आज हम आपको डॉ बालकृष्णा शिवराम मुंजे के बारे में बताने जा रहे हैं! देश के इतिहास में ऐसे कई नायक-नायिकाएं हैं, जिन्होंने अपने काम से न केवल देश को नई ऊंचाई दी बल्कि उनके सिखाए रास्ते का सिरा पकड़ भारत आज नई इबारत लिख रहा है। लेकिन ऐसे नायकों के काम को देश के इतिहास में वो स्थान नहीं मिला या यूं कहें कि उन्हें धुंधलकों में गुम कर दिया गया। लेकिन हम ऐसे ही गुमनाम नायकों की कहानी से आपको रू-ब-रू कराएंगे जिनके काम से देश को तो काफी फायदा हुआ लेकिन इतिहास के झरोखे में उन्हें वो जगह नहीं मिली जो मिलनी चाहिए। इस सीरीज में आज हम आपको भारतीय सैन्य ताकत की मजबूत नींव रखने वाले डॉ बालाकृष्णा शिवराम मुंजे के बारे में बताएंगे। पेशे से डॉक्टर और स्वतंत्रता सेनानी मुंजे ने एक ऐसी सेना बनाने का ख्वाब देखा था जो देश को सर्वोच्च मजबूती दे। देश की सैन्य रूप से मजबूत होना कितना जरूरी है, इसके बारे में डॉ मुंजे दशकों पहले ही सोच चुके थे। आज भारत चीनी सीमा के नजदीक अपने सैन्य और सड़क ढांचे को बेहद मजबूत बनाने में जुटा है। डॉ मु्ंजे सीमा को मजबूत करने के लिए एक मजबूत सैन्य ताकत की हमेशा वकालत करते रहे हैं। अभी तवांग में जो भारत और चीन के सैनिकों के बीच झड़प हुई है वो भारत के बढ़ते ताकत और मजबूत ढांचा बनाने की प्रतिबद्धता के कारण हुई है। डॉ मुंजे भी देश को एक मजबूत सैन्य ताकत बनाना चाहते थे। वैसे तो डॉ मुंजे ने देश और समाज के कई क्षेत्रों में योगदान दिया लेकिन देश की मजबूत आर्मी वाली उनकी सोच सबसे यूनिक रही है। डॉ मुंजे महाराष्ट्र के नासिक में एक सैनिक स्कूल खोलना चाहते थे। जहां देश के बच्चों को सैन्य ट्रेनिंग दी जाए और वे युद्ध के मैदान में अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन करें। साथ ही वह उन बच्चों ईसाई बनाए बिना में ब्रितानी मूल्यों को भरना चाहते थे। अपनी सोच को विस्तार देने और भारत की मजबूत सैन्य बल स्थापना के लिए भोंसला मिलिटरी स्कूल की 12 जून 1937 में स्थापना की थी। डॉ मुंजे ने अपना पूरा जीवन देश की आजादी के लिए कुर्बान कर दिया था।
डॉ मुंजे का जन्म 1872 में बिलासपुर में हुआ था। स्वतंत्रा सेनानी और मुंजे ने मेडिकल की पढ़ाई की थी। मेडिकल की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह बॉम्बे म्युनिसिपल कॉरपोरेशन में बतौर डॉक्टर सेवा देने लगे थे। पेशे से भले ही मुंजे डॉक्टर थे लेकिन उन्होंने हमेशा देश के लिए सोचा। उन्हें ये पता था कि किसी भी उभरते देश को सैन्य रूप से मजबूत होना कितना जरूरी होता है। डॉ मुंजे ने 1898 में ग्रांट मेडिकल कॉलेज मुंबई से डॉक्टरी की डिग्री हासिल की थी। उन्होंने बतौर मेडिकल विंग के सदस्य के तौर पर एंग्लो बोएर युद्ध (अफ्रीका) में हिस्सा लिया था। मुंजे पेशे से डॉक्टर तो थे लेकिन उन्हें शस्त्रों का भी जबरदस्त ज्ञान था। साथ ही वो एक राजेनता भी रहे। बाद के दिनों में उन्हें ‘धरमवीर’ के नाम से भी जाना जाने लगा।
डॉ मुंजे देश के युवाओं का शस्त्र ज्ञान से परिपूर्ण करना चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि देश के युवा सैन्य बलों में अपनी ताकत दिखाए। ताकि वे अपनी मातृभूमि की अखंडता और संप्रुभता की रक्षा कर सकें। अपने सपने को उड़ान देने के लिए 1935 में डॉ मुंजे ने सेंट्रल हिंदू मिलिटरी एजुकेशन सोसायटी की नासिक में 63 साल की उम्र में स्थापना की। इसके बाद सेना के भारतीयकरण के लिए उन्होंने भोंसला मिलिटरी स्कूल की स्थापना की। डॉ मुंजे अंग्रेजों के शासनकाल के दौरान सेना के भारतीयकरण के पुरजोर समर्थक रहे थे।
