रतन टाटा आज के समय भारत के सबसे सफल व्यक्ति हैं! जनवरी 1998 का एक दिन, जगह प्रगति मैदान। टाटा मोटर्स के चेयरमैन रतन नवल टाटा चमचमाते स्टेज पर चढ़ रहे थे। कुछ देर में वह जो घोषणा करने जा रहे थे, वह टाटा ग्रुप की किस्मत बदलने वाला था। Zen, Ambassador और Maruti 800… इन तीनों की खूबियों से लैस कार पेश की गई, Tata Indica। उसी साल बुकिंग खुली। एक लाख से ज्यादा लोगों ने एडवांस जमा किया। इसके बावजूद टाटा मोटर्स को शुरू में घाटा उठाना पड़ा। फिर तकदीर बदली। Indica बेस्टसेलर मॉडल बन गई। उस कार ने टाटा मोटर्स को नया मुकाम दिया। 2009 में रतन टाटा ने ‘नैनो’ लॉन्च की। 90s और 2000s के शुरुआती सालों में टाटा ग्रुप में जो हिचक थी, उसे दूर करने के लिए रतन टाटा अलग प्लान पर काम कर रहे थे। 1991 में टाटा संस लिमिटेड का चेयरमैन बनने के बाद, रतन टाटा के सफर को चार स्टेज में बांटा जा सकता है। ये चार स्टेज ऐसे हैं जो हर कारोबारी को आगे जाने में मदद कर सकते हैं।
कॉर्नेल यूनिवर्सिटी से आर्किटेक्चर की पढ़ाई करने वाले रतन टाटा 1962 में भारत लौटकर इसीलिए आए थे क्योंकि उनकी दादी बीमार थीं। यहां उन्होंने टाटा स्टील लिमिटेड के जमशेदपुर प्लांट में अप्रेंटिस शुरू की। 1977 में रतन टाटा को जिम्मेदारी मिली मशीन्स कॉर्प्स के दिन बहुराने की। रतन टाटा उसमें सफल रहे लेकिन उन्हें जिस निवेश की जरूरत थी, वो नहीं मिला। मुंबई टेक्सटाइल वर्कर्स की हड़ताल ने कंपनी को और नुकसान पहुंचाया। आखिर 1986 में वह कंपनी बंद कर दी गई। शायद इन असफलताओं के चलते किसी को नहीं लगा था कि रतन टाटा कभी JRD के उत्तराधिकारी बनेंगे। उस वक्त बॉम्बे हाउस टाटा का हेडक्वार्टर में रतन टाटा को बाहरी के रूप में देखा जाता था।
उस वक्त तक ग्रुप की कई कंपनियों को अलग-अलग लोग संभाल रहे थे। उन्हें JRD ने अच्छी-खासी ऑटोनॉमी दे रखी थी। इनमें टाटा स्टील के रूसी मोदी से लेकर टाटा टी और टाटा केमिकस के दरबारी सेठ का नाम था। ताज ग्रुप (इंडियन होटल्स) को देश की बड़ी हॉस्पिटैलिटी चैन बनाने वालो अजीत केरकर हों या TATA की कई कंपनियों के बोर्ड में रहे नानी पालखीवाला… JRD के बाद टाटा संस को संभालने के लिए इनके नाम की चर्चा थी। हालांकि, ऐसा हुआ नहीं। रतन टाटा को कमान सौंपी गई। इसमें कदम का अंदरखाने खूब विरोध हुआ। नए चेयरमैन की राय काफी अलग थी।
टाटा संस की कमान संभालने के बाद रतन टाटा ने शुरुआती साल JRD के क्षत्रपों पर अधिकार स्थापित करने में लगाए। JRD ने ग्रुप में डीसेंट्रलाइज्ड स्ट्रक्चर को बढ़ावा दिया था। इसके बाद रतन टाटा अपनी कंपनियों को और एफिशिएंट बनाने में जुट गए। रतन टाटा की कॉर्पोरेट लाइफ का तीसरा स्टेज ग्लोबलाइजेशन का था।उन्हें JRD ने अच्छी-खासी ऑटोनॉमी दे रखी थी। इनमें टाटा स्टील के रूसी मोदी से लेकर टाटा टी और टाटा केमिकस के दरबारी सेठ का नाम था। ताज ग्रुप (इंडियन होटल्स) को देश की बड़ी हॉस्पिटैलिटी चैन बनाने वालो अजीत केरकर हों या TATA की कई कंपनियों के बोर्ड में रहे नानी पालखीवाला… JRD के बाद टाटा संस को संभालने के लिए इनके नाम की चर्चा थी। हालांकि, ऐसा हुआ नहीं। रतन टाटा को कमान सौंपी गई। इसमें कदम का अंदरखाने खूब विरोध हुआ। नए चेयरमैन की राय काफी अलग थी। कॉर्नेल यूनिवर्सिटी से आर्किटेक्चर की पढ़ाई करने वाले रतन टाटा 1962 में भारत लौटकर इसीलिए आए थे क्योंकि उनकी दादी बीमार थीं।
यहां उन्होंने टाटा स्टील लिमिटेड के जमशेदपुर प्लांट में अप्रेंटिस शुरू की। 1977 में रतन टाटा को जिम्मेदारी मिली मशीन्स कॉर्प्स के दिन बहुराने की। रतन टाटा उसमें सफल रहे लेकिन उन्हें जिस निवेश की जरूरत थी, वो नहीं मिला। मुंबई टेक्सटाइल वर्कर्स की हड़ताल ने कंपनी को और नुकसान पहुंचाया। आखिर 1986 में वह कंपनी बंद कर दी गई। शायद इन असफलताओं के चलते किसी को नहीं लगा था कि रतन टाटा कभी JRD के उत्तराधिकारी बनेंगे। उस वक्त बॉम्बे हाउस टाटा का हेडक्वार्टर में रतन टाटा को बाहरी के रूप में देखा जाता था। आज की तारीख में टाटा ग्रुप का लगभग 58% रेवेन्यू ग्लोबल ऑपरेशंस से आता है। चौथा स्टेज था इनोवेशन का। रतन टाटा की ही विरासत है कि दूसरा, तीसरा और चौथा स्टेज आज भी जारी है। टाटा ग्रुप और रतन टाटा की कहानी ग्रोथ और कॉम्पटीशन की है, प्रोडक्टिविटी और एफिशिएंसी की है, ग्लोबलाइजेशन और इनोवेशन की है।