हाल के दिनों में आप ने द्रौपदी का डांडा के बारे में तो जरूर सुना होगा! 48 घंटे से ऊपर हो चुके हैं। उत्तरकाशी के द्रौपदी का डांडा में रेस्क्यू ऑपरेशन जारी है। एडीआरएफ, आईटीबीपी, सेना की गढ़वाल स्काउट्स और खुद NIM ऑपरेशन में लगे हैं। हिमस्खलन में फंसे नेहरू पर्वतारोहण संस्थान के 22 ट्रेनीज अभी भी बर्फ में दबे हैं। जानी-मानी पर्वतारोही सवित कंसवाल, नवमी रावत समेत 9 की मौत की बेहद दुखद खबर आ चुकी है। हालात बेहद मुश्किल हैं। गुजरते वक्त के साथ धड़कनें बढ़ रही हैं। परिजन उत्तरकाशी का रुख कर रहे हैं। द्रौपदी का डांडा से आने वाली हर खबर का सांसें थामकर इंतजार किया जा रहा है। कुदरत के ऐसे कहर में चमत्कार होते रहे हैं। 2016 में 35 फीट बर्फ में दबे लांस नायक हनुमनथप्पा छह दिन बाद जीवित निकल आए थे। हालांकि बाद में वह जिंदगी की जंग हार गए थे। आखिर द्रौपदी के डांडा में चल क्या रहा है? बर्फ में गहरे दबे 22 प्रशिक्षु किस हाल में होंगे? उनके जीवित बचने की कितनी उम्मीद है? यह पूरा रेस्क्यू ऑपरेशन चल कैसे रहा है? कई ऐसे सवाल हैं जो हर कोई जानना चाहता है। पूरे देश की नजरें इस ऑपरेशन पर लगी हैं।
उत्तरकाशी में नेहरू पर्वतारोहण संस्थान हर साल पर्वतारोहण में दिलचस्पी रखने वालों को ट्रेनिंग देता है। इसके एक-एक महीने के बेसिक और अडवांस्ड कोर्स चलते हैं। देशभर से लोग इसमें दाखिला लेते हैं। संस्थान की ट्रेनिंग से निखरकर देश को कई पर्वतारोही मिले हैं। यह देश का अकेला संस्थान है, जहां रेस्क्यू ऑपरेशन की भी ट्रेनिंग दी जाती है। ऐवलॉन्च में दबे ट्रेनीज भी इसी कोर्स का हिस्सा थे। इस हादसे में बचे ट्रेनीज जो बयां कर रहे हैं, वह हिला देने वाला है। ग्रुप में शामिल गुजरात के दीप ठक्कर बताते हैं करीब 60-70 मीटर का स्लैब नीचे आया। इससे सारे ट्रेनीज क्रेवास में गिर गए। पूरा ऐवलॉन्च क्रेवास में ही था। दो इन्स्ट्रक्टर भी वहां गिर गए। दो घंटे हम फंसे रहे। मेरे ऊपर दो डेड बॉडी थी। पहले उनको निकाला फिर मुझे निकाला गया। राजस्थान के अनिल कुमार बताते हैं डीकेडी 2 चढ़ने के लिए गए थे। जहां ऐवलॉन्च की जरा भी आशंका नहीं थी, दल वहीं से आगे बढ़ रहा था। एक छोटा सा ऐवलॉन्च आया और सभी लोग उसकी चपेट में आ गए। हमने इस हादसे पर कर्नल अजय कोठियाल से भी बात की। राजनीति में आने से पहले लंबे समय तक नेहरू पर्वतारोहण संस्थान के प्रिंसिपल रहे कोठियाल के पास ऐसे अभियानों और रेस्क्यू ऑपरेशन्स का अच्छा अनुभव है। उन्होंने उत्तरकाशी में चल रहे बचाव अभियान पर अपने अनुभव साझा किए।
NIM पिछले 47 साल से उत्तरकाशी के द्रौपदी का डांडा में ट्रेनिंग कोर्स चला रहा है। द्रौपदी के डांडा के अभियान पर 41 सदस्यों का यह दल मंगलवार सुबह चार बजे निकला था। सुबह 7 बजकर 55 मिनट पर हिमस्खलन हुआ। द्रौपदी के डांडा में आए इस हिमस्खल से कर्नल कोठियाल खुद हैरान हैं। उनके मुताबिक NIM के इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। यह पीक ट्रेनिंग के लिहाज से सबसे सटीक है। इसीलिए यहां ट्रेनिंग दी जाती है। जिस दिन यह हादसा हुआ, उस दिन धूप खिली हुई थी। मौसम साथ था। लेकिन अचानक यह हादसा हो गया। बुधवार रात NIM से लौटे कोठियाल बताते हैं कि एसडीआरएफ, गढ़वाल स्काउट्स, आईटीबीपी इस रेस्क्यू मिशन में लगे है। हादसे को 48 घंटे से ज्यादा हो चुके हैं। जितनी जानें बचाई जा सकती हैं, इसकी कोशिश चल रही है। कोठियाल बताते हैं कि जिस इलाके में हादसा हुआ है, वहां नेटवर्क नहीं है। सैटलाइट फोन और रेडियो सेट की मदद से ही संपर्क हो पा रहा है। ऑपरेशन कितना चुनौतीपूर्ण है, इससे समझा जा सकता है।
