भारत का इतिहास बहुत ही चौका देने वाला रहा है! देश की राजनीति में कई ऐसे राजनेता हुए हैं जिनकी कहानी किसी परीकथा से कम नहीं लगती है। ‘किस्से राष्ट्रपति चुनाव के’ सीरीज में आज हम आपको ऐसे ही राष्ट्रपति की कहानी बताने जा रहे हैं जिन्होंने गरीबी की गोद से उठकर देश के शीर्ष पद का सफर तय किया। हम बात कर रहे हैं देश के पहले दलित राष्ट्रपति कोचेरिल रमन नारायणन की। केआर नारायणन की सफलता की कहानी आज देश के लाखों करोड़ों के लिए आदर्श है। केआर नारायणन भले ही देश के दलित पहले राष्ट्रपति थे लेकिन स्कूली शिक्षा से लेकर लंदन के स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स तक की पढ़ाई में कही भी उनकी जाति का योगदान नहीं रहा। केआर नारायणन ने भारतीय विदेश सेवा से रिटायर्ड होने के बाद राजनीति में एंट्री की। वे केरल से लगातार तीन बार सांसद रहे, राजीव गांधी की सरकार में कैबिनेट मंत्री फिर उपराष्ट्रति बने। इसके बाद वे 1997 में देश के पहले दलित राष्ट्रपति बने।केआर नाराणयन जब लंदन से लौटे तो पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें भारतीय विदेश सेवा के लिए नियुक्त कर दिया। अपनी इस नियुक्ति के बारे में केआर नारायण ने खुद एक बार बताया था। नारायण ने कहा था, ‘जब मैंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से पढ़ाई पूरी की, तो प्रो. हेराल्ड लास्की ने खुद मुझे पंडित जी के लिए एक परिचय पत्र दिया। इसलिए, दिल्ली पहुंचने पर मैंने प्रधानमंत्री से मिलने का समय मांगा। मुझे लगता है, क्योंकि मैं एक भारतीय छात्र था जो लंदन से घर लौट रहा था, मुझे मिलने का टाइम दिया गया था। यहीं वह संसद भवन में मुझसे मिले थे। हमने लंदन और उस तरह की चीजों के बारे में कुछ मिनटों तक बात की और मैं जल्द ही देख सकता था कि मेरे जाने का समय हो गया था। इसलिए, मैंने अलविदा कहा और कमरे से बाहर निकलते ही, मैंने लास्की का पत्र थमा दिया और बाहर बड़े गोलाकार गलियारे में निकल गया। जब कुछ दूर ही बढ़ा था, तो मैंने पीछे किसी के ताली बजाने की आवाज सुनी। मैंने मुड़कर देखा कि पंडित जी मुझे वापस आने के लिए कह रहे हैं। मेरे कमरे से बाहर निकलते ही उसने पत्र खोला था और उसे पढ़ा था। पंडितजी ने पूछा, ‘आपने मुझे यह (पत्र) पहले क्यों नहीं दिया?’ ‘अच्छा सर, आई एम सॉरी। मैंने सोचा था कि अगर मैं इसे छोड़ते समय सौंप दूं तो अच्छा होगा।’ मैंने जवाब दिया। कुछ और सवालों के बाद, उन्होंने मुझसे फिर से मिलने के लिए कहा और बहुत जल्द मैंने खुद को भारतीय विदेश सेवा में प्रवेश करते हुए पाया।
शादी के लिए दी स्पेशल परमिशन
भारतीय विदेश सेवा में शामिल होने के बाद नारायण को पहली नियुक्ति में बर्मा (म्यांमार) भेजा गया। यहां उनकी मुलाकात स्थानीय लड़की मा टिंट टिंट से हुई। लेकिन उस समय सिविस सर्विस के नियम के अनुसार कोई भारतीय डिप्लोमेट विदेशी महिला से शादी नहीं कर सकता था। ऐसे में जवाहर लाल नेहरू ने नारायण को विदेशी महिला से शादी करने की स्पेशल परमिशन दी। इसके बाद नारायणन ने बर्मा की नागरिक मा टिंट टिंट से 8 जून 1951 को शादी कर ली। शादी के बाद वह उषा नारायणन बन गईं। 1978 में आईएफएस के रूप में कार्यकाल खत्म होने के बाद वह 1979 से 1980 कर जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के उपकुलपति भी रहे। इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें 1980 में ही भारत में अमेरिका का राजदूत नियुक्त कर दिया। वह 1984 तक अमेरिका में भारत के राजदूत रहे। इसके बाद उन्होंने थाइलैंड और चाइना में भी भारतीय राजदूत के रूप में काम किया।
किसके कहने पर राजनीति में ली एंट्री?
