आज हम आपको शुभ्रक घोड़े की अद्भुत कहानी बताने जा रहे हैं! कवि श्यामनारायण पांडेय की कविता की यह चंद लाइन मेवाड़ के बहादुर और पराक्रमी योद्धा महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक की अपने स्वामी के प्रति वफादारी और वीरता को दर्शाती हैं। इतिहास के पन्नों में महाराणा प्रताप और मुगल बादशाह अकबर के बीच हुए हल्दी घाटी का युद्ध आज भी लोगों के जहन में हैं। 318 किलो वजन उठाने और सबसे तेज दौड़ने वाले चेतक घोड़े ने इस युद्ध में अपने प्राणों की बाजी लगाकर उन मुगलों से पहाड़ी रास्ते से एक बहते हुए नाले को लांघकर अपने स्वामी को बचाया था। चेतक की यह छलांग इतिहास में अमर हो गई। इस दौरान चेतक ने अपने स्वामी के लिए प्राणों तक की परवाह नहीं की और शहीद हो गया। आज भी हल्दी घाटी युद्ध का जिक्र आने पर चेतक का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। लेकिन क्या आपको पता है कि इतिहास में एक और घोड़ा था जिसकी चर्चा बहुत कम की जाती है। एक ऐसा घोड़ा जिसने अपने स्वामी को जब लोहे की जंजीर में जकड़े देखा तो उसे छुड़ाने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दी, इस घोड़े का नाम था शुभ्रक और यह मेवाड़ के एक और शासक कर्ण सिंह का वफादार जानवर था। इतिहास में इस साहसी और वफादार घोड़े की चर्चा काफी कम की गई है। शायद आप में से कई लोगों ने इस घोड़े का नाम भी न सना हो।
इतिहास में रुचि रखने वालों को यह तो पता है कि लाहौर का राजा कुतुबद्दीन ऐबक एक घोड़े से गिरकर मरा था। लेकिन यह बहुत कम लोगों को मालूम है कि उसे मारने वाला महाराजा कर्ण सिंह का यही घोड़ा शुभ्रक था। 11 साल की उम्र में घुड़सवारी के गुर सीखने वाला एक लड़ाका सरदार जिसने कई युद्ध घोड़े पर चढ़कर लड़े उसकी मौत एक घोड़े के चलते कैसे हो गई। इसके लिए आपको अंतिम तक इतिहास के इस रोचक प्रसंग को पढ़ना होगा। असल में कुतुब्दीन ऐबक 1200 ई. के आस-पास लाहौर के शासक मोहम्मद गौरी का गुलाम था। जी हां वही मोहम्मद गौरी जिसे तराइन के पहले युद्ध में पृथ्वीराज चौहान ने मात दी थी। वही गौरी जिसकी छवि एक क्रूर निर्दयी शासक के रूप में थी। खैर, आगे बढ़ते हैं। गौरी का गुलाम रहते कुतुबद्दीन ने अपने मालिक की काफी अच्छी सेवा की थी। उसे बचपन में ही तीरंदाजी, तलवारबाजी, घुड़सवारी और शिक्षा दी गई थी।
कुतुबद्दीन ऐबक ने कम समय में अपने हुनर के चलते मोहम्मद गौरी को प्रभावित कर लिया था। वह दरबार में मौजूद लोगों का चहेता बन चुका था। समय बीता और मोहम्मद गौरी की मौत हो गई। गौरी की मौत के बाद कुतुबद्दीन ऐबक ने खुद को लाहौर का अगला शासक घोषित कर दिया। साल 1206 के जून माह में उसकी ताजपोशी हुई थी। कुतुबद्दीन का शासन 1206 से 1210 तक चला। शासक बनने के बाद असली कहानी शुरू होती है।
लाहौर की गद्दी संभालते ही उसने राजपूतों पर कहर बरपाना शुरू कर दिया। इसी कड़ी में उसने उदयपुर के राजकुमार कर्ण सिंह को बंदी बनाकर अपने साथ लाहौर ले गया। कर्ण सिंह के पास शुभ्रक नामक एक स्वामीभक्त घोड़ा था जो कुतुबद्दीन को पसंद आ गया। कुतुबद्दीन शुभ्रक को भी अपने साथ ले गया। एक दिन कुतुबद्दीन की कैद से कर्ण सिंह को भागने के जुर्म में मौत की सजा सुनाई गई। उस समय कुतुबद्दीन को पोले खेलने का शौक था। सो तय हुआ कि कुंवर साहब कर्ण सिंह को जन्नत बाग लाया जाए। वहां कुतुबद्दीन उनके सिर को काटकर उसी से पोलो खेलेगा। आदेश के अनुसार, कर्ण सिंह को कैदी के भेष में लाहौर के जन्नत बाग लाया गया। वहां कुतुबद्दीन कर्ण सिंह के घोड़े शुभ्रक पर सवार होकर वहां आया।
अपने स्वामी को जंजीरों में जकड़ा देख शुभ्रक से रहा नहीं गया। दुख में उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे। इसके बाद सिर कलम करने के लिए जैसे ही राजकुमार कर्ण सिंह की जंजीरों को खोला गया, शुभ्रक से रहा नहीं गया। उसने झटके में कुतुबद्दीन को नीचे गिरा दिया। शुभ्रक ने कुतुबद्दीन को संभलने का मौका भी नहीं दिया। इसके बाद शुब्रक ने कुतुबद्दीन पर अपनी लात से ताबड़तोड़ वार किए। शुभ्रक के इस ताबड़तोड़ वार से कुतुबद्दीन के प्राण चले गए। कुतुबद्दीन के सैनिक यह सब देखकर हैरान थे। इसके बाद मौका देखकर कर्ण सिंह भी अपने वफादार शुभ्रक पर सवार पर होकर वहां से निकलकर अपने राज में वापस आ गए। शुभ्रक पर सवार होकर कर्ण सिंह लाहौर से उदयपुर बिना रुके वापस आ गए। यहां वहां उन्होंने उतरकर अपने घोड़े शुभ्रक को पुचकारने के लिए जैसे ही हाथ फरा तो पाया कि शुभ्रक एक प्रतिमा बना खड़ा था। उसमें प्राण ही नहीं बचे थे। इतिहास के पन्नों में शुभ्रक का जिक्र शायद ही हुआ हो। हालांकि फारसी पुस्तकों में कुतुबद्दीन ऐबक की मौत ऐसे ही लिखी गई है।