श्रीलंका में पिछले शनिवार को जनता ने राष्ट्रपति भवन पर धावा बोल दिया. जनता सरकार से त्रस्त है. खाना पकाने के लिए गैस सिलेंडर नहीं है, गाड़ी चलाने के लिए पेट्रोल नहीं है,खाने पीने की चीजों की महंगाई है सो अलग. राष्ट्रपति देश छोड़कर भाग गए हैं. जनता की समस्याओं का समाधान फिर भी नहीं हुआ है, स्थिति सामान्य होने में महीनों लग सकते हैं. आज हिसाब किताब में दो सवालों का जवाब देने की कोशिश करेंगे
श्रीलंका इस हाल में कैसे पहुँचा?
क्या भारत में भी श्रीलंका जैसे हालात हो सकते हैं?
भारत की आज़ादी के एक साल बाद 1948 में श्रीलंका को ब्रिटेन से मुक्ति मिली. अभी इसकी आबादी सवा दो करोड़ के आसपास है यानी अपने दिल्ली NCR से भी कम. बौद्ध धर्म मानने वाले सिंहली बहुसंख्यक है, उनकी आबादी 70% है.हिंदू तमिल, मुस्लिम और ईसाई अल्पसंख्यक है. लिबरेशन ऑफ तमिल टाइगर्स (LTTE)ने तमिलों के लिए अलग देश बनाने की लड़ाई लड़ी.1983 में इसने आतंक की शक्ल ले लें.संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि इस लड़ाई में एक लाख लोग मारे गए. भारत के प्रधानमंत्री रहे राजीव गांधी भी इसी आतंक का शिकार हुए. महेन्द्र राजपक्षे और उनके भाई गोतबया ने LTTE को 2009 में ख़त्म कर दिया. राजपक्षे पर ज़्यादती का आरोप भी लगा. बहरहाल, श्रीलंका में 26 साल बाद शांति आयीं. राजपक्षे हीरो बन गए.
अब आते हैं ताज़ा संकट की जड़ पर. राजपक्षे 2015 में सत्ता से बाहर हो गए, 2019 के चुनाव में उन्होंने टैक्स कटौती का वादा किया. चुनाव जीत गए. टैक्स घटा दिया यानी सरकार की आमदनी कम हो गई. दस लाख लोग टैक्स के दायरे से बाहर आ गए.उम्मीद थी कि टैक्स घटाने से लोगों के हाथ में ज़्यादा पैसा बचेगा वो खर्च करेंगे. इकनॉमी में तेज़ी आएगी. कोरोनावायरस महामारी ने सारा गणित बिगाड़ दिया. सरकार के खर्चे बढ़ गए. आमदनी और घट गई. घाटा बढ़ गया.टूरिज़्म श्रीलंका की अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण पहिया है. वो भी बैठ गया. टूरिज़्म वैसे अप्रैल 2019 से ही बैठना शुरू हो गया था जब मुस्लिम चरमपंथियों ने ईस्टर के दिन चर्च पर हमला कर दिया था. इसमें विदेशी टूरिस्ट भी मारे गए थे. इसे न्यूज़ीलैंड में मस्जिद पर हमले का बदला बताया गया था.
दो चीज़ें साथ साथ हो रही थी. सरकार का घाटा बढ़ रहा था.टूरिज़्म से होने वाली विदेशी मुद्रा की कमाई कम होने लगीं. विदेश से सामान मंगाना महँगा होता जा रहा था. विदेशी मुद्रा भंडार ख़ाली होता जा रहा था. एशियन डेवलपमेंट बैंक ने इसे ट्विन डेफिसिट यानी दोहरा घाटा बताया था. रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर जी सुब्बा राव ने लिखा है कि कोई भी देश एक घाटा तो मैनेज कर सकता है लेकिन दोनों घाटे झेलना मुश्किल होता है. श्रीलंका ने अपने खर्चे चलाने के लिए विदेशी मुद्रा में क़र्ज़ लिया हुआ है. उन्होंने कहा कि घरेलू घाटा तो आपका रिज़र्व बैंक नोट छापकर पूरा कर सकता है लेकिन वो डॉलर तो नहीं छाप पाएगा. चीन को भी इसमें विलेन बताया जा रहा है, कुल विदेशी क़र्ज़ का दस प्रतिशत चीन ने दिया है जो क़र्ज़ की अदायगी में देरी के लिए राज़ी नहीं हो रहा था.
