Friday, September 20, 2024
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जानिए अलग-अलग अभिनेताओं के अनकहे किस्से!

आज हम आपको अलग-अलग अभिनेताओं के अनकहे किस्से बताने जा रहे हैं! एक फिल्मी डायलॉग है कि अगर आपका चाहने वाला दूर जाए तो उसे जाने दो, अगर वो लौटकर आए तो वो तुम्हारा है। रंगमंच यानी थिएटर के लिए यह बात सटीक बैठती है। ज्यादातर नए कलाकार जहां थिएटर को फिल्मों तक पहुंचने के लिए महज एक पायदान मानते हैं, वहीं रंगमंच के कई चाहने वाले ऐसे भी हैं जो फिल्मों में खूब नाम और दाम कमाने के बाद भी इसका हाथ थामे हुए हैं। विश्व रंगमंच दिवस के मौके पर हमने थिएटर के ऐसे ही सच्चे साधकों से जाना कि रंगमंच उनके लिए क्या मायने रखता है। बचपन से ही क्लासिकल डांस और म्यूजिक के साथ-साथ मशहूर रंगकर्मी सत्यजीत दुबे की शागिर्दी में थिएटर सीखने वाली ऐक्ट्रेस सोनाली कुलकर्णी फिल्मों में नाम कमाने के बाद भी थिएटर से जुड़ी हुई हैं। टेलीप्ले रहेंगे सदा गर्दिश में तारे के लिए तारीफें बटोरने वाली सोनाली कहती हैं, ‘फिल्माें में शोहरत, ग्लैमर, पैसे हैं पर थिएटर में काम करने का जो मजा है, वो कहीं और नहीं है। थिएटर में रोजाना जो रिहर्सल होती है, वो ऐक्टर के लिए खुद को संवारने वाले वर्कशॉप जैसी है। वहां रोल की तैयारी के लिए जो रियाज होता है, वो फिल्म के लिए शॉट देने से बहुत अलग होता है। फिर, लाइव ऑडियंस के सामने परफॉर्म करने और तुरंत उनका रिएक्शन पाने की जो फीलिंग होती है, उसका किसी चीज से कोई मुकाबला ही नहीं है। थिएटर आपको समृद्ध करता है।’

शी और आश्रम जैसी वेब सीरीज से चर्चा बटोरने वाली ऐक्ट्रेस अदिति पोहन्कर का नाटक टाइपकास्ट भी काफी पसंद किया जाता है। थिएटर से अपने रिश्ते के बारे में अदिति बताती हैं, ‘मेरे थिएटर से जुड़ने और ऐक्टर बनने की बड़ी रोचक कहानी है। मेरी मम्मी टीचर थीं। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं तुम्हें होर्डिंग पर देखना चाहती हूं। उनका मतलब, जो टॉपर स्टूडेंट्स की फोटो होर्डिंग पे आती हैं, उससे था, लेकिन हमारी इस बातचीत के कुछ दिनों बाद ही मम्मी अचानक फीवर की वजह से गुजर गईं और उनकी बात मेरे दिल में अटक गई कि मैं तुम्हें होर्डिंग पर देखना चाहती हूं। मेरी दादी थिएटर ऐक्ट्रेस रही हैं, मेरे अंकल नामचीन शास्त्रीय गायक पंडित अजय पोहनकर हैं। पापा भी मराठी थिएटर से जुड़े रहे हैं तो मैंने ऐक्टिंग के जरिए होर्डिंग तक पहुंचने का फैसला किया और थिएटर से शुरुआत की। मैंने नाटक करना शुरू किया। फिर रितेश देशमुख की हिट मराठी फिल्म लय भारी के लिए ऑडिशन दिया और सिलेक्ट हो गई तो पूरी मुंबई में मेरे बड़े-बड़े होर्डिंग लगे। इस तरह थिएटर के रास्ते मैंने मम्मी का सपना पूरा कर दिया। अब थिएटर मेरी जड़ों से जुड़ा हुआ है। वो कभी मुझसे अलग नहीं हो पाएगा। इसलिए, जब भी मुझे मौका मिलता है, मैं नाटक करती हूं। अगर नाटक नहीं कर पाती तो देखती जरूर हूं, फिर चाहे मैं पेरिस में हूं या मुंबई में। मैं थिएटर से रिश्ता बनाए रखती हूं।’