आखिर NIM ट्रेनिंग के लिए द्रौपदी के डांडा को ही क्यों चुनता है, इस पर कोठियाल कहते हैं कि ट्रेनिंग के लिए यह आदर्श चोटी है। ट्रेनीज को इस पीक पर चढ़ाने का यही मकसद रहता है। बेसिक कोर्स में अच्छा प्रदर्शन करने वालों को ए ग्रेडिंग दी जाती है। इन्हीं ट्रेनीज को अडवांस्ड कोर्स में दाखिला मिलता है। 28 दिन के कोर्स में उनको पर्वतारोहण और रेस्क्यू ऑपरेशन के गुर सिखाए जाते हैं। ट्रेनीज को पर्वतारोहण अभियान की प्लैनिंग सिखाई जाती है। कैसे समिट का मैप बनाता है, कितने लोग अभियान में लेने हैं, कैसे चोटी पर चढ़ेंगे, क्या कोडवर्ड होंगे, कौन क्या लेकर चलेगा सभी को इसकी ट्रेनिंग दी जाती है। अंडवांस्ड कोर्स करने के बाद ट्रेनीज पर्वतारोहण के लिए तैयार हो जाता है।
कोठियाल के मुताबिक ग्रुप में शामिल रहे निम के राकेश राणा से उनकी बात हुई। उनके मुताबिक हादसा समिट जाते वक्त हुआ। बर्फ का एक स्लैब अचानक टूट गया। द्रौपदी के डांडा में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। इससे उस पैच में मौजूद रहे ट्रेनीज चपेट में आ गए। हादसे से लगता है कि स्लैब बहुत बड़ा रहा होगा। आखिर यह बर्फ टूटती कैसे है, इस पर कोठियाल बताते हैं कि हिमालय पर बर्फ की निचली परत बेहद सख्त होती है। इसे इस तरह से समझा जा सकता है जैसे फ्रिज वाली आइस। यह परत आमतौर पर टूटती नहीं है। द्रौपदी के डांडा में बर्फ का यही सख्त स्लैब टूट गया। स्लैब के साथ उसके ऊपर गिरी ताजी स्नो भी गिरने लगी और इसने बड़े हिमस्खलन का आकार ले लिया। इस हादसे में बाल बाल बचे NIM के रोहित भट्ट भी यही बात बताते हैं। उनके मुताबिक बर्फ का एक स्लैब अचानक टूटकर गिरा। जिससे सभी ट्रेनीज उसकी चपेट में आ गए। सभी बर्फ की गहरी दरार में गिर गए।
कर्नल कोठियाल कहते हैं कि इस हादसे को 48 घंटे से ऊपर हो गए हैं। रेस्क्यू ऑपरेशन की सफलता कई फैक्टर पर निर्भर करती है। इसमें विल पावर के साथ ही किस्मत भी शामिल है। सबसे बड़ी चिंता इस बात कि है कि बर्फ में फंसे ट्रेनीज के पास ऑक्सीजन पहुंच रही होगी। इसके साथ ही ठोस बर्फ की चपेट में आने से घातक चोट के भी चांस रहते हैं। ठंड लगने के कारण हाइपोथर्मिया का भी खतरा रहता है। वह बताते हैं कि 2010 में वह भी कामेट समिट से पहले मनास्लु में ऐसे ही एक हिमस्खल में दब गए थे। 17 हजार फीट पर उनका कैंप था। ऐवलॉन्च आने की कोई संभावना नहीं थी, लेकिन 19 सितंबर को उनका कैंप इसकी चपेट में आ गया था। कुदरत का कोई भरोसा नहीं रहता है।
कोठियाल के मुताबिक हिमालय पर क्रेवासेज (बर्फ की दरारें) भी कई तरह के होते हैं। कुछ बिल्कुल सीधी खाई जैसे होते हैं। कुछ S के आकार के होते हैं। बर्फ की कुछ दरारें नीचे जाकर दाएं-बाएं मुड़ जाती हैं। ऐसे में बर्फ की दरारों से निकालना बड़ी चुनौती है। इस हादसे में गिरे लोग किस तरह की दरार में गिरे हैं, इस पर भी ऑपरेशन की सफलता निर्भर करती है। हिमस्खलन में ठोस के साथ ताजी बर्फ का सैलाब भी इन दरारों में समा गया है। कोठियाल कहते हैं कि क्रेवास से रेस्क्यू ऑपरेशन मुश्किल जरूर है, लेकिन नामुमकिन नहीं है। वह बताते हैं NIM में ट्रेनीज को क्रेवास से भी रेस्क्यू की ट्रेनिंग दी जाती है। उनको बर्फ की गहरी दरारों में उतारा जाता है। ऐसे भी उम्मीद है कि NIM की कुछ ट्रेनिंग भी उनके काम आ रही हो।