आज हम आपको महाराजा यशवंतराव होलकर की कहानी सुनाने जा रहे है! 19वीं सदी आते-आते भारत के कई राजा ब्रिटिश साम्राज्य का आधिपत्य स्वीकार चुके थे। मुगल बेहद कमजोर पड़ गए थे और अंग्रेजों का अकेले सामना उनके बस से बाहर की बात थी। ब्रिटिश तमाम प्रलोभन देकर भारतीय राजाओं से संधियां कर रहे थे। शांति की बात करते और पूरा का पूरा राज्य हड़प लेते। उस दौर में इंदौर का एक नौजवान महाराजा आगे आता है, अंग्रेजों के खिलाफ राजाओं को एकजुट करना शुरू करता है। नाम था यशवंतराव होलकर। महाराजा यशवंतराव को अंग्रेजों की चाल खूब समझ आ रही थी। जब ज्यादातर राजाओं ने ईस्ट इंडिया कंपनी के आगे घुटने टेक दिए तब यशवंतराव ने अकेले ही अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकने की ठानी। अंग्रेजों ने हार का स्वाद चखा तब उन्हें समझ आया कि इस बार कोई आम राजा सामने नहीं है। भारत में ब्रिटिश हुकूमत के इतिहास में ऐसे राजा विरले ही हुए जिनके आगे अंग्रेजों की एक न चली। महाराजा यशवंतराव उन्हीं में से एक थे। महाराजा यशवंतराव होलकर इकलौते ऐसे राजा था जिनके पास अंग्रेज शांति का समझौता लेकर पहुंचे तो बराबरी की शर्तों पर। संधि के बावजूद अंग्रेजों को हटाने का इरादा नहीं डिगा। कलकत्ता पर हमले के लिए एक लाख सैनिकों की फौज खड़ी कर दी। हालांकि, अकाल मृत्यु ने भारत से एक ऐसा राजा छीन लिया जो शायद उसे गुलामी की जंजीरों से काफी पहले मुक्त करा सकता था। इतिहासकार उन्हें ‘भारत के नेपोलियन’ की संज्ञा देते हैं।
18वीं सदी के आखिरी दशक में इंदौर राज्य में खूब उथलपुथल हुई। उस वक्त वहां तुकोजीराव होलकर का राज था मगर तूती बोलती थी चार बेटों मे से दूसरे नंबर के मल्हरराव द्वितीय होलकर की। वैसे तो तुकोजीराव के सबसे बड़े बेटे काशीराव होलकर उत्तराधिकारी थे मगर उनकी क्षमता पर संदेह करने वाले कम नहीं थे। राज्य के भविष्य को ध्यान में रख मल्हरराव ने गद्दी के लिए दावेदारी पेश की। छोटे भाइयों- यशवंतराव और विठोजीराव ने समर्थन किया। मल्हरराव की लोकप्रियता बढ़ रही थी। काशीराव ने खतरा भांपकर सिंधिया राजघराने से मदद मांगी। उस वक्त तक होलकर और सिंधिया घराने में बिल्कुल नहीं बनती थी। दौलतराव सिंधिया ने अचानक मल्हरराव की हत्या करवा दी। उनकी गर्भवती पत्नी जीजाबाई और यशवंतराव की बेटी भीमाबाई होलकर को बंदी बना लिया गया।
पेशवा बाजीराव द्वितीय के मंत्री नाना फडणवीस ने सिंधिया की इस हरकत का खुलकर विरोध किया तो उन्हें भी जेल में ठूंस दिया गया। यशवंतराव ने नागपुर में राघोजी द्वितीय भोसले के यहां शरण ली। सिंधिया को भनक लगी तो उन्होंने राघोजी से यशवंतराव को गिरफ्तार करने को कहा। राघोजी ने वैसा ही किया और 20 फरवरी 1798 को यशवंतराव को उन्हें शरण देने वाले ने ही बंदी बना लिया। भवानी शंकर खत्री की मदद से यशवंतराव 6 अप्रैल 1798 को नागपुर से भाग निकले। इतना छल-प्रपंच देख चुकने के बाद यशवंतराव ने फिर किसी पर विश्वास नहीं किया।