बरेली की बर्फी से लेकर बधाई 2 तक अपने हर किरदार से दिल जीतने वाली सीनियर ऐक्ट्रेस सीमा पाहवा थिएटर को अपने लिए ऑक्सीजन जितना जरूरी मानती हैं। अपने टेलीप्ले कोई बात चले से टीवी ऑडियंस की भी वाहवाही पाने वाली सीमा पाहवा कहती हैं, ‘मुझे लगता है कि अगर मैं थिएटर नहीं करूंगी तो जिंदा नहीं रह पाऊंगी। मैं इतने सालों से लगातार फिल्में कर रही हूं, पर साथ ही थिएटर भी कर रही हूं क्योंकि रंगमंच के अलावा मैं अपने को कहां एक्सप्लोर कर पाऊंगी। फिल्मों में हमें काफी सीमित समय मिलता है कि आप गए और आपको शॉट देना है। वो भी आप दूसरों पर निर्भर होते हैं। वहां कैमरामैन, डायरेक्टर, एडिटर के हाथों से होता हुआ हमारा काम दर्शक तक पहुंचता है, लेकिन थिएटर में आप सीधे दर्शकों तक पहुंच पाते हैं। एक ऐक्टर के लिए इससे बेहतरीन जगह हो ही नहीं सकती जहां वह अपनी परफॉर्मेंस के लिए ज्यादा मेहनत कर सके। बेशक थिएटर में पैसे नहीं हैं, जिसके चलते ज्यादातर लोग थिएटर में टिक नहीं पाते। खासकर हिंदी रंगमंच को कभी वो ऑडियंस नहीं मिल पाई जो पैसे खर्च करके नाटक देखने आए, इसलिए बहुत से थिएटर ग्रुप बनते हैं और टूट जाते हैं। फिर भी मेरे हिसाब से थिएटर फिल्मों से ज्यादा महत्वपूर्ण है।’

अपने नाटक दयाशंकर की डायरी का जिक्र करते हुए ऐक्टर आशीष विद्यार्थी बताते हैं, ‘मैं 8वीं क्लास में था, जब नैशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के एक बाल थिएटर वर्कशॉप से जुड़ा, तभी से थिएटर मेरी जिंदगी का हिस्सा बन गया। मेरा मानना है कि जिन्हें थिएटर का शौक है, वे थिएटर और शोहरत के बीच चुनाव नहीं करते। उन्हें है कि थिएटर में कभी फिल्म वाली शोहरत नहीं मिलेगी, ऐसे में, फिल्मों में सफल होने के बाद भी थिएटर वही करते हैं जिन्हें सच में थिएटर से प्यार है। वो थिएटर पैसे या नाम कमाने के लिए नहीं करते, क्योंकि ये सब जानते हैं कि थिएटर में पैसे कम है, क्योंकि वहां ऑडियंस कम आती है। फिल्में लाखों लोग देखते हैं तो वहां पैसा, पॉप्युलैरिटी सब ज्यादा है। इसलिए, मुझे लगता है कि ये सब जानते हुए भी जो लोग थिएटर करते हैं, वे बहुत ताकतवर हैं, क्योंकि वे इन चीजों से ऊपर उठकर थिएटर के प्यार के लिए इससे जुड़े हुए हैं।’

ऐक्टर-डायरेक्टर रजत कपूर भी फिल्मों के साथ-साथ थिएटर से रिश्ता जोड़े हुए हैं। उनका कहना है, ‘नाटक करने की खुशी सिनेमा से अलग होता है। ये लाइव प्रॉसेस है, जो है, उस क्षण में है। जब आप फिल्म बनाते हैं तो कहीं न कहीं ये भी सोचते हैं भले ही आज कोई इसे नहीं देख रहा है लेकिन बीस साल बाद देख सकता है। जबकि, थिएटर में जो है बस उसी पल में है। उसका एक अलग नशा है। बाकी, ये भ्रम है कि थिएटर में पैसे नहीं हैं। पिछले साल मैं बैंगलोर में नाटक नथिंग लाइक लियर करने गया था। यह नाटक दस साल से चल रहा है। वहां पांच दिनों में हमने साढ़े सात लाख कमाए। तीन सौ लोग आते थे, पांच सौ रुपये देते थे, डेढ़ लाख रोज के हो जाते थे। जबकि, मैंने एक फिल्म बनाई थी आरके/आरके, साढ़े 3 करोड़ की फिल्म थी, जिसका इंडिया में टोटल कलेक्शन चार लाख रुपये था तो कई बार नाटक फिल्मों से ज्यादा कमाते हैं।’

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