केआर नारायणन ने विदेश सेवा में नौकरी पूरी करने के बाद इंदिरा गांधी के कहने पर राजनीति में एंट्री की और कांग्रेस में शामिल हो गए। 64 साल की उम्र में केआर नारायण ने पहली बार चुनाव लड़ा। वे केरल की ओट्टापलल सीट से लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए। उन्होंने इस सीट से लगातार तीन बार चुनाव जीता। सांसद बनने के बाद वह राजीव गांधी की सरकार में कैबिनेट मंत्री बने। नारायणन ने राजीव गांधी सरकार में विदेश मंत्रालय के साथ ही विज्ञान एवं तकनीकी विभाग भी संभाला। बाद में कांग्रेस पार्टी 1989 में सत्ता से बाहर हो गई।
बताया जाता है कि 1991 में कांग्रेस जब दुबारा सत्ता में लौटी तब तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने केआर नारायणन को अपनी कैबिनेट में शामिल नहीं किया था। उस समय राजनीतिक जानकारों का मानना था कि नरसिम्हा राव को लगता था कि नारायण का झुकाव वाम की तरफ है। उस समय केरल के कांग्रेस के सीएम के. करूणाकरन ने भी उस समय यह कहा था कि नारायणन को कैबिनेट में शामिल नहीं किए जाने की वजह उनका उनकी कम्युनिस्टों से नजदीकी है। हालांकि, बाद में नारायणन और पीवी नरसिम्हा राव के रिश्तों में कड़वाहट दूर हो गई थी। नारायणन 21 अगस्त 1992 को सर्वसम्मति से भारत के उपराष्ट्रपति के रूप में चुने गए। उनके नाम की सिफारिश भूतपूर्व प्रधानमंत्री और जनता दल ले लीडर वीपी. सिंह ने की थी। बाद में नरसिम्हा राव ने भी उनके नाम का समर्थन किया था। वाम दलों ने केआर नारायणन के उपराष्ट्रपति बनने में सहयोग किया था।
जब नारायणन ने लौटा दिया था वाजपेयी सरकार का प्रस्ताव!
फरवरी 1999 की बात है। राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बने बमुश्किल डेढ़ साल हुए थे। जेहानाबाद में अगड़ी जाति के लोगों ने 12 दलितों की जघन्य हत्या कर दी थी। बिहार में भयंकर बवाल मचा। उन दिनों वाजपेयी जमैका में G-15 सम्मेलन में हिस्सा लेने गए थे। उनकी गैर-मौजूदगी में डेप्युटी पीएम लालकृष्ण आडवाणी ने कैबिनेट की बैठक बुलाई और तय किया कि बिहार में राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाए। वाजपेयी को फैसले की जानकारी दी गई। कुछ किताबों में लिखा है कि वाजपेयी निजी तौर पर राष्ट्रपति शासन नहीं लगाना चाहते थे मगर सहयोगी समता पार्टी के दबाव में आ गए। उस वक्त राष्ट्रपति केआर नारायणन पश्चिम बंगाल में थे। उन्होंने इस फैसले पर आपत्ति जताई और लॉजिक पूछा। एनडीए सरकार ने फौरन गवर्नर सुंदर सिंह भंडारी से एक रिपोर्ट तैयार करवाई जिसमें कहा गया कि राज्य की कानून-व्यवस्था बेहद खराब है।राष्ट्रपति शासन लगाने का फैसला होते ही हंगामा मच गया। लोकसभा में वाजपेयी के पास बहुमत था मगर राज्यसभा में नहीं। यानी राज्यसभा से बिहार में राष्ट्रपति में राष्ट्रपति शासन का प्रस्ताव पास नहीं हो सकता था। केंद्रीय कैबिनेट के प्रस्ताव को राष्ट्रपति नारायणन ने लौटा दिया। तीन हफ्तों के भीतर ही बिहार से राष्ट्रपति शासन हट गया। राबड़ी मार्च 1999 में फिर मुख्यमंत्री बनीं।
उपराष्ट्रपति चुनाव के दौरान की बात है। चुनाव में केआर नारायण के दलित होने को लेकर काफी चर्चा थी। उस दौरान केआर नारायणन ने पत्रकारों से कहा था कि प्लीज मेरी कास्ट बैकग्राउंड पर ज्यादा जोर ना दे। दूसरी तरफ नारायणन के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद उनके भाई भास्करन का कहना था कि मेरे भाई को यह शीर्ष पद इसलिए नहीं मिला कि वह दलित है, बल्कि इसलिए मिला कि वह इस पद के काबिल है। भास्करन ने जोर देकर कहा था कि उनका भाई ईमानदारी, सच्चाई और न्याय का एक मॉडल है। उसमें वह सब कुछ है जो एक भारतीय नेता में होना चाहिए।