आज हम आपको लखनवी टुंडे कबाब की अजीबोगरीब कहानी सुनाने जा रहे हैं! अमीनाबाद की गलियों से गुजरते हुए अगर कोई सुगंध आपको अपनी ओर खींचे और सीधे दिल पर दस्तक दे दे तो समझ लीजिए आप टुंडे कबाब में हैं। जी हां, यही खासियत है करीब 117 साल पुराने इस कबाब की, जो आज भी लखनऊ समेत देश-दुनिया के लोगों को अपना दीवाना बना रही है। नवाब के महल से निकाल कर आम लोगों के बीच कबाब को लोकप्रिय बनाने में टुंडे कबाब के योगदान को कौन भुला सकता है। स्वाद और सुगंध एक शताब्दी से अधिक बीतने के बाद भी वही है, जैसा पहले हुआ करता था। मशालों के कॉम्बिनेशन को ऐसा सेक्रेट रखा गया है, जिसने प्रतिद्वंद्वियों के लिए राह कभी भी आसान नहीं बनने दी। भोपाल के नवाबों के शाही महल से लखनऊ की गलियों तक जिस मसालों के साथ कबाब बनाने की रेसिपी के साथ हाजी मुराद अली आए थे। उस गलावती कबाब की रेसिपी को संरक्षित और संवर्धित करने में रईस अहमद कामयाब रहे। हाजी मुराद अली 100 जड़ी-बूटी और मुंह में पिघल जाने वाले गलावती कबाब की रेसिपी के साथ वर्ष 1900 के दशक में लखनऊ आए थे। फिर लखनऊ से टुंडे कबाब जुड़ गया। अपनी पहचान बनाई। स्वाद के दीवानों को अपना कायल बनाया और जो सफर चला, वह बदस्तूर जारी है। आज टुंडे कबाब बंद है। उदास है। कारण, टुंडे कबाब की दूसरी पीढ़ी यानी हाजी मुराद के पुत्र रईस अहमद का निधन शुक्रवार की दिल का दौरा पड़ने से हो गया। शनिवार को टुडे कबाब को उनकी याद में बंद रखा गया है। लोग स्वाद के जादूगर को नम आंखों से याद कर रहे हैं।
भोपाल के शाही महलों में हाजी मुराद अली खानसामे का कार्य करते थे। 1900 के करीब उन्होंने लखनऊ का रुख किया। वर्ष 1905 में उन्होंने लखनऊ पुराने शहर में एक छोटी सी दुकान खोली। रसीले कबाबों की सुगंध और स्वाद ने लोगों की जुबान को अपना दीवाना बनाना शुरू किया। इसके बाद यह कबाब टुंडे के नाम से मशहूर होने लगा। इसके पीछे की कहानी काफी रोचक है। दरअसल, हाजी मुराद अली का एक हाथ नहीं था। हाजी मुराद अली पतंग उड़ाने के बेहद शौकीन थे। एक बार पतंग उड़ाते समय उनका एक हाथ घायल हो गया था। इसकी वजह से उन्हें अपना घायल हुए हाथ कटवाना पड़ गया। हाथ कटने के बाद हाजी साहब अपनी दुकान पर बैठने लगे, लेकिन इस दौरान जो भी दुकान पर कबाब खाने आता तो उन्हें एक हाथ न होने की वजह से टुंडे कहकर बुलाता था। बस यहीं से टुंडे कबाब को एक नई पहचान मिल गई, जो आज के समय में दुनियाभर में मशहूर है।
हाजी मुराद अली के एक हाथ से बनाया हुआ कबाब लोकप्रिय होने लगा तो हर कोई इसका नाम टुंडे कबाब कहा जाने लगा। बाद में यह एक ब्रांड बन गया। हाजी मुराद अली ने अपने पूरे जीवन कबाब के स्वाद को कभी कम नहीं होने दिया। गुणवत्ता से समझौता नहीं किया। रईस अहमद के सामने पिता के स्वाद को बरकरार रखने की चुनौती थी। वे योग्य उत्तराधिकारी साबित हुए। उनके बेटे उस्मान अहमद कहते हैं कि हमारे पिता परिवार के सदस्यों और कर्मचारियों से गुणवत्ता या स्वाद में कोई समझौता नहीं करने की चेतावनी देते थे। रईस ने मुराद अली की न केवल प्रतिष्ठा बढ़ाई, बल्कि स्वाद के दीवानों के बीच टुंडे कबाब की प्रतिष्ठा को बढ़ाया। कबाब किंग तक के रूप में उन्हें जाना जाता था।