डॉ मुंजे के लिए मिलिटरी एक पैशन बन चुका था। यही वजह रही थी कि वह दक्षिण अफ्रीका में एंग्लो-बोर युद्ध (Anglo-Bore War) में शामिल हुए थे। बतौर मेडिकल कॉर्प्स में शामिल होकर उन्होंने युद्ध के तौर तरीके को देखा और समझा। युद्ध से लौटने के बाद वह लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के संपर्क में आए। इसके बाद उनकी रुचि राजनीति और कांग्रेस के प्रति हुई। इसके बाद वह स्वदेशी आंदोलन में पूरे जी जान से शामिल हो गए। उन्हें इस दौरान कई बार जेल जाना पड़ा था। हालांकि, तिलक के निधन के बाद वे कांग्रेस की कई नीतियों से असहज महसूस करने लगे। खासतौर पर खिलाफत आंदोलन को लेकर। इसके बाद वह स्वराज पार्टी में शामिल हो गए और सेंट्रल प्रोविंस का नेतृत्व किया। इस दौरान उन्होंने सुरक्षा से संबंधित मुद्दों पर लगातार बोला। इसके अलावा उन्होंने भारतीय सेना में ऑफिसर रैंक वाले पोस्ट केवल अंग्रेजों के लिए सुरक्षित रखे जाने की काफी आलोचना की थी। ब्रिटिश ये मानते थे कि भारत में केवल कुछ जातियां ही सैनिक बनने की क्षमता रखती हैं जबकि अन्य सैनिक बनने के काबिल नहीं हैं। डॉ मुंजे अंग्रेजों की इस थियरी की मुखालफत करते करते रहे। उन्होंने तर्क दिया कि कोई भी भारतीय एक बेहतरीन सैनिक और अधिकारी बन सकता है अगर उन्हें उचित शिक्षा और ट्रेनिंग दी जाए। इस दौरान ब्रिटेन को पहले विश्वयुद्ध में काफी नुकसान उठाना पड़ा। इसके बाद अंग्रेज भी डॉ मुंजे की बात पर सोचने लगे। इसके तुरंत बाद सैंडहर्स्ट स्कूल (Sandhurst School) में भारतीय को प्रवेश की अनुमति मिल गई। इसके कुछ दिन बाद देहरादून में भारतीय सैन्य अकादमी की शुरुआत की गई। यहां एक कमांडेंट ने देश में मिलिटरी तैयारियों की शिक्षा देने के लिए स्कूल की कमी का जिक्र किया। इसके बाद तो डॉ मुंजे के जीवन का लक्ष्य ही एक ऐसे स्कूल की स्थापना हो गया जहां देश के युवा बेहतरीन सैन्य ट्रेनिंग ले पाएं। उन्होंने इसे चुनौती के तौर पर लिया और इसी के परिणाम में भोंसला सैन्य स्कूल की शुरुआत की गई।
डॉ मुंजे ने 1937 में भोंसला सैन्य स्कूल की स्थापना की थी। इसकी स्थापना का कुल खर्च उस वक्त 3 लाख रुपये आया था। ग्वालियर के महाराजा ने 1 लाख रुपये का दान दिया था। ग्वालियर के तत्काली राजा जीवाजीराव सिंधिया ने स्कूल के मुख्य इमारत का उद्घाटन किया था। 18 अगस्त 1930 को डॉ मुंजे ने एक ऐतिहासिक भाषण दिया था। उन्होंने कहा था कि दुनिया के कई हिस्सों में युद्ध चल रहे हैं। (स्पेन और सुदूर पूर्व के देशों में) उन्होंने कहा था कि दुनिया पर एक बड़े युद्ध का खतरा मंडरा रहा है। ऐसे में भारतीय ऐसी स्थिति में अपनी सुरक्षा को इग्नोर नहीं कर सकते हैं। उन्होंने कहा था, ‘देश के हर युवा को शारीरिक और सैन्य ट्रेनिग दिया जाना चाहिए। इसे कम्युनल नहीं बल्कि राष्ट्रीय मुद्दे के तौर पर दिया जाना चाहिए।’ डॉ मुंजे ने अपने पूरे जीवनकाल के दौरान एक मजबूत युवा ताकत बनाने का ख्वाब देखा था, जो भारत की स्वतंत्रता में योगदान दे सके। अच्छी बात ये रही है कि उन्होंने अपने जीते जी देश की आजादी देखी। 3 मार्च 1948 को उनका निधन हो गया था। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन, पहाड़गंज की तरफ डॉ मुंजे की मूर्ति भी लगी है। आजादी के बाद डॉ मुंजे के सपनों को नई उड़ान भी मिली। भोंसले सैनिक स्कूल नासिक का ब्रांच नागपुर में भी खुल चुका है। इन स्कूलों में सेना में करियर बनाने के इच्छुक युवाओं को तैयार किया जाता है।