जानिए शिवाजी महाराज के वीर सैनिक कान्होजी आंग्रे की अद्भुत कहानी!

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आज हम आपको शिवाजी महाराज के वीर सैनिक कान्होजी आंग्रे की अद्भुत कहानी बताने जा रहे हैं! ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में व्यापार शुरू करने के लिए पुर्तगालियों से टक्कर लेनी पड़ी। सन 1612 में दोनों शक्तियों के बीच सुवाली का युद्ध हुआ। इसके पहले मुगल बादशाह जहांगीर ने ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में व्यापार की अनुमति नहीं दी थी। लेकिन, सुवाली युद्ध के बाद हालात बदल गए। ब्रिटिश कंपनी को बादशाह की इजाजत मिल गई। अंग्रेजों और पुर्तगालियों के बीच भारत में रिश्तों की शुरुआत भले लड़ाई से हुई, लेकिन आगे जाकर दोनों को दोस्ती करनी पड़ी। यह दोस्ती थी मजबूरी वाली। इतिहास का यह कमाल हुआ था केवल एक शख्स के कारण। वह थे मराठा नेवी के चीफ कान्होजी आंग्रे। उन्होंने अकेले दम कई बरसों तक ब्रिटिश, डच और पुर्तगालियों को छकाया और भारत के पश्चिमी तट से दूर रखा। वह एक बार भी समुद्र की लड़ाई नहीं हारे।

उत्तर प्रदेश के पूर्व राज्यपाल राम नाईक बताते हैं, ‘भारतीय-स्वदेशी नौसेना का इतिहास शिवाजी महाराज से आरंभ होता है। इसी क्रम में आगे कान्होजी आंग्रे ‘स्वराज्य’ के पहले ‘सरखेल’ बने। आज की भाषा में इसे ‘एडमिरल’ कहते हैं।’ समुद्र में कान्होजी का उदय हुआ था 1698 में। सतारा के प्रमुख ने उन्हें सरखेल नियुक्त किया था। आज की मुंबई से लेकर वेंगुर्ला तक का इलाका उनके अधीन आता था।

यह वह समय था, जब मुगल और मराठा साम्राज्य कमजोर पड़ रहा था। ईस्ट इंडिया कंपनी व्यापार के साथ अपना प्रभुत्व भी तेजी से फैला रही थी। सुवाली की लड़ाई के बाद कंपनी ने अपनी एक नौसेना बना ली थी। उसका काम था मसाला रूट पर कंपनी या सीधे कहें तो ब्रिटिश हितों की रक्षा करना। उनके अलावा डच और पुर्तगाली भी थे। यूरोप से जहाज आते और भारत से मसाले, सिल्क वगैरह ले जाते। कहने के लिए यह सब व्यापार का हिस्सा था, लेकिन इसके साथ भारत को लूटने और गुलाम बनाने की साजिश भी चल रही थी। पश्चिम में इस पर लगाम लगाई कान्होजी ने। उन्होंने समुद्र के किनारे एक ऐसी अभेद्य दीवार खड़ी कर दी, जिसे पारकर कोई विदेशी उनकी अनुमति के बगैर नहीं आ सकता था। देवगढ़, अलीबाग, पूर्णागढ़ में उन्होंने निर्माण कराए। अपनी करंसी भी चलाई, जिसे अलीबागी रुपैया कहते थे। उन्होंने पहले विजयदुर्ग, फिर अलीबाग के कुलाबा में बेस बनाया। बंदरगाह पर आने वाले हर व्यापारिक जहाज को टैक्स देना पड़ता। राम नाईक बताते हैं, ‘कान्होजी के बेड़े में लगभग 80 युद्ध-नौकाएं थीं। उन्होंने उस समय विदेशी आक्रमणकारियों को पश्चिमी तट पर घुसने ही नहीं दिया। वह सागर योद्धा थे।’

कान्होजी का जन्म पुणे के पास अंगारवाड़ी गांव में सन 1669 में हुआ था। इसी जगह से उनके नाम के साथ जुड़ा आंग्रे। उनके पिता छत्रपति शिवाजी के लिए काम करते थे। बाद में कान्होजी ने शिवाजी के वंशज छत्रपति साहूजी की नौसेना की कमान संभाली। सुरेंद्र नाथ सेन ने ‘द मिलिट्री सिस्टम ऑफ मराठा’ में लिखा है कि छत्रपति शिवाजी ने मराठा हितों की रक्षा के लिए नौसेना बनाई थी। उनकी मौत के बाद इस साम्राज्य के बिखरने का खतरा पैदा हो गया। तब कई जोशीले मराठा सामने आए। कान्होजी उनमें से एक थे।

कान्होजी ने कई ब्रिटिश और पुर्तगाली जहाजों को निशाना बनाया। अगले एक दशक में उनकी ताकत इतनी बढ़ गई थी कि कोई चुनौती देने वाला नहीं रहा। यहां तक कि 1712 में उन्होंने बॉम्बे के ब्रिटिश प्रेसिडेंट विलियम एस्लाबी की हथियारबंद नौका को पकड़ लिया। आखिरकार अंग्रेजों और पुर्तगालियों को पुरानी दुश्मनी भुलाकर हाथ मिलाना पड़ा। 29 नवंबर, 1721 को दोनों ने संयुक्त अभियान छेड़ा, लेकिन नाकाम रहे। ऐसी एक कोशिश तब की तीसरी बड़ी यूरोपीय ताकत नीदरलैंड ने भी की थी। 1724 में उसने अपने सबसे मजबूत बेड़े के साथ विजयदुर्ग पर चढ़ाई की और नाकाम लौटा।

वह जब मराठा नेवी के प्रमुख बने, तब बेड़े में बमुश्किल आठ-दस छोटी नौकाएं होंगी और उनके सामने चुनौतियां थीं कई। उन्हें जंजीरा रियासत के सिदी से मराठा साम्राज्य बचाना था। मालाबार पर उत्पात मचा रहे लुटेरों से देसी व्यापारियों की रक्षा करनी थी। बता दें कि उन्होंने पहले विजयदुर्ग, फिर अलीबाग के कुलाबा में बेस बनाया। बंदरगाह पर आने वाले हर व्यापारिक जहाज को टैक्स देना पड़ता। राम नाईक बताते हैं, ‘कान्होजी के बेड़े में लगभग 80 युद्ध-नौकाएं थीं। उन्होंने उस समय विदेशी आक्रमणकारियों को पश्चिमी तट पर घुसने ही नहीं दिया। वह सागर योद्धा थे।’ इनके बीच बॉम्बे में अंग्रेज, गोवा में पुर्तगालियों और वेंगुर्ला में डचों से निपटना था। कान्होजी ने अपने आदर्श शिवाजी महाराज की तरह इन सभी का सामना किया। उनकी छापामार शैली का जवाब किसी के पास नहीं था।