कबाब का इतिहास काफी पुराना है। भले ही हाजी मुराद अली अपनी रेसिपी के साथ वर्ष 1905 में लखनऊ की सड़कों पर आए हों। इससे भी करीब एक शताब्दी पहले इसकी खोज की गई थी। दरअसल, रईस अहमद के पुरखे भोपाल के नवाब के यहां खानसामा थे। बताते हैं नवाब साहब खाने के बहुत शौकीन थे। यही वजह थी कि जब नवाब साहब और उनकी बेगम बूढ़े हुए तो उन्हें नॉनवेज खाने में परेशानी होने लगी। उस समय उनके लिए ऐसे कबाब बनाये गए, जो मुंह में रखते ही घुल जाएं। यानी, जिन्हें बिना दांतों के ही आसानी से खाया जा सके। इसके स्वाद के लिए चुन-चुन कर विशेष मसाले डाले जाते हैं। इसके कुछ साल बाद ही हाजी परिवार भोपाल से लखनऊ आ गया था। यहां लखनऊ में अकबरी गेट के पास गली में सबसे पहली छोटी सी दुकान खोली थी।
टुंडे कबाब को लोग स्वाद की वजह से बहुत पसंद करते हैं। इसका कारण है कि इसे खाने वालों को टुंडे के कबाब जैसा स्वाद कहीं दूसरी जगह नहीं मिलता है। बताया जाता है कि टुंडे कबाब में आज भी 100 साल पुराने मसालों का ही उपयोग किया जाता है। कबाबों में वही मसाले इस्तेमाल किए जाते हैं, जो कबाबों को हजम करने में मदद करती हैं। हाजी परिवार के सदस्य उस्मान बताते हैं कि नॉनवेज आसानी से नहीं पचता, लेकिन हमारे कबाब आसानी से पच जाते हैं। इनमें डाले जाने वाले कुछ मसाले ईरान से मंगाए जाते हैं। मसालों को हाजी साहब के परिवार के सदस्य ही तैयार करते हैं। महीनेभर का मसाला एक साथ पीसकर तैयार किया जाता है।
कबाब बनाने की विधि को हाजी साहब के परिवार के कुछ लोगों को छोड़कर दूसरा कोई नहीं जानता। यही इनका ट्रेड सीक्रेट है। टुंडे कबाब के आउटलेट्स लखनऊ में चौक स्थित अकबरीगेट, अमीनाबाद और अब कपूरथला में मौजूद हैं। मसाले आज तक रहस्य हैं, इस कारण इसकी नकल करने वालों को इसका स्वाद हासिल करने में सफलता नहीं मिलती है। रईस के परिजन कहते हैं कि यह हमारे लिए लखनऊ के लिए प्यार की सु्गंध थी, जिसने हमें दुनिया भर तक पहुंचाया।
लखनऊ के 125 साल पुराने टुंडे कबाब की दुकान के मालिक हाजी रईस अहमद का दिल का दौरा पड़ने से शुक्रवार की शाम निधन हो गया है। वे करीब 90 साल के थे। रईस के निधन के बाद शहर के सभी टुंडे कबाब की दुकानों को आज बंद रखने का निर्णय लिया गया है। स्वाद के दीवानों ने भी रईस के निधन पर दुख जताया है। टुंडे कबाब के बारे में एक बात जो हर कोई कहता है कि एक बार यहां का स्वाद लिया और आप कितने साल भी बीत जाए, यहां आएंगे। खाएंगे तो वही स्वाद पाएंगे। रईस अहमद ने इस उपलब्धि को बरकरार रखा। पिता की विरासत को आगे बढ़ाया। 1905 में हाजी मुराद अली की ओर से शुरू की गई विरासत को अब उस्मान अहमद आगे बढ़ाएंगे। हाजी मुराद की परंपरा को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाई जा रही है। लोगों को टुंडे कबाब का जायका दे रही है। लेकिन, आज टुंडे कबाब अपने रईस के निधन से दुखी है।