ऐसे हालात में राजपक्षे ने ‘मास्टर स्ट्रोक ‘ खेला. पूरे देश में ऑर्गेनिक फ़ार्मिंग लागू कर दी यानी केमिकल फर्टिलाइजर के इस्तेमाल पर रोक लगा दी. अपने आप में क्रांतिकारी फ़ैसला था. खाने पीने की चीजों में बिना केमिकल के पैदा होनी थी, ऊपर से खाद को विदेश से मँगवाना नहीं पड़ेगा तो डॉलर बचेंगे यानी स्वास्थ्य वर्धक खाना और साथ में विदेशी मुद्रा की बचत का बोनस. विदेशी मुद्रा भंडार भी ख़ाली नहीं होगा. बिना किसी तैयारी के खेला मास्टर स्ट्रोक उल्टा पड़ा. चावल का ऑर्गेनिक तरीक़े से उत्पादन कम हो गया, क़िल्लत हो गई. चाय के उत्पादन पर भी असर पड़ा. महंगाई बढ़ गई उल्टा विदेश से ज़रूरी सामान मँगवाने की ज़रूरत पड़ गई. ये फ़ैसला पलटना पड़ा. इस साल अप्रैल आते आते श्रीलंका कंगाल हो गया, विदेशी क़र्ज़ की किस्त नहीं चुका पाया. यूक्रेन युद्ध ने हालात और बिगाड़ दिए. अब ना पेट्रोल ख़रीदने के लिए पैसे है ना ही गैस सिलेंडर के लिए. अब IMF पर भरोसा है कि वो क़र्ज़ देकर बचा लेगा . IMF की शर्तें इतनी कड़ी होती है कि लोगों की परेशानी की तुरंत हल नहीं निकलेगा.
भारत में ऐसा हो सकता है क्या?
भारत में ऐसे हालात दो बार बने हैं.पहली बार 1991 में और फिर 2013 में . विदेशी मुद्रा भंडार ख़ाली हो रहा था. डी सुब्बा राव 2013 में रिज़र्व बैंक के गवर्नर थे.उनका कहना है कि अभी करंट अकाउंट डिफिसेट जीडीपी के 3% के आसपास है, जो साल भर में क़ाबू में आ जाएगा. इस घाटे का मोटा मतलब ये है कि हम विदेशी मुद्रा में खर्च ज़्यादा करते हैं और देश में विदेशी मुद्रा की आवक कम है. इंपोर्ट ज़्यादा है और एक्सपोर्ट कम.विदेशी मुद्रा भंडार पिछले साल सितंबर के मुक़ाबले अब नीचे आ गया है. पिछले साल सितंबर में 642 अरब डॉलर विदेशी मुद्रा भंडार में थे जो 14 से 15 महीने तक इंपोर्ट का बिल चुकाने के लिए पर्याप्त थे. अब ये भंडार 580 अरब डॉलर पर है यानी 10 महीने तक विदेशी सामान मँगवा सकते हैं. 2013 से हालात फिर भी बेहतर है तब 6 महीने के इंपोर्ट के बराबर विदेशी मुद्रा बची थी. रिज़र्व बैंक लगातार कदम उठा रहा है. उम्मीद है कि भंडार ख़ाली नहीं होगा लेकिन यूक्रेन युद्ध जैसी कोई वैश्विक घटना सब कुछ बदल सकती है जैसे कोरोनावायरस के बाद से हुआ.
जब श्रीलंका में अप्रैल में अफ़रा तफ़री मची थी तो सूत्रों के हवाले से ख़बर छपी थी कि सचिवों ने सरकार को चेतावनी दी थी कि मुफ़्तख़ोरी की योजनाएँ भारत को श्रीलंका की तरह मुश्किल में डाल सकते हैं तब तो किसी ने कुछ कहा नहीं लेकिन पिछले हफ़्ते भर में प्रधानमंत्री ने बिना श्रीलंका का नाम लिए लोगों को चेतावनी दी है कि मुफ़्त का शॉर्ट कट मत पकड़िए, देश में शॉर्ट सर्किट हो सकता है. विदेशी मुद्रा भंडार एक समस्या है लेकिन सरकार अपने खर्चे कम करना चाहती है. इसके दो परिणाम हो सकते हैं टैक्स घटने से तो रहे बढ़ ही सकते हैं दूसरा जो मुफ़्त की योजना चल रही है उस पर कैंची चल सकती है. माहौल बनना शुरू हो गया है