Saturday, September 14, 2024
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जानिए कर्पूरी ठाकुर की अद्भुत कहानी!

आज हम आपको कर्पूरी ठाकुर की अद्भुत कहानी सुनाने जा रहे हैं! कर्पूरी ठाकुर बिहार के दो बार सीएम रहे। आश्चर्य यह कि इसके बावजूद वह अपने लिए एक अदद मकान नहीं बनवा सके। आज के राजनीतिज्ञों के ऐशो-आराम और धन-संपदा को देख कर किसी को भी अचरज हो सकता है कि कोई सीएम ऐसा भी हो सकता है क्या! अचरज इसलिए भी कि आज जहां पंचायत का अदना एक प्रधान चुनाव जीतने के पांच साल बाद लाखों का मालिक हो जाता है। विधायक-सांसद और मंत्री की बात कौन कहे। कर्पूरी ठाकुर की सादगी, ईमानदारी और मुफलिसी के कई किस्से हैं, जिनके बारे में जानना जरूरी है।  एमएलए-एमपी की बात तो छोड़ दीजिए, आज मुखिया-सरपंच भी बड़ी-बड़ी लग्जरी गाड़ियों पर घूमते हैं। साल भर में कोठी खड़ी कर लेना उनके बायें हाथ का खेल होता है। चुनाव से पहले भले वे फटेहाल हों, लेकिन चुनाव जीतने के साल-दो साल में उनके पास ऐशो-आराम की वे सभी चीजें हो जाती हैं, जो कर्पूरी ठाकुर अपने लंबे राजनीतिक जीवन और दो बार बिहार के सीएम रहने के बावजूद नहीं कर सके। पहले उप मुख्यमंत्री और बाद में दो बार मुख्यमंत्री चुने गये थे कर्पूरी ठाकुर। इसके बावजूद उन्होंने अपने लिए एक अदद मोटर वाहन नहीं खरीदा। गाड़ी की बात छोड़ भी दें तो भी यह बात किसी को जरूर अजरज में डाल देगी कि वे शहर तो दूर, गांव में भी अपने लिए एक मकान नहीं बनवा सके थे। आखिर तक झोपड़ी में ही रहे।

सन 1977 की बात है। पटना के कदमकुआं के चरखा समिति भवन में जयप्रकाश नारायण के जन्मदिन पर एक आयोजन था। भूत पूर्व पीएम चंद्रशेखर, नानाजी देशमुख जैसे कई नेता देशभर से जुटे थे। उस समय कर्पूरी ठाकुर बिहार के सीएम थे। कर्पूरी ठाकुर उस कार्यक्रम में फटा कुर्ता और टूटी चप्पल पहन कर आये थे। कर्पूरी ठाकुर को देख समाजवादी नेताओं में यह चर्चा चली कि किसी मुख्यमंत्री को ठीक से जीवन गुजारने के लिए कितनी पगार होनी चाहिए। सब इस बात पर हंस पड़े। तब चंद्रशेखर अपनी सीट से उठे और अपने कुर्ते का फांड़ (आगे का निचला हिस्सा) फैला कर सबसे बोले- कर्पूरी जी के कुर्ता फंड में आप लोग दान दीजिए। वहीं, कुछ सौ रुपये इकट्ठे हो गये। जब कर्पूरी जी के हाथ में पैसा थमा कर कहा गया कि इन रुपयों से अपने लिए एक बढ़िया कुर्ता-धोती खरीद लें तो कर्पूरी ठाकुर ने कहा- रुपये हम मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा करा देंगे।

आज के नेता रोज ड्रेस बदलते हैं। लगता है, कपड़े से ही वे पहचाने जाएंगे। कर्पूरी ठाकुर ऐसे आदमी थे कि कपड़ों पर उनका ध्यान ही नहीं रहता। लालू यादव पर जयंत जिज्ञासु ने एक किताब लिखी है। उसमें कर्पूरी ठाकुर का एक जगह प्रसंगवश जिक्र हुआ है। सन 1952 में जब कर्पूरी ठाकुर पहली बार बार एमएलए चुने गये तो उन्हें विदेश जाने का एक मौका मिला। पहनकर विदेश जाने के लिए उनके पास कोट नहीं था। उन्होंने अपने एक साथी से उसका कोट उधार मांगा। दोस्त ने कोट तो दे दिया, लेकिन वह भी फटा हुआ था। कर्पूरी ठाकुर को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। वे फटा कोट ही पहन कर विदेश चले गये। वहां जाने के बाद किसी की नजर फटे कोट पर पड़ी। फिर उस आदमी ने उन्हें कोट खरीद कर तोहफे में दिया।

