आज हम आपको बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने वाले जज केएम पांडेय की कहानी सुनाने जा रहे हैं! राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह की जोर-शोर से तैयारी है। 22 जनवरी को लेकर अयोध्या दुल्हन की तरह सजाई जा रही है। समारोह काे लेकर लोगों को खूब उत्साह देखा जा रहा है। सियासी दल भी अपने-अपने हिसाब से राजनीति करने में व्यस्त हैं। इस बीच राम मंदिर आंदोलन की चर्चा खूब है। देश भर के तमाम कारसेवक अपनी कहानियां बता रहे हैं। कोई दशकों के उपवास के बाद राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा के साथ अन्न ग्रहण करने की तैयारी कर रहा है तो कई दर्शन के लिए पैदल ही अयोध्या रवाना हो चुके हैं। इसी बीच मंदिर आंदोलन की अहम कड़ी बाबरी मस्जिद का ताला खुलने के जिला जज के फैसले और उसके बाद के घटनाक्रम की कहानी आपको बताते हैं। बताते हैं कि कैसे इस फैसले के पीछे एक काला बंदर था? फिर उन जज कृष्ण मोहन पांडेय केएम पांडेय का क्या हुआ? वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा अपनी किताब “युद्ध में अयोध्या” में लिखते हैं कि 28 जनवरी 1986 को फैजाबाद के मुंसिफ मजिस्ट्रेट हरि शंकर दुबे, एक वकील उमेश चंद्र पांडेय की राम जन्मभूमि का ताला खोलने की मांग करने वाली अर्जी को खारिज कर देते हैं। दो दिन बाद ही फैजाबाद के जिला जज कृष्ण मोहन पांडेय की अदालत में पहले से चल रहे मुकदमा संख्या 2/1949 में उमेश चंद्र पांडेय एक दूसरी अर्जी दाखिल करते हैं। जिला जज बेहद तेज रफ्तार से दूसरे ही रोज जिला कलेक्टर और पुलिस कप्तान को तलब कर उनसे इस सवाल पर प्रशासन की मंशा पूछते हैं। इस मामले पर हलफनामा देने की बजाए इन दोनों अफसरों ने मौखिक जवाब दिया कि ताला खाेलने से कोई गड़बड़ी नहीं होगी। न ही कानून और व्यवस्था की कोई समस्या खड़ी होगी। दरअसल यह फैसला जिला प्रशासन के जरिए केंद्र सरकार का था, जिसे राज्य और जिला प्रशासन लागू करा रहा था। दोनों अफसरों के इस बयान से जज को फैसला लेने में आसानी हुई।
वह आगे लिखते हैं कि बाबरी मस्जिद पर मुसलमानों के कानूनी दावे का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील मुश्ताक अहमद सिद्दीकी ने इस अर्जी पर अदालत से अपनी बात रखने की पेशकश की थी। जज ने कहा, उन्हें सुना जाएगा। लेकिन उन्हें बिना सुने ही उसी शाम 4 बजकर 40 मिनट पर जज साहब ने फैसला सुना दिया। इस फैसले में कहा गया, “अपील की इजाजत दी जाती है। प्रतिवादियों को गेट संख्या ओ और पी पर लगे ताले तुरंत खोले जाने का निर्देश दिया जाता है। प्रतिवादी आवेदक और उनके समुदाय को दर्शन और पूजा आदि में कोई अड़चन या बाधा नहीं डालेंगे।” दरअसल इस इमारत के दो गेट थे, जिसमें जिला प्रशासन ने अपनी सुविधा के लिए गेट के नाम ओ और पी रखे थे। जिला जज के फैसले के फौरन बाद डीएम और एसएसपी जिला जज को पहुंचाने उनके घर जाते हैं। उनकी सुरक्षा बढ़ा दी जाती है। फिर 40 मिनट के अंदर ही पुलिस की मौजूदगी में ताला तोड़ दिया जाता है और अंदर पूजा-पाठ, कीर्तन शुरू हो जाता है। दिलचस्प बात ये है कि जज साहब के इस फैसले के पीछे भावना, आस्था और भगवान के रूप में एक बंदर भी था।
किताब में आगे लिखा गया है कि जज कृष्ण मोहन पांडेय धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। वह काशी हिंदू विश्वविद्यालय से कानून में स्नातक थे और पीसीएस ज्यूडिशियल परीक्षा 1959 के टाॅपर थे। 1960 में वह एडिशनल मुंसिफ के तौर पर उन्होंने नौकरी शुरू की थी। 17 अगस्त 1985 को वह फैजाबाद के जिला जज बने। ताला खुलवाने के फैसले का असर उन्हें अपने कॅरियर में भी काफी झेलना पड़ा। फैसले के बाद उन्हें स्टेट ट्रांसपोर्ट अपील प्राधिकरण में चेयरमैन पद पर भेज दिया गया। यही नहीं जब उनके हाईकोर्ट जज बनने की बात चली तो वीपी सिंह सरकार ने पेंच फंसा दिया। उनकी फाइल में प्रतिकूल टिप्पणी कर दी गई।
वहीं दूसरी तरफ मुलायम सिंह यादव ने भी उनके हाईकोर्ट का जज बनने का विरोध किया। फिर केंद्र में चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने और डॉ सुब्रहमण्यम स्वामी उनकी सरकार में कानून मंत्री बने। स्वामी के अनुसार वीपी सिंह और उनके समय के ताकतवर अधिकारी रहे भूरेलाल केएम पांडेय को हाईकोर्ट का जज बनाने के खिलाफ थे। वहीं मुलायम सिंह यादव भी उन्हें जज नहीं बनने देना चाहते थे। उनकी फाइल में राज्य सरकार ने लिख दिया कि इन्होंने 1986 में बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाने का विवादित फैसला दिया था इसलिए इन्हें हाईकोर्ट में जज नहीं बनाया जाए। लेकिन सुब्रहमण्यम स्वामी ने केएम पांडेय की फाइल फिर से खोली और काफी कोशिश की बाद आखिरकार केएम पांडेय 24 जनवरी 1991 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज बने। लेकिन एक महीने बाद ही उनका 22 जनवरी 1991 को ट्रांसफर मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के लिए कर दिया गया।