Sunday, December 22, 2024
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जवाहरलाल नेहरