आज हम आपको एक ऐसे साधु की कहानी सुनाएंगे जो भारत का गुप्तचर था! जासूसी’ एक ऐसा रोमांचक विषय रहा है, जिस पर काफी पहले से फिल्में बनने लगी थीं। पाकिस्तान में जाकर जासूसी करने की कई सच्ची घटनाओं को समेटते हुए हाल में बड़े परदे पर कई कहानियां दिखाई गईं। ओटीटी पर आई ‘मुखबिर’ हो या कोरोना काल से पहले बनी ‘राजी’, दर्शकों ने खूब पसंद किया। भारत ही नहीं, दुनियाभर में जासूसी फिल्में बनती हैं और सिने प्रेमी बड़े चाव से देखते हैं। जेम्स बॉन्ड सीरीज के क्या कहने, लेकिन क्या आपको किसी ऐसा भारतीय साधु के बारे पता है जिन्होंने सुदूर हिमालय पर जाकर असल जीवन में जासूसी की थी। यह कहानी आजादी से भी पहले शुरू होती है। उस साधु ने न सिर्फ देश के लिए गुप्त जानकारियां जुटाईं बल्कि उनके हिमालय भ्रमण ने भारतीय सर्वेक्षण विभाग को महत्वपूर्ण सूचनाएं एकत्रित करने में मदद की।
1896 में आंध्र प्रदेश के पश्चिम गोदावरी जिले के एक छोटे से गांव में प्रणवानंद का जन्म हुआ। तब उनका नाम कनकदंडी वेंकट सोमायाजुलु रखा गया था। स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज, लाहौर में एडमिशन लिया। अब इसे सरकारी इस्लामिया कॉलेज के नाम से जाना जाता है। कॉलेज की पढ़ाई कर कनकदंडी लाहौर में ही रेलवे अकाउंटेंट दफ्तर में नौकरी करने लगे। सितंबर 1920 में वह महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए। अगले 6 वर्षों तक वह आजादी की लड़ाई में गांव-गांव, शहर-शहर घूमते रहे। अपने जिले में कांग्रेस पार्टी के एक सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में काम करते रहे। धीरे-धीरे उनके जीवन में आध्यात्मिक चेतना बढ़ने लगी। स्वामी ज्ञानानंद की प्रेरणा से उन्हें हिमालय के बारे में जानकारी हुई। स्वामी ज्ञानानंद को उस दौर में भारत के प्रमुख परमाणु भौतिकशास्त्रियों में से एक माना जाता है। यहीं से KVS के जीवन में एक नया मोड़ आया। ऋषिकेश में उन्हें नया नाम मिला और वह ब्रह्मचारी प्रणवानंद कहलाए।
सांसारिक मोहमाया से दूर गुरु ज्ञानानंद ने हिमालय पर कई साल बिताए थे। उनके नक्शेकदम पर चलते हुए प्रणवानंद ने पैदल यात्रा शुरू कर दी। वह सबसे पहले कश्मीर के रास्ते कैलास मानसरोवर के लिए निकले। रास्ते में कुछ दूरी का सफर उन्होंने घोड़े पर तय किया। वह साल 1928 था। देश अंग्रेजों की गुलामी से आजाद होने के लिए संघर्ष कर रहा था। 1935 से लगातार हर साल 1950 तक प्रणवानंद कैलास की यात्रा करते रहे। अपनी यात्राओं के दौरान स्वामी प्रणवानंद जिस क्षेत्र में होते, वहां के खनिज, भूविज्ञान, जलवायु, पक्षियों आदि के बारे में व्यापक जानकारी इकट्ठा करते। उन्होंने क्षेत्र में झरनों, नदियों जैसे जलस्रोतों के बारे में बहुमूल्य वैज्ञानिक जानकारियां जुटाईं। तब तक इस क्षेत्र के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी।
