जानिए बिहार के मुख्यमंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय की अद्भुत कहानी!

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आज हम आपको बिहार के मुख्यमंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय की अद्भुत कहानी बताने जा रहे हैं! बिहार की सियासत में राज्य के चौथे मुख्यमंत्री रहे कृष्ण बल्लभ सहाय की चर्चा कई कारणों से होती है। बिहार में जमींदारी प्रथा उन्मूलन में उनकी सक्रिय भूमिका रही। उसके अलावा हिंदी की वरिष्ठ लेखिका रमणिका गुप्ता ने अपनी आत्मकथा ‘आपहुदरी’ में केबी सहाय से अपनी मुलाकात के प्रसंग को बड़ी रोचक तरीके से प्रस्तुत किया है। हालांकि, रमणिका गुप्ता ने अपनी आत्मकथा में मुख्यमंत्री को काफी सम्मान दिया है। आजादी की लड़ाई में लंबे समय तक सक्रिय भागीदारी निभाने वाले केबी सहाय 1924 में पहली बार बिहार विधान परिषद के सदस्य बने। 1937 में वह कांग्रेस सरकार के तब संसदीय सचिव बने, जब डॉ. श्रीकृष्ण सिंह के हाथों में सरकार की बागडोर थी। 1946 से लेकर 1957 तक वह श्रीबाबू की सरकार में राजस्व मंत्री के रूप में काफी चर्चित रहे। अंतरिम सरकार में राजस्व मंत्री की हैसियत से केबी सहाय ने जमींदारी प्रथा उन्मूलन के लिए कानून बनाया। इस कानून को बिहार एक्ट 1950 के नाम से जाना जाता है। इस एक्ट ने पूरे बिहार के जमींदारों में हड़कंच मचा दिया। दरभंगा राज के डॉ. कामेश्वर सिंह के नेतृत्व में सभी जमींदारों ने इस कानून को हाईकोर्ट में चुनौती दी। दायर याचिका में इस कानून को संविधान के अनुच्छेद 14 के विरुद्ध बताया गया। इसके बावजूद देश में बिहार पहला राज्य था, जिसने जमींदारी प्रथा खत्म करने की पहल की थी। लेकिन पटना हाईकोर्ट ने और बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी इस कानून को निरस्त कर दिया।

कानून के इस हश्र से हतप्रभ पंडित जवाहर लाल नेहरू की ओर से संविधान में पहला संशोधन किया गया। इस संशोधन के तहत अनुच्छेद 14 को निस्तेज करने के लिए संविधान में 31 (ए) और 31 (बी) जोड़ा गया। 1955 में भू-हदबंदी विधेयक पेश किया गया और इसे संशोधित रूप में 1959 में स्वीकार किया गया। 1962 इसे राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त हुई। जमींदारी प्रथा उन्मूलन में केबी सहाय की भूमिका देखते हुए बिहार के सभी राजघराने और जमींदार परिवार के सदस्य केबी सहाय की राजनीति को समाप्त करने में जुट गये। विधानसभा और संसद के पहले चुनाव में जब केबी सहाय ने बड़कागांव विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने के लिए पर्चा भरा, तो रामगढ़ राजा कामख्या नारायण सिंह खुद उन्हें हराने के लिए चुनाव मैदान में उतर गये। उसके बाद केबी सहाय के पक्ष में पंडित नेहरू भी सभा करने आये, लेकिन चुनाव परिणाम आया, तो पता चला कि केबी सहाय बड़कागांव से चुनाव हार गये। मगर उनकी इज्जत बचा ली गिरिडीह ने, जहां से वह दो हजार से अधिक मतों से चुनाव जीतकर विधानसभा में दाखिल हुए। हालांकि, 1957 के चुनाव में कामाख्या नारायण सिंह ने उन्हें गिरिडीह से भी पराजित कर दिया।

मुख्यमंत्री केबी सहाय के बारे में चर्चा होती थी कि मुख्यमंत्री रहते उन्होंने महिलाओं से मिलने का एक खास वक्त निर्धारित कर रखा था। केबी सहाय सुबह के वक्त चुनिंदा महिलाओं से मिलते थे, जिनके साथ उनकी मीटिंग फिक्स होती थी। हिंदी की चर्चित लेखिका रमणिका गुप्ता अपनी आत्मकथा ‘आपहुदरी’ में लिखती हैं कि जब राजनैतिक स्तर पर मैं कांग्रेस से जुड़ी। मुख्यमंत्री केबी सहाय के जन्मदिन पर मैंने अखिल भारतीय कवि सम्मेलन के आयोजन की घोषणा की। इसमें मैंने चंदा कर देश भर के कवियों को आमंत्रित किया। काका हाथरसी, जानकी बल्लभ शास्त्री, हंस कुमार तिवारी, गोपाल सिंह नेपाली तथा बहुत से युवा कवि आए, जो मंच पर बहुत ही जमे। कार्यक्रम में पहुंचे केबी सहाय ने जाते-जाते मुझसे कहा कि पटना आओ,जो मदद चाहिए मिलेगी। सब कांग्रेसी स्तब्ध थे। रमणिका अपनी आत्मकथा में चर्चा करती हैं कि कांग्रेसी नेताओं के बीच चर्चा शुरू हो गई कि ये कल की आई औरत को मुख्यमंत्री ने कैसे घास डाला? हम तो बरसों से लाइन में हैं? रमणिका आगे लिखती है- खैर, कवि सम्मेलन चर्चा का विषय बन गया।

