आज हम आपको आजादी के लिए मर मिटने वाले खुदीराम बोस की कहानी सुनाने जा रहे हैं! आप में से कई लोग 18 की उम्र को पार कर गए होंगे, कई 18 वसंत देख चुके होंगे या कई ऐसे होंगे जो 18 साल के होने वाले होंगे। इस उम्र तक आते-आते कई लोग या तो 12वीं की परीक्षा पासकर कॉलेज चुनने में, प्रतियोगी परीक्षाएं देने में लग जाते हैं या तो किसी अच्छे कॉलेज में दाखिला ले चुके होते हैं। लेकिन, देश के इतिहास के पन्नों में एक ऐसा युवक भी था जो हंसते-हंसते भारत माता की रक्षा के लिए फांसी के फंदे पर झूल गया था। भारत इस महीने की 15 तारीख को अपना 77वां स्वतंत्रता दिवस मनाएगा। पहली कड़ी में हम 18 साल के नौजवान खुदीराम बोस की कहानी बताएंगे। एक ऐसा क्रांतिकारी जिसने अपने जोश-ए-जुनून से ब्रितानी हुकुमत की चूलें हिला दी थीं। कहानी खुदीराम बोस के बहादुरी और पराक्रम की जिसे सुनकर या पढ़कर आज का नौजवान जोश से ओत-प्रोत हो जाएगा। खुदीराम बोस का जन्म पश्चिम बंगाल के मेदनीपुर जिले में 3 दिसंबर 1889 को त्रिलोक्यपुरी बोस और लक्ष्मीप्रिया के घर हुआ। खुदीराम के जन्म से पहले उनके माता-पिता ने दो बेटों को बीमारी के चलते खोया था। इस बार खुदीराम के रूप में तीसरी संतान हुई तो डर स्वाभाविक था। खुदीराम बोस को बचाने के लिए एक टोटका किया गया। खुदीराम को बुरी नजर से बचाने के लिए यह टोटका किया गया। बड़ी बहन ने टोटके के रूप में चावल देकर खुदीराम को खरीदा। चूंकि वहां चावल को खुदी कहा जाता था सो उस दिन के बाद से उनका नाम खुदीराम पड़ गया।
जिस उम्र में लड़के किताबों की दुनिया स्कूली जीवन में मस्त रहते हैं उस उम्र में खुदीराम बोस अंग्रेजों के खिलाफ लोहा लेने उतर गए। उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ पर्चे बांटने में लगा दिया गया। यह बात थी साल 1906 की। एक और क्रांतिकारी सत्येंद्रनाथ बोस ने वंदे मातरम लिखकर अंग्रेजी शासन के विरोध में पर्चे बंटवाने की जिम्मेदारी दी। मिदनापुर में आयोजित एक मेले में इस पर्चे को बंटवाने का प्लान था। अंग्रेजों को इस बात का पता चल गया। अंग्रेजों के पिट्ठुओं ने इसकी खबर दे दी। खुदीराम बोस को देखते ही उन्हें पकड़ने का प्रयास हुआ। लेकिन, खुदीराम ने अंग्रेज अफसर के मुंह पर घूंसा जड़ दिया। हालांकि कई अंग्रेज सिपाही होने के चलते उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। और पहली बार देश के लिए खुदीराम गिरफ्तार हुए। उन दिनों जिला जज हुआ करते थे डगलस किंग्सफोर्ड। इस जज को भारतीयों को सख्त नफरत थी। सजा के नाम पर भारतीयों पर कोडे़ बरसाने की सजा दी जाती थी। 15 साल के खुदीराम को जज ने 15 कोड़े मारने की सजा सुनाई थी। इस जज ने भारतीयों पर अत्याचार मचा रखा था। आखिर में इस जज को मारने का प्लान बनाया गया।
जज डगलस किंग्सफोर्ड को मारने के लिए प्लान बनाया गया। इसकी जिम्मेदारी खुदीराम बोस और उनके साथियों को दी गई। तरीख चुनी गई 8 अप्रैल 1908। 17 साल के खुदीराम बोस औऱ फ्रफुल्ल चाकी ने पहले एक पार्सल में बम छिपाकर डगलस को मारने की योजना थी। लेकिन, किसी कारण किंग्सफोर्ड ने वो पार्सल नहीं खोला और वह प्लान फेल हो गया। जज किंग्सफोर्ड की जगह एक कर्मचारी घायल हो गया। इसके बाद किंग्सफोर्ड ने अपना तबादला बंगाल की जगह बिहार के मुजफ्फरपुर करवा लिया। खुदीराम बोस और प्रफुल्ल पटेल को युगांतकारी संगठन ने मदद की। संगठन ने दोनों को पिस्तौल और कारतूस देकर बिहार भेज दिया। खुदीराम बोस की जीवनी लिखने वाले लक्ष्मेंद्र चोपड़ा बताते हैं कि 18 अप्रैल 1908 को खुदीराम और प्रफुल्ल मिशन के तहत बिहार के मुजफ्फरपुर पहुंचे। दोनों ने किंग्सफोर्ड की दिनचर्या और आवास पर नजर रखना शुरू कर दिया। दोनों जवान एक धर्मशाला में ठहरे। इस बीच खूफिया सूत्रों से पता चला कि किंग्सफोर्ड पर हमला हो सकता है सो उनकी सुरक्षा बढ़ा दी गई।
भगत सिंह के पहले खुदीराम बोस थे जो इतनी कम उम्र में फांसी की तख्त पर झूल गए थे। खुदीराम बोस को हमले का दोषी मानकर मुजफ्फरपुर के जिला मजिस्ट्रेट लाया गया। वहां उनके सामने साथी प्रफुल्ल चाकी के शव को भी रखा गया। प्रफुल्ल चाकी ने खुद को गोली मार ली थी। खुदीराम बोस ने अपने साथी के शव की पहचान कर ली और यह तय हो गया कि यही दोनों थे जिन्होंने जज डगलस किंग्सफोर्ड पर हमला किया था। इसके बाद खुदीराम बोस पर अपर सत्र न्यायाधीश एच डब्सू कॉर्नडफ की अदालत में हत्या का मुकदमा चला। खुदीराम के समर्थन में लोग वंदे मातरम और जिंदाबाद के नारे लगाते देखे गए थे। एक महीने तक चले मुकदमे के बाद अदालत ने खुदीराम बोस को फांसी की सजा सुनाई। इसके साथ ही एक महान क्रांतिकारी और 18 साल के नौजवान ने देश की रक्षा के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए। खुदीराम की तारीफ में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने उनकी शहादत पर अनेकों लेख लिखे थे।