आपको जानकर ताज्जुब होगा कि प्रणवानंद ने ही सिंधु, ब्रह्मपुत्र, सतलुज जैसी नदियों के अलग-अलग उद्गम स्थान बताए, तब तक ऐसा माना जाता था कि ये नदियां कैलास पर्वत के पास मनसरोवर झील से निकलती हैं। उनके द्वारा जुटाई गई जानकारियों और निष्कर्षों को 1941 से सर्वे ऑफ इंडिया ने सभी मानचित्रों में शामिल कर लिया। The Paperclip ने उस समय की तस्वीरों, नक्शों और आईकार्ड की तस्वीरें ट्विटर पर शेयर की हैं। ये हैबिटेट सेंटर से ली गई हैं। स्वामी प्रणवानंद ने कैलास क्षेत्र पर 3 किताबें लिखीं- हमारी कैलास यात्रा 1932 में आई, पवित्र कैलास और मानसरोवर की चार प्रमुख नदियों के स्रोत समेत दो किताबें 1939 में आईं। उन्हें रॉयल ज्योग्राफिकल सोसाइटी का फेलो बनाया गया।
भारत की आजादी के बाद स्वामी प्रणवानंद के कार्यों को मान्यता मिली। असहयोग आंदोलन में उनकी सक्रियता और दुर्गम हिमालयी क्षेत्रों में उनके मौलिक शोध को देशभर में सराहा गया। उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के तौर पर पेंशन मिलने लगी। हालांकि स्वामी प्रणवानंद ने अपने हिमालय भ्रमण को बंद नहीं किया। वह 1950 से 1954 के दौरान लगातार कैलास मानसरोवर यात्रा करते रहे। उस समय चीन में माओ का राज था और इस क्षेत्र पर कम्युनिस्ट देश की सेना PLA का कब्जा हो चुका था तब भी वह एक गुप्त एजेंट के तौर पर काम करते रहे।
संग्रहालय और किताबों में जानकारी मिलती है कि स्वामी प्रणवानंद चीन के कब्जे के बाद भी पांच साल तक कैलास-मानसरोवर क्षेत्र में आते जाते रहे। यह उनकी अपनी पहल थी। उन्होंने चीनी फौज की मौजूदगी के बारे में भारत सरकार को अलर्ट किया और सामरिक जानकारी उपलब्ध कराई। यह कोई एक दो पन्ने की सूचना नहीं थी। बताते हैं कि उन्होंने भारत-तिब्बत सीमा पर पाकिस्तान और ईसाई मिशन एजेंटों की खुफिया गतिविधियों के बारे में 4000 पेज की सूचना जुटाई थी। ये एजेंट पश्चिमी देशों से जुड़े थे।
किसी पेशेवर गुप्तचर की तरह स्वामी प्रणवानंद 1955 तक खुफिया जानकारियां भारत सरकार को देते रहे। इसी साल चीन की खुफिया एजेंसी ने उनका पता लगा लिया। ऐसे में स्वामी ने फौरन लोकेशन बदली और उत्तराखंड के पिथौरागढ़ में रहने का फैसला किया। उन्हें 1976 में भारत के चौथे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्म श्री से सम्मानित किया गया।
1980 में वह अपनी जन्मभूमि आंध्र प्रदेश लौट गए और अपने गांव में एक मंदिर का निर्माण कराया। 1989 में 93 साल की उम्र में स्वामी प्रणवानंद परलोक सिधार गए। दुर्भाग्य है कि आज की पीढ़ी को उनके योगदान के बारे में जानकारी ही नहीं है। उन्हें किताबों में भी कम जगह मिली। हिमालय की कंदराओं में घूमने वाले वह साधु वास्तव में एक वैज्ञानिक, लेखक, वन्यजीव संरक्षक, पर्यावरण प्रेमी तो थे ही, उन्होंने चीन बॉर्डर पर गुप्तचर के रूप में देश को बहुमूल्य जानकारियां दीं। जब भी देश के जासूसों की कहानियां लिखी जाएंगी, उनका नाम गर्व के साथ लिया जाएगा।