रमणिका गुप्ता ने अपनी पुस्तक में चर्चा किया है कि कवि सम्मेलन में केबी सहाय को बुलाने के बाद अविभाजित धनबाद के बाकी कांग्रेस नेताओं में हड़कंप मच गया। उसके बाद स्थानीय नेता रमणिका पर दबाव बनाने लगे कि वे राजनीति के पचड़े में नहीं पड़ें। रमणिका को धमकी दी गई कि वे मुख्यमंत्री से नहीं मिलें, नहीं तो श्रमिक नेताओं से वैर हो जाएगा। रमणिका कहती है कि मैं मुख्यमंत्री से न मिलूं। मुझमें तो विरोध होने पर उस विरोध का मुकाबला करने की आदत हमेशा जिद की हद तक पहुंच जाया करती रही। सो इस विरोध ने मुझमें एक जिद पैदा कर दी। जोखिम को समझते हुए भी मैं पटना गई। राजनीति में आने वाली औरतों के लिए जोखिम के खिलाफ एक सुरक्षा-कवच की भी जरूरत होती है। दरअसल, राजनीति में जितनी भी गुटबाजियां होती हैं, वे सब वर्चस्व और असुरक्षा की भावनाओं के कारण ही होती हैं। मैं मुख्यमंत्री से मिलने पटना पहुंची। वे सवेरे चार बजे उठकर फाइल देखते थे और उसी समय अपने खास मिलने वालों को बुलाते थे, जिनमें औरतें भी शामिल होती थीं। छह बजे के लगभग वे सैर को निकलते थे। रास्ते में भी पैरवीकार उनसे बातें करते चलते थे। वे मुख्यमंत्री के पुराने निवास में ही रहते थे, जहां पहले बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री रहा करते थे। कभी-कभी गंभीर राजनीतिक वार्ताएं भी उसी सैर के दौरान वे किया करते थे।

पहुंचती हैं। उसके बाद जो होता है, उन घटनाओं का हूबहू उन्होंने अपनी किताब ‘आपहुदरी’ में वर्णन किया है। रमणिका लिखती है कि मैं मुख्यमंत्री से सवेरे चार बजे मिलने वालों की सूची में थी। मैं गई। फाइलों से सर उठाकर उन्होंने सराहना भरी नजर से मुझे देखा। केबी सहाय ने रमणिका से कहा-तुम्हारा प्रोग्राम तो बहुत अच्छा था। कहते हुए वे उठे। मैं खड़ी थी। उनका पी.ए. जा चुका था। मेरी तरफ आते हुए वे हाथ फैला कर बोले कि बोलो क्या चाहिए? बिहार का मुख्यमंत्री तुमसे कह रहा है। मैं स्तब्ध थी। अचानक मुंह से निकला कि महिलाओं के प्रशिक्षण के लिए भवन बनाने के लिए धनबाद में कांग्रेस ऑफिस के बगल वाली जमीन चाहिए। मुख्यमंत्री ने कहा कि अरजी लाई हो? उन्होंने पूछा। उसके बाद मैंने कहा- जी। उन्होंने अर्जी लेकर जमीन आवंटन की प्रक्रिया पूरी करने का आदेश जिला-परिषद के मंत्री को लिख दिया, जो एक आदिवासी थे। मुख्यमंत्री केबी सहाय से रमणिका की इस मुलाकात का प्रसंग ‘आपहुदरी’ में विस्तार से वर्णित है। उसके बाद केबी सहाय रमणिका को एक और गिफ्ट देते हैं, वो होती है बिहार प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सदस्य के रूप में मनोनयन। केबी सहाय एक चिट्ठी लिखते हैं और उसे पाकर रमणिका गुप्ता खुश हो जाती हैं। रमणिका ने किताब में एक भी जगह मुख्यमंत्री के व्यवहार को बुरा नहीं बताया है। उन्होंने अपने साथ गुजरे लम्हों को हूबहू किताब में उकेर दिया है।

रमणिका गुप्ता अपने अनुभवों में ये बताती है कि उनकी मुलाकात केबी सहाय से काफी सफल रही। वे आगे लिखती हैं कि मैं सपना-सा देख रही थी। वे बोले कि जाओ ये पत्र लेकर राजा बाबू से मिलो, वे तुम्हें बीपीसीसी का सदस्य मनोनीत कर देंगे। तुम कांग्रेस पार्टी का काम करो। मेरा मन तो तुमने जीत ही लिया है। ये कहते हुए उन्होंने मुझे आगोश में लेकर चूम लिया। मैं विरोध नहीं कर सकी या शायद मैंने विरोध करना नहीं चाहा। ऐसे भी क्षण आते हैं जीवन में, जब अचानक, अनअपेक्षित लादे गए अहसानों का अहसास किसी भी ऐसी हरकत को नजरअंदाज करने में सहायक बन जाता है। राजनीति में ऐसे ही अहसानों में कमी आने पर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला चल जाता है। तनावग्रस्त राजनेता महिला कार्यकर्ताओं से शारीरिक सुख पाकर तनाव-मुक्त होने को अहसान के रूप में लेता है तो राजनीतिक महिलाएं बदले में सुरक्षा और वर्चस्व के फैसले अपने पक्ष में हासिल करती हैं। जो महिलाएं राजनीतिक नहीं होतीं, वे पैसे या भौतिक उपहारों से संतुष्ट हो जाती हैं या पुरुषों की तरह ही ट्रांसफर-पोस्टिंग में कमाई करती हैं। उनके पति भी इसमें दलाली करते हैं। रमणिका लिखती है कि अब मैं कहूँ कि वह मेरा शोषण था, तो शायद यह गलतबयानी होगी। क्योंकि राजनैतिक सीढि़यों पर चढ़ने वाले हर व्यक्ति को, औरत हो या मर्द, सुरक्षा-कवच चुनने होते हैं। मुझे मुख्यमंत्री का सुरक्षा कवच मिल रहा था। शायद यह ज्यादा भरोसेमंद था छदम् नैतिकता से!