेकिन उन्होंने वहां शिफ्ट करने से मना कर दिया था। शास्त्रीजी तीन मूर्ति में मोटे तौर पर दो कारणों के चलते जाने के लिए तैयार नहीं थे। पहला, शास्त्री जी का तर्क था कि वे जिस पृष्ठभूमि से आते हैं, उसे देखते हुए उनका तीन मूर्ति में रहना ठीक नहीं रहेगा। दूसरा, वे तीन मूर्ति भवन में इस आधार पर भी जाने के लिए राज़ी नहीं हुए क्योंकि वे मानते थे कि देश तीन मूर्ति भवन को नेहरू जी से भावनात्मक रूप से जोड़कर देखता है। इसलिए वहां पर उनका कोई स्मारक बने। यह जानकारी शास्त्री जी की पत्नी ललिता शास्त्री ने खुद इस बात का जिक्र 1988 में अपने जनपथ स्थित आवास में किया था।
एक बार लाल बहादुर शास्त्री जी अपनी पत्नी के लिए साड़ी खरीदने एक दुकान में गए। प्रधानमंत्री के पद पर थे सो दुकानदार भी अपने पीएम को देखकर काफी खुश हुआ। शास्त्री जी ने कहा कि उन्हें 5-6 साड़ियां चाहिए। दुकानदार तुरंत एक से बढ़कर एक साड़ियां दिखाने लगा। साड़ियां काफी महंगी थी। शास्त्री जी ने दुकानदार से सस्ती साड़ियां दिखाने को कहा। साड़ीवाले ने कहा कि आप पधारे यह तो मेरा सौभाग्य है। लेकिन शास्त्री जी ने कहा कि मैं दाम देकर साड़ियां ले जाउंगा। सो जितना कह रहा हूं उसपर ध्यान दो और सस्ती साड़ियां दिखाओ। दुकानदार ने प्रधानमंत्री की बात मानते हुए सस्ती साड़ियां दिखाईं और शास्त्री जी कीमत अदा कर वहां से चले गए।
यह उस समय की बात है जब शास्त्री जी रेल मंत्री के पद पर थे। एक दिन अचानक उन्हें किसी काम से मुंबई जाना पड़ा। ट्रेन में उनकी टिकट फर्स्ट क्लास में बुक की गई थी। पहले तो शास्त्री जी बैठ गए लेकिन उन्हें सफर के दौरान ठंडी लगने लगी। जबकि बाहर गर्म हवाएं और लू चल रही थी। शास्त्री जी बोले कि अंदर ठंडक है लेकिन बाहर काफी गर्मी है। उनके पीए कैलाश बाबू ने कहा कि आपकी सुविधा के लिए कूलर लगवाया है। इतना सुनते ही शास्त्री जी ने अपने पीएम की तरफ देखकर पूछा कि तुमने कूलर लगवाया और मुझे बताया भी नहीं। और लोगों को गर्मी नहीं लगती क्या? पीएम शास्त्री जी ने कहा कि आगे गाड़ी रुकने पर कूलर निकलवा देना। तब मथुरा स्टेशन पर गाड़ी रुकते ही सबसे पहले कूलर निकलवा दिया गया।
यह घटना 16 दिसंबर 1965 की है। राजस्थान के चित्तौड़गढ़ के छोटी सादड़ी में पीएम की यात्रा होनी थी। उस समय गणपत लाल अंजना ने शास्त्री जी को तौलने के लिए 56.863 किलो सोना इकट्ठा किया था मगर लाल बहादुर शास्त्री की यात्रा नहीं हो पाई। ताशकंद समझौते के बाद उनका निधन हो गया था। इसके बाद अगले साल 26 जनवरी 1966 को गणपत लाल आंजना ने उस वक्त की सरकार के गोल्ड बॉन्ड स्कीम के तहत सोना जमा कराकर रसीद ले ली थी। इसके बाद इस सोने के कई दावेदार पैदा हो गए। मामला कोर्ट तक गया। 55 साल इसकी कानूनी लड़ाई चली जिसके बाद राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार के पक्ष में मामला गया।