इंदौर में यशवंतराव होलकर का खेमा मजबूत हो रहा था। दिसंबर 1798 में उन्होंने महेश्वर पर कब्जा किया और अगले महीने राजतिलक हुआ। इधर, विठोजीराव होलकर ने पेशवाई के लिए अमृतराव पर दांव खेला। विठोजीराव का कहना था कि बाजीराव द्वितीय से कहीं ज्यादा बेहतर पेशवा अमृतराव साबित होंगे। अप्रैल 1801 में बाजीराव ने विठोजीराव को गिरफ्तार करवा के पुणे में पेश करवाया। हाथी के पैरों तले कुचले जाने की सजा सुनाई। उस वक्त पेशवा से कई लोगों ने कहा कि ऐसा न करें अन्यथा मराठा साम्राज्य बिखर जाएगा। पेशवा नहीं माने। यशवंतराव होलकर को यह सब पता चला तो उन्होंने भाई की मौत का बदला लेने की कसम खाई।
बदले की आग में जल रहे यशवंतराव ने सबसे पहले सिंधिया की राजधानी उज्जैन पर हमला बोला। होलकर की सेना ने उज्जैन के सैनिकों में कहर बरपा दिया। उज्जैन के करीब तीन हजार सैनिक मारे गए। सिंधिया राजघराने की करारी हार हुई। होलकर का अगला निशाना थे पेशवा। मई 1802 में होलकर ने पूना के लिए कूच किया। सेंधवा, मालेगांव, अहमदनगर, बारामती… एक-एक कर छोटी रियासतों पर होलकर जीत दर्ज करते गए। पूना की लड़ाई हुई दीपावली के दिन। हडपसर में सिंधिया और पेशवा की सेना एक तरफ थी और यशवंतराव होलकर की सेना दूसरी तरफ। होलकर ने सेना को आदेश दिया कि जबतक दुश्मन 25 गोले न दाग ले, तब तक आक्रमण न किया जाए। 25 गोले दागे जाते ही हमले का इशारा हुआ। सिंधिया और पेशवा की संयुक्त सेना भी होलकर की चतुराई के आगे नहीं टिक पाई।
पेशवा को पता चला तो वे पूना से भाग गए। अंग्रेजो को पेशवा की मदद करना रणनीतिक रूप से सही लगा क्योंकि यशवंतराव का अगला निशाना या तो ईस्ट इंडिया कंपनी के कब्जे वाले इलाके होते या उसके सहयोगी हैदराबाद के निजाम। दिसंबर 1802 में पेशवा ने अंग्रेजों से संधि कर ली। मगर पूना पर तो होलकर का राज था। यशवंतहार ने अमृतराव को पेशवा नियुक्त किया। अंग्रेजों ने मई 1803 में बाजीराव द्वितीय को फिर पेशवा बनाया मगर जल्द ही बाजीराव समझ गए कि अब वे नाम के पेशवा रह गए हैं। अगस्त 1803 में अमृतराव ने पेशवाई पर दावा छोड़ दिया। वे 7 लाख रुपये सालाना पेंशन और बांदा में जागीर मिलने पर अंग्रेजों से मिलकर रहने को राजी हो गए।
पेशवा बाजीराव द्वितीय के साथ जो हुआ, अंग्रेज वैसा ही बाकी राज्यों में भी कर चुके/रहे थे। यशवंतराव होलकर उनकी यह चाल समझते थे। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होकर लड़ने के लिए कई राजाओं को लिखा। लेकिन ज्यादातर राजा पहले ही अंग्रेजो के साथ संधि कर चुके थे। अप्रैल 1804 में अंग्रेज जनरल जॉर्ज वेलेस्ली के हाथ यशवंतराव का ऐसा ही एक पत्र लग गया। वेलेस्ली ने युद्ध की रणभेरी बजाने में देर नहीं की मगर जल्द ही समझ गए कि यशवंतराव होलकर से मुकाबला आसान नहीं। कर्नल मैंसन, कर्नल फॉसेट… जून 1804 से लेकर सितंबर 1804 के बीच होलकर ने अंग्रेजों के खिलाफ कई लड़ाइयां जीतीं। अक्टूबर 1804 में होलकर ने दिल्ली की तरफ कदम बढ़ाए। दिल्ली में मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय का राज था जिन्हों अंग्रेजों ने मराठाओं की तरह पंगु कर दिया था। अंग्रेजी सेना की मदद को शाह आलम ने सेना भेजी तो यशवंतराव ने युद्ध टाल दिया। लेकिन उनकी बहादुरी देख मुगल बादशाह ने यशवंतराव को ‘महाराजाधिराज राज राजेश्वर अलिजा बहादुर’ की उपाधि प्रदान की।
यशवंतराव की सेना अब राजस्थान की ओर बढ़ी। डीग में मेजर फ्रेजर की सेना को हराया और भरतपुर के जाट राजा रणजीत सिंह ने खुले हाथों से यशवंतराव का स्वागत किया। यशवंतराव होलकर और रणजीत सिंह ने हाथ मिलाया और अंग्रेजों से मुकाबले की तैयारी में जुट गए। अगले डेढ़ महीने तक ऐसी लड़ाई होनी थी जिसकी तुलना कवियों ने महाभारत के युद्ध से की है। जनवरी 1805 में अंग्रेजों ने हमला किया मगर इधर से मुंहतोड़ जवाब मिला। चार-चार बार अंग्रेजों ने कोशिश की मगर होलकर और सिंह की सेना ने उन्हें खदेड़ दिया। हालांकि, अप्रैल 1805 में रणजीत सिंह ने अंग्रेजों की पेशकश मान ली। नतीजा, यशवंतराव को भरतपुर छोड़ना पड़ा।
लंदन में बैठी ब्रिटिश हुकूमत समझ रही थी कि महाराजा यशवंतराव होलकर को रोकना उनके लिए खासा मुश्किल है। ऐसे में लॉर्ड वेलेस्ली की जगह लॉर्ड कॉनवालिस को गवर्नर-जनरल बनाकर भेजा गया। उन्होंने आते ही मिलिट्री कमांडर लॉर्ड लेक को लिखा कि यशवंतराव होलकर की सारी रियासत उन्हें वापस कर दी जाए और वह शांति स्थापित करने को तैयार हैं। यह पहला और शायद इकलौता मौका था जब अंग्रेज किसी भारतीय राजा के पास बराबरी की शर्तें लेकर संधि करने पहुंचे थे। फिर भी यशवंतराव ने अंग्रेजों से संधि करने से इनकार कर दिया। लॉर्ड कॉर्नवालिस की अचानक मृत्यु के बाद आए जॉर्ज बारलो भी मानते थे कि सिंधिया-होलकर का एक रहना अंग्रेजों के लिए ठीक नहीं। अंग्रेजों ने नवंबर 1805 में दौलतराव सिंधिया से संधि कर ली तो यशवंतराव अकेले पड़ गए।
यशवंतराव इस कोशिश में लगे रहे कि मराठा साम्राज्य एकजुट हो जाए। उन्होंने दौलतराव सिंधिया को इस बारे में पत्र भी लिखा मगर सिंधिया ने अंग्रेजों को बता दिया। आखिरकार महाराजा ने अकेले ही अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने की ठानी। वह खुद भानपुरा में रहकर तोपें तैयार करने में जुट गए। दिन-रात काम चल रहा था। कलकत्ता कूच करने को 200 से ज्यादा तोपें और एक लाख सैनिक तैयार थे। मगर काम के दबाव और भतीजों की अकस्मात मौत ने महाराजा यशवंतराव होलकर को गहरी चोट दी। 27 अक्टूबर 1811 को उनकी अचानक मृत्यु हो गई। उस वक्त उनकी आयु सिर्फ 35 साल थी।