कांग्रेस के नए अध्यक्ष की हेराफेरी अभी भी जारी है! कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अशोक गहलोत को दिल्ली बुलाया था। मंगलवार की सुबह दोनों की मुलाकात के बाद उन अटकलों को और पंख लग गए कि गहलोत कांग्रेस के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष हो सकते हैं। हालांकि, वह विनम्रता से कहते हैं कि ऐसा कुछ नहीं है। कांग्रेस में कई सामर्थ्यवान नेता हैं जो इस जिम्मेदारी को संभाल सकते हैं। समय आने पर सभी एक साथ बैठकर नए अध्यक्ष का चुनाव करेंगे।
गैर-गांधी बन सकता है कांग्रेस अध्यक्ष
दरअसल, राहुल गांधी अध्यक्ष नहीं बनना चाहते। पार्टी नेताओं की तमाम गुजारिशों के बाद भी वह अपने फैसले से टस से मस नहीं हो रहे। सोनिया गांधी से पहले जैसी सियासी सक्रियता की उम्मीद बेमानी है। वजह उनकी बढ़ती उम्र और बीमारी है। अनुभवहीनता प्रियंका गांधी वाड्रा के आड़े आ सकती है। वह अब तक एक भी चुनाव नहीं लड़ी हैं। पार्टी में लंबे समय से संगठन चुनाव नहीं हुए हैं। इसी मुद्दे को लेकर गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, मनीष तिवारी जैसे कांग्रेस के कई बड़े नेता ‘बागी तेवर’ भी दिखा चुके हैं। दो साल पहले कांग्रेस के 23 नेताओं ने पार्टी नेतृत्व और कार्यशैली पर सवाल उठाते हुए सोनिया गांधी को खत लिखा था। असंतुष्ट नेताओं के खेमे को कांग्रेस के ‘G-23’ का नाम मिला। कपिल सिब्बल, जितिन प्रसाद जैसे कुछ G-23 नेता तो कांग्रेस छोड़ भी चुके हैं। ऐसे में गांधी परिवार से बाहर के किसी शख्स को कांग्रेस की कमान सौंपी जाए तो इसमें हैरानी वाली कोई बात नहीं होगी। हालांकि, अगर ऐसा होता है तो गांधी परिवार के किसी बेहद भरोसेमंद को ही इतनी बड़ी जिम्मेदारी मिलेगी। इस लिहाज से अशोक गहलोत से बेहतर शायद ही कोई नाम हो।
कभी जादूगर के तौर पर करतब दिखाने वाले अशोक गहलोत को राजनीति का जादूगर कहा जा सकता है। उनके पिता लक्ष्मण सिंह गहलोत राजस्थान के मशहूर जादूगर थे। सियासत में आने से पहले अशोक गहलोत भी अपने पिता के शो के दौरान जादू के करतब दिखाया करते थे। राहुल गांधी के बचपन में वह उनके जादूगर अंकल हुआ करते थे, आज गांधी परिवार के चाणक्य हैं। अशोक गहलोत कुशल रणनीतिकार माने जाते हैं। यह उनका रणनीतिक कौशल ही था कि 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने बीजेपी को कांटे की टक्कर दी। यह उनकी बाजीगरी ही थी कि सचिन पायलट की खुली बगावत के बाद भी मुख्यमंत्री की उनकी कुर्सी पर कोई आंच नहीं आई। यह उनकी ‘सियासी जादूगरी’ ही थी कि महज 34 साल की उम्र में राजस्थान के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बने। कांग्रेस के इतिहास में सबसे कम उम्र के प्रदेश अध्यक्ष। अब राष्ट्रीय अध्यक्ष के सबसे तगड़े गैर-गांधी दावेदार के रूप में देखे जा रहे हैं।
अशोक गहलोत तीन पीढ़ियों से गांधी परिवार के भरोसेमंद रहे हैं। उन्हें इंदिरा गांधी ने चुना। संजय गांधी ने तराशा। राजीव गांधी ने बढ़ाया। सोनिया गांधी ने चमकाया। राहुल गांधी ने भी आजमाया। राहुल और प्रियंका के लिए बचपन के ‘जादूगर अंकल’ अब उनके लिए सियासी ‘चाणक्य’ और सलाहकार की भूमिका में हैं।
गहलोत की सियासी पारी की कहानी भी बहुत दिलचस्प है जो 1977 से शुरू होती है। इमर्जेंसी खत्म हो चुकी थी। लेकिन कांग्रेस के नेताओं, कार्यकर्ताओं में डर था। डर ये कि चुनाव में जनता इमर्जेंसी के खिलाफ अपना आक्रोश दिखाएगी। युवा अशोक गहलोत को सरदारपुरा विधानसभा सीट से कांग्रेस का टिकट मिल गया। इसकी वजह ये थी कि टिकट के लिए मारा-मारी नहीं थी। इमर्जेंसी के प्रति जनआक्रोश की आशंका से सहमे हुए तमाम नेता चुनावी समर में उतरना ही नहीं चाहते थे। गहलोत के पास खोने के लिए कुछ नहीं था। वह पूरे दम-खम से चुनाव लड़े। चुनाव के लिए उन्हें अपनी प्रिय मोटरसाइकल तक बेचनी पड़ी। लेकिन वह जीत नहीं पाए। जनता पार्टी के माधव सिंह ने उन्हें करीब 4 हजार वोटों के अंतर से हराया। तब गहलोत को अंदाजा भी नहीं रहा होगा कि 3 साल बाद उनकी किस्मत बदलने या यूं कहे कि चमकने वाली है।
2008 के राजस्थान चुनाव में सीपी जोशी कांग्रेस की तरफ से सीएम पद के तगड़े दावेदार थे। कांग्रेस को जीत मिली लेकिन किस्मत जोशी के साथ नहीं रही। मोहन लाल सुखाड़िया के शिष्य रहे जोशी महज 1 वोट से चुनाव हार गए। कांग्रेस 96 सीटें जीती मगर महज 4 सीटों से बहुमत से चूक गई। लिहाजा वक्त की मांग थी कि मुख्यमंत्री किसी अनुभवी और राजनीतिक तौर पर कुशल व्यक्ति को बनाया जाए। कांग्रेस आलाकमान ने एक बार फिर गहलोत पर भरोसा जताया। उन्होंने बीएसपी के 6 विधायकों को अपने साथ मिलाकर न सिर्फ कांग्रेस की सरकार बनाई बल्कि 5 सालों तक चलाई भी।
2013 के चुनाव में कांग्रेस पराजित हुई और बीजेपी सत्ता में आई। हालांकि, 2018 में कांग्रेस को जीत मिली और गहलोत तीसरी बार सीएम बने। सीएम पद के प्रबल दावेदार रहे सचिन पायलट ने बाद में बगावत भी की लेकिन पार्टी आलाकमान चट्टान की तरह गहलोत के साथ खड़ा रहा। गहलोत की सियासी जादूगरी ने राजस्थान में बीजेपी का एमपी वाला गेम प्लान सफल नहीं दिया। एमपी में ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत की वजह से कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार गिर गई थी। राजस्थान में भी कुछ-कुछ वैसी ही स्थिति पैदा हुई थी लेकिन गहलोत की बाजीगरी ने मध्य प्रदेश दोहराए जाने से रोक लिया।