एक ऐसा राजर्षि महंत जिसमें प्रधानमंत्री से किया बैर! इन दिनों पूरा देश आजादी का 75वां साल मना रहा है। हर तरफ आजादी के अमृत महोत्सव को लेकर तरह-तरह के आयोजन किए जा रहे हैं। आजादी की लड़ाई में अहम योगदान देने वाले कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन (Purushottam Das Tandon Birthday) का आज जन्मदिन है। 1 अगस्त, 1882 को इलाहाबाद में जन्मे पुरुषोत्तम दास टंडन पढ़ाई के दौरान ही कांग्रेस से जुड़ गए। विदेशी हुकूमत के विरोध के कारण उन्हें म्योर कॉलेज से निकाल दिया गया। 1906 में सर तेज बहादुर सप्रू के अंडर में उन्होंने इलाहाबाद हाई कोर्ट में वकालत शुरू की। 1921 में महात्मा गांधी के आह्वान पर वकालत छोड़ कर खुद को देश-समाज के लिए समर्पित कर दिया। अनेक जेल यात्राएं की। किसानों-मजदूरों को संगठित करने की कोशिशें कीं। पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया। वे बेहतरीन वक्ता थे।
कांग्रेस पार्टी के लम्बे इतिहास में अध्यक्ष पद के दो यादगार चुनाव हुए। एक 1939 में, जब गांधी जी के न चाहने के बाद भी सुभाष चन्द्र बोस अध्यक्ष चुन लिए गए। दूसरी बार 1950 में जब पंडित नेहरू के खुले विरोध के बाद भी राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन जीत गए। दोनों चुनावों में एक दिलचस्प समानता और रही। सुभाष चंद्र बोस को जीतकर भी इस्तीफा देना पड़ा। टंडन जी के साथ भी यही हुआ।
पंडित नेहरू और सरदार पटेल इस चुनाव के पूर्व किसी एक नाम पर सहमति बनाने के लिए साथ बैठे थे। टंडन उस समय उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे। राष्ट्रीय अध्यक्ष पद का इससे पहले 1948 का चुनाव वह हारे थे। समर्थक उन पर फिर से चुनाव लड़ने के लिए दबाव बनाए हुए थे। निजी तौर पर उनके प्रति आदर-लगाव रखने के बाद भी पंडित नेहरू उनकी उम्मीदवारी के पक्ष में नही थे। टंडन की दाढ़ी, विभाजन का प्रबल विरोध और हिंदी के प्रति उत्कट प्रेम के चलते नेहरू की नजर में उनकी छवि एक पुरातनपंथी और साम्प्रदायिक नेता की थी। टंडन के स्वतंत्र व्यक्तित्व और शरणार्थियों के एक सम्मेलन की अध्यक्षता ने भी पंडित नेहरू को उनसे दूर किया था। एक दूसरा नाम शंकर राव देव का था। देव भाषायी आधार पर वह बृहत्तर महाराष्ट्र के तगड़े पैरोकार थे। इसमें वे सेंट्रल प्रॉविन्स और हैदराबाद के कई जिले शामिल कराना चाहते थे। इसके चलते सरदार पटेल से उनकी दूरियां बढ़ी हुई थीं। एचसी मुखर्जी और एसके पाटिल का भी नाम चला पर बात नही बनी।
पंडित नेहरू और सरदार पटेल दोनों ही शुरुआती दौर में एक राय के थे कि जेबी कृपलानी को उम्मीदवार नहीं बनाना है। कृपलानी 1946-47 में अध्यक्ष रहे थे। नेहरू-पटेल का उनसे तालमेल नहीं बन सका था। अध्यक्ष के तौर पर अपनी उपेक्षा की कृपलानी की भी शिकायतें थीं। इस बीच सीआर राजगोपालाचारी ने अध्यक्ष पद के लिए सरदार पटेल का नाम सुझाया। नेहरू खामोश रहे। लगा कि शायद नेहरू प्रधानमंत्री के साथ अध्यक्ष पद की भी जिम्मेदारी संभालना चाहेंगे। सरदार पटेल सहमत थे। नेहरू 2 अगस्त को पटेल के घर पहुंचे और सीआर राजगोपालाचारी को अध्यक्ष बनाने का सुझाव दिया। सरदार पटेल इस प्रस्ताव पर भी राजी थे, लेकिन सीआर ने इनकार कर दिया। ये भी साफ हुआ कि पंडित नेहरू दोहरी जिम्मेदारी नहीं चाहते, पर टंडन को हराना उनकी प्राथमिकता है।
नेहरू ने पटेल के रोकने के बाद भी मौलाना आजाद के घर वर्किंग कमेटी के दिल्ली में मौजूद सदस्यों की बैठक बुलाई। दो टूक कहा कि अध्यक्ष के पद पर टंडन उन्हें स्वीकार्य नही हैं। 8 अगस्त, 1950 को पंडित नेहरू ने टंडन को सीधे पत्र लिखकर उनका विरोध किया। पत्र में लिखा- ‘आपके चुने जाने से उन ताकतों को जबरदस्त बढ़ावा मिलेगा, जिन्हें मैं देश के लिए नुकसानदेह मानता हूं।’ टंडन ने 12 अगस्त को नेहरू को उत्तर दिया- ‘हम बहुत से सवालों पर एकमत रहे हैं। अनेक बड़ी समस्याओं पर साथ काम किया है पर कुछ ऐसे विषय हैं, जिस पर हमारा दृष्टिकोण एक नहीं है। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाया जाना और देश का विभाजन इसमें सबसे प्रमुख है। मैं आपको आश्वस्त करता हूं कि मेरे प्रति आपकी कटुतम अभिव्यक्ति भी मुझे कटु नहीं बना पाएगी और न ही आपके प्रति मेरे प्रेम में अवरोध कर सकेगी। मैंने सालों से अपने छोटे भाई की तरह विनम्रता के साथ आपसे प्रेम किया है।’
पर पंडित नेहरू मन बना चुके थे। टंडन के पत्र के एक दिन पहले ही 11 अगस्त को उनका नाम लिए बिना नेहरू ने एक बयान जारी किया- ‘जब तक वह (नेहरू) प्रधानमंत्री हैं, उन्हें (टंडन) अध्यक्ष स्वीकार करना उचित नहीं होगा। उम्मीद जताई कि राजनीतिक, साम्प्रादायिक और अन्य समस्याओं के बारे में फैसले कांग्रेस की पुरानी सोच के मुताबिक ही लिए जाएंगे। इस बयान के जरिये नेहरू ने टंडन को लेकर अपना रुख सार्वजनिक कर दिया। रफी अहमद किदवई इस चुनाव में पंडित नेहरू के मुख्य सलाहकार थे। किदवई को अहसास था कि टंडन के सभी विचारों से सहमत न होने के बाद भी निष्ठा और ईमानदार छवि के कारण खासतौर पर हिंदी पट्टी के राज्यों में कांग्रेसजन के बहुमत का उन्हें समर्थन प्राप्त है। शंकर राव देव के उनके मुकाबले टिकने की उम्मीद नही थी।
29 अगस्त को 24 स्थानों पर मतदान हुआ। 1 सितम्बर को गिनती हुई। टंडन 1306 वोट पाकर जीत गए। कृपलानी को 1092 और देव को 202 वोट मिले। उत्तर प्रदेश जो नेहरू और टंडन दोनों का गृह प्रदेश था, वहां टंडन को अच्छी बढ़त मिली। सरदार पटेल के गृह राज्य गुजरात के सभी वोट टंडन को मिले। नतीजों के बाद पटेल ने सीआर से पूछा, ‘क्या नेहरू का इस्तीफा लाए हैं?’ पटेल की उम्मीद के मुताबिक, नेहरू इरादा बदल चुके थे। 13 सितम्बर 1950 को नेहरू ने एक बयान में कहा, ‘टंडन की जीत पर साम्प्रदायिक और प्रतिक्रियावादी तत्वों ने खुलकर खुशी का इजहार किया है।’
संसद सदस्य के नाते तब चार सौ रुपया महीना मिलता था। किसी अवसर पर भुगतान करने वाले लोकसभा स्टॉफ से उन्होंने पूछा कि क्या यह राशि सीधे सरकारी सहायता कोष में नही जा सकती? बगल में खड़े एक सांसद ने उनसे कहा, ‘सिर्फ चार सौ रुपये मिलते हैं। उन्हें भी आप दान कर देना चाहते हैं।’ टंडन का उत्तर था, ‘मेरे लड़के कमाते हैं। सब मिलकर सात सौ रुपये देते हैं। तीन-चार सौ ही खर्च है। बचे रुपये भी दूसरों के काम आते हैं।’ स्वास्थ्य कारणों से टंडन ने 1961 में राज्यसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। 23 अप्रैल 1961 को उन्हें भारत रत्न की उपाधि से विभूषित किया गया। इसी वर्ष कविवर सुमित्रानंदन पन्त को पद्मभूषण सम्मान घोषित किया गया। टंडन ने सुप्रसिद्ध साहित्यकार वियोगी हरि को इस विषय में जो लिखा, वह उनके महान व्यक्तित्व की एक झलक दिखाता है। उन्होंने लिखा- ‘मुझे भारत रत्न और सुमित्रानंदन पन्त को पद्मभूषण? यह ठीक है कि उम्र में मैं बड़ा हूं। मैंने भी काम किए हैं। पर आगे चलकर लोग पुरुषोत्तम दास टंडन को भूल जाएंगे। लेकिन पन्त जी की कविताएं तो हमेशा अमर रहेंगी। उनकी कविताएं लोगों की जुबान पर जिंदा रहेंगी। उनका काम मुझसे ज्यादा स्थायी है। इसलिए सुमित्रानंदन पन्त को भारत रत्न मिलना चाहिए।’