मायावती ने किसे सौंपी अपनी विरासत?

0
162

आज हम आपको बताएंगे कि मायावती ने अपनी विरासत किसे सौंपी है! बहुजन समाज पार्टी बसपा की अध्यक्ष मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया है। लोकसभा चुनाव से पहले मायावती की तरफ से इस घोषणा का काफी अहम माना जा रहा है। बदलते दौर में बहुजन समाज पार्टी जिस दौर से गुजर रही है उसके बीच मायावती की घोषणा काफी महत्वपूर्ण हो जाती है। हालांकि, पार्टी के लिए राजनीतिक रूप से परिस्थितियां ऐसी हैं जिसमें इस घोषणा को राजनीतिक हलको में उतनी अधिक तवज्जो नहीं मिल रही है जितना इसका महत्व है। मौजूदा दौर में पार्टी अपने आधार वोट दलितों के बीच भी पहले जैसी पैठ खो चुकी है। ऐसे में एक सवाल काफी अहम हो जाता है कि कांशीराम से मिली कमान थामने के बाद अब मायावती विरासत में आकाश आनंद को क्या सौंप रही हैं। साल 2007 के बाद से पार्टी के चुनावी प्रदर्शन में लगातार गिरावट देखने को मिली है। 2011 के यूपी विधानसभा चुनाव में पार्टी 2007 के 206 सीट से घटकर 80 सीटों पर आ गई। 2017 में बीएसपी का प्रदर्शन और गिर गया। पार्टी महज 19 सीटों पर सिमट गई। पार्टी वोट प्रतिशत करीब 4 फीसदी घटकर 22 फीसदी पर आ गया। 2022 में भी स्थिति में सुधार नहीं हुआ। बीजेपी के दूसरी बार सत्ता में आने के बाद बसपा की सीट घटकर महज 1 रह गई। एक के बाद एक चुनाव हारने का असर पार्टी पर साफ दिखाई दे रहा है। पिछले एक दशक में उनके कई भरोसेमंद सिपहसालार दूसरी पार्टियों में शामिल हो गए हैं। इसके साथ ही पार्टी का जमीनी स्तर का संगठन कमजोर हो गया। चुनाव विश्लेषक और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर वीके राय का कहना है कि ज्यादातर नेता अपनी पार्टी को तब मजबूत करते हैं जब वे लंबे समय तक सत्ता से बाहर होते हैं। राय के अनुसार ऐसा लगता है कि मायावती ने वह मौका गंवा दिया है। उनकी पार्टी अपने मूल मिशन को भूल गई है। बसपा का गठन दबे-कुचले समुदायों के लिए लड़ने के लिए प्रखर दलित नेता कांशीराम ने किया था। इसका मिशन देश भर में दलितों और गरीबों की चुनावी आवाज बनना था। स्थिति यह है कि बसपा अभी यूपी से बाहर सब जगह कमजोर दिखाई दे रही है। राजस्थान में थोड़ी बहुत जो स्थिति में सुधार था उसे कांग्रेस ही निगल गई थी।

हाल के पांच राज्यों में चुनाव में भी पार्टी का प्रदर्शन बहुत उत्साह बढ़ाने वाला नहीं है। पार्टी ने राजस्थान में पिछली बार की 6 सीटों के मुकाबले इस बार महज 2 ही सीट जीती है। 2018 की तुलना में इस बार मध्‍य प्रदेश, राजस्‍थान, छत्‍तीसगढ़ और तेलंगाना में बसपा का वोट प्रतिशत भी घट गया है। राजस्थान में 2018 में बसपा का वोट प्रतिशत 4.02 था जो इस बार घटकर 1.82 प्रतिशत पर पहुंच गया। मध्‍य प्रदेश में भी बसपा को झटका लगा है। बसपा ने यहां गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के साथ मिलकर 178 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ा था। ऐसे में सहयोगी को तो एक सीट मिली लेकिन बसपा खाली हाथ रही। यहां पार्टी का वोट प्रतिशत भी 2018 के 5 प्रतिशत से घटकर 3.31 फीसदी पहुंच गया। 2018 में बसपा को दो सीटों पर जीत मिली थी। और वोटिंग प्रतिशत 5 .01 था। इसी तरह छत्‍तीसगढ़ में भी पार्टी का प्रदर्शन खराब रहा। पार्टी ने यहां 53 सीटों पर प्रत्‍याशी उतारे थे और सभी पर हार गई। वोट भी घटकर मात्र दो फीसदी रह गया। 2018 चुनावों में बसपा को छत्‍तीसगढ़ में दो सीटों पर जीत मिली थी और वोट प्रतिशत 3.09 था। तेलंगाना में भी पार्टी का खाता खाली ही रहा। ऐसे में अब बसपा के राष्ट्रीय पार्टी के दर्जे पर भी खतरा मंडरा रहा है।