कर्पूरी जी के पास अपनी गाड़ी नहीं थी। इस गाड़ी प्रसंग पर दो साल पहले बिहार में खूब बवाल मचा था। 80 के दशक की बात है। बिहार असेंबली की बैठक चल रही थी। उस समय कर्पूरी ठाकुर असेंबली में विरोधी दल के नेता थे। उनको जोरों की भूख लगी थी। खाने के लिए घर जाने की मजबूरी थी। उन्होंने कागज के एक पुर्जे पर लिख कर अपनी पार्टी के एमएलए लालू यादव से थोड़ी देर के लिए उनकी जीप मांगी। लालू ने उसी पुर्जे पर लिख कर उन्हें लौटा दिया। उसमें लिखा था कि उनकी जीप में तेल नहीं है। दो बार आप सीएम रहे हैं, अपने लिए एक कार क्यों नहीं खरीद लेते हैं। पशुपालन घोटाले में जमानत मिलने पर जेल से जब लालू यादव बाहर आये तो उन्होंने उसी पुरानी जीप पर सवारी की और बताया कि इसी जीप से हम कर्पूरी ठाकुर को घुमाते थे। इसके बाद तो भांडा ही फूट गया कि कर्पूरी ठाकुर ने भूख लगने पर घर जाने के लिए किससे जीप मांगी थी। किसी को भी अचरज हो सकता है कि जो आदमी दो बार सीएम रहा, वह अपने लिए एक अदद कार या जीप नहीं खरीद सका। कर्पूरी ठाकुर हमेशा रिक्शा से चलते थे। उनका कहना था कि जीप-कार में तेल भराने लायक उनकी आमदनी नहीं है। उनकी जो आमदनी है, उससे घर में दाल-रोटी का बंदोबस्त कर पाना ही मुश्किल है।

जयंत जिज्ञासु ने अपनी किताब में कर्पूरी ठाकुर से जुड़े एक और प्रसंग का जिक्र किया है। कर्पूरी ठाकुर के छोटे बेटे का सेलेक्शन डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए हो गया था। इस बीच उसकी तबीयत खराब हो गयी। उसे दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती कराया गया। हार्ट की बीमारी का पता चला। ऑपरेशन जरूरी था। तब की पीएम इंदिरा गांधी को जब पता चला तो वह अस्पताल में देखने गयीं। उसके पहले उन्होंने अपने एक प्रतिनिधि को भेजा था। राम मनोहर लोहिया अस्पताल से निकाल कर बेटे को एम्स में भर्ती कराया गया। इंदिरा जी ने कहा कि सरकारी खर्च पर उसका इलाज अमेरिका में होगा। कर्पूरी जी को जब इस बात की जानकारी मिली, तो उन्होंने साफ मना कर दिया कि मर जाएंगे, लेकिन बेटे का इलाज सरकारी खर्च से नहीं करायेंगे। बाद में जयप्रकाश नारायण ने पैसे का बंदोबस्त कराया और न्यूजीलैंड भेज कर उसका इलाज कराया गया।

कर्पूरी ठाकुर दो बार मुख्यमंत्री रहे, लेकिन ढंग का घर नहीं बनवा सके थे। एक बार पीएम रहते चौधरी चरण सिंह संयोगवश कर्पूरी ठाकुर के घर आये। घर के दरवाजे की ऊंचाई इतनी कम थी कि लंबे कद के चरण सिंह के सिर में प्रवेश करते वक्त चोट लग गयी। चरण सिंह ने सिर्फ इतना ही कहा- कर्पूरी, दरवाजे को थोड़ा ऊंचा करा लीजिए। इसका जवाब कर्पूरी ठाकुर ने दिया। उन्होंने कहा कि जब तक बिहार के सभी गरीब-गुरबों के घर नहीं बन जाते, तब तक सिर्फ हमारा घर बन जाने से क्या होगा। जब बिहार सरकार पटना में एमएलए के लिए अपना घर बनाने के लिए सस्ते दाम पर जमीन दे रही थी, तब लोगों ने कर्पूरी जी को सलाह दी थी कि आप भी जमीन ले लें। उन्होंने मना कर दिया। एक एमएलए ने कहा कि अपने लिए न सही, लेकिन बाल-बच्चों के लिए तो ले लीजिए। इसके जवाब में कर्पूरी ठाकुर ने कहा था- सब अपने गांव में रहेंगे। कर्पूरी के निधन के बाद हेमवती नंदन बहुगुणा जब उनके गांव गये, तो उनकी पुश्तैनी झोपड़ी देख कर रो पड़े थे। उनको इस बात से आश्चर्य हुआ कि 1952 से लगातार जो आदमी एसएलए रहा, दो बार मुख्यमंत्री बना, वह आदमी अपने लिए कहीं ढंग का एक मकान नहीं बनवा पाया !