दलित राजनीति का चेहरा माने जानी वाली मायवती की चमक अब पहले जैसी नहीं रही है। पार्टी का संगठन अपने सबसे बड़े आधार वाले सूबे यूपी में ही कमजोर हो चुका है। यही वजह है कि पार्टी 2007 के बाद से यूपी की सत्ता में काबिज नहीं हो पाई है। इसके अलावा मध्यप्रदेश, राजस्थान, पंजाब, दिल्ली समेत उत्तर भारत के राज्यों में पार्टी संगठन लचर हाल में है। ऐसे में मायावती के पास विरासत में देने के लिए सिर्फ इतिहास की थाती के अलावा कुछ ठोस नजर नहीं आता है। पार्टी अपने मूल दलित वोटरों को भी एकजुट करने में कामयाब नहीं हो पाई है। सत्ता से बाहर होने के बाद मायावती पर अपनी मूर्तियां बनवाने और पार्टी पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे।

मायावती ने भारतीय राजनीति में आमूल-चूल परिवर्तन किया था। वह पहली बार ऐसा गठबंधन बनाने में सफल हुईं थीं जिसमें सामाजिक समूहों का इंद्रधनुषी गठबंधन था। मायावती ने ब्राह्मण और दलित की सोशल इंजीनियरिंग का बेजोड़ तालमेल किया था। उनकी सामाजिक पुनर्रचना का उद्देश्य केवल अतिरिक्त वोट हासिल करना नहीं था, बल्कि यह सुनिश्चित करना था कि उनका कोई भी प्रतिद्वंद्वी अपने पारंपरिक वोट बैंक को भी बरकरार न रखे। उन्होंने सपा से मुसलमानों, बीजेपी से ऊंची जातियों और अजित सिंह की आरएलडी से जाटों को अपने पाले में कर लिया। मायावती ने सतीश मिश्रा को पार्टी का पहला ब्राह्मण राष्ट्रीय महासचिव नियुक्त किया था। सतीश मिश्रा ने उन्हें अगस्त 2003 में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने की सलाह थी। उन्होंने न केवल अदालतों में सफलतापूर्वक मायावती का बचाव किया बल्कि ब्राह्मणों को मायावती के करीब लाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बसपा के हाथी को ऊंची जाति के हिंदुओं के लिए गणेश के रूप में चिह्नित किया गया था। हालांकि, मौजूदा समय में बीएसपी की यह सोशल इंजीनियरिंग मानो गायब सी हो गई है।

मायावती ने अपने कट्टर प्रतिद्वंद्वी बीजेपी के साथ भी हाथ मिलाने से गुरेज नहीं किया। उन्होंने 1997 में पहली बार भगवा पार्टी से हाथ मिलाया। इसकी वजह,वह चाहती थीं कि यूपी को मुलायम के शासनकाल के कथित गुंडाराज से मुक्ति मिले। उनके गुरु कांशीराम ने खुले तौर पर कहा कि यह एक अल्पकालिक व्यवस्था थी। वह सही थे लेकिन यह आखिरी बार नहीं था कि यूपी में हाथी को कमल का साथ मिला हो। बीजेपी के साथ गठबंधन करके मायावती दूसरी बार फिर सीएम बनीं। वह 2002 में भाजपा की मदद से फिर से सिंहासन पर बैठीं लेकिन ताज कॉरिडोर घोटाले की वजह से 18 महीने के भीतर ही उन्होंने पद छोड़ दिया। साल 2007 में यूपी में बसपा ने सबको मात देते हुए राज्य की 206 सीटें जीतीं। उस दौर में पार्टी के पास 21 लोकसभा सांसद थे। उन्होंने खुद को मुलायम के एकमात्र विकल्प के रूप में पेश करते हुए, 2007 में 30 प्रतिशत से अधिक वोट प्राप्त करके राज्य में निर्णायक जीत हासिल की।

अब मूल बात फिर वहीं है कि आखिर मायावती विरासत के रूप में नए उत्तराधिकारी को क्या सौंप रही हैं। इसका जवाब है कि मायावती भविष्य की कमान थामने वाले नेता के हाथ में कमजोर संगठन, यूपी में खस्ता हालत के साथ ही उत्तर भारत में जमीनी रूप से मृतप्राय: हो चुके पार्टी के आधार की चुनौतियों को सौंप रही हैं। एक के बाद एक चुनाव में हार के बाद बसपा के राष्ट्रीय पार्टी के दर्जे पर भी खतरा मंडरा रहा है। ऐसे में नए उत्तराधिकारी को पार्टी के मूल दलित वोटरों के बीच पार्टी के प्रति फिर से भरोसा मजबूत करने की सबसे प्रमुख चुनौती होगी। इसके साथ ही पार्टी में नेताओं को जिम्मेदारी सौंप कर यह दिखाना होगा कि उन्होंने अपने पिछले प्रमुखों की गलतियों से सबक लिया है।