जिससे कर्पूरी ठाकुर की महानता का पता चलता है। सुरेंद्र किशोर 1972-73 के दौरान कर्पूरी ठाकुर के निजी सचिव रहे। उन्होंने बताया कि सन 1972 की बात है। कर्पूरी ठाकुर बिहार विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता थे। विधानसभा भवन स्थित अपने कक्ष के मुख्य टेबल पर उनके और कर्पूरी जी के लिए दोपहर का खाना आया। वह खाना खाकर पहले ही उठ गये। हाथ धोने बेसिन की ओर चले गये। उन्होंने अपनी जूठी थाली टेबल पर ही छोड़ दी थी। कर्पूरी जी ने जब अपना खाना खत्म किया तो उन्होंने एक हाथ से अपनी और दूसरे हाथ से उनकी यानी अपने निजी सचिव की थाली उठाई और उसे कमरे के बाहर रख दिया। कर्पूरी जी भी हाथ धोने चले गए। बेसिन थोड़ा दूर था। इस बीच वह आ गये। वहां पहले से बैठे प्रणव चटर्जी ने उनसे पूछा, ‘आपको पता है कि आपकी थाली किसने उठाई?’ उन्होंने कहा कि ‘दुर्गा ने उठाया होगा। दुर्गा कैंटीन का स्टाफ था।’ बक्सर के पूर्व विधायक प्रणव जी ने कहा कि ‘नहीं, आपकी जूठी थाली खुद कर्पूरी जी ने उठाई और बाहर रखा।’

कर्पूरी ठाकुर पर आरोप लगता है कि उन्होंने अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म कर दी थी। इससे बिहार की शिक्षा में गिरावट का कारण भी बताया गया। कर्पूरी ठाकुर ने पूत भावना से यह कदम उठाया था। उनका मानना था कि लड़कियां अंग्रेजी की वजह से फेल हो जाती हैं। इससे उनकी शादी नहीं हो पाती। उनकी शादी की उम्र निकलती जाती है। समाज की इस पीड़ा को कर्पूरी ठाकुर ने महसूस किया और अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म की। वह अंग्रेजी के विरोधी नहीं थे।

कर्पूरी ठाकुर कितने क्रांतिकारी मिजाज के थे, इसको समझने के लिए यह उदाहरण काफी है। 1977 में जब वह मुख्यमंत्री थे तो पुलिस हिरासत में नगर निगम के एक सफाईकर्मी ठकैता डोम की पुलिस हिरासत में मौत हो गयी। उन्होंने मौत की जिम्मेवार पुलिस को माना। अंतिम संस्कार में शामिल हुए। इतना ही नहीं, ठकैता डोम को उन्होंने बेटे की तरह मान देते हुए मुखाग्नि दी।

24 जनवरी 1924 को बिहार के समस्तीपुर जिला के पितौंझिया (अब कर्पूरीग्राम) निवासी गोकुल ठाकुर और रामदुलारी देवी के घर कर्पूरी ठाकुर का जन्म हुआ था। उनके पिता गोकुल ठाकुर नाई का काम करते थे। कर्पूरी जी भारत छोड़ो आंदोलन के समय 26 महीने जेल में रहे। उनकी सादगी की कहानी सुन कर आज भी संवेदनशील लोगों की आंखें डबडबा जाती हैं। पढ़ाई के समय से ही कर्पूरी ठाकुर आजादी की लडाई में अंग्रेजों के खिलाफ भिड़ गये थे। दो साल तक अंग्रेजों ने उनको जेल में रखा। भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल होने के लिए कर्पूरी ठाकुर ने बीए की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी थी। जेल से बाहर आने के बाद वे समाज सेवा और गरीब गुरबों को आगे बढ़ाने के काम में जुट गये। बाद में उन्हें शिक्षक की नौकरी मिली। 1952 में वे बिहार असेंबली के मेंबर चुने गये। सोशलिस्‍ट पार्टी के टिकट पर ताजपुर सीट से उन्होंने पहली बार जीत दर्ज की थी। वे बिहार के मंत्री, उप मुख्यमंत्री और दो बार मुख्यमंत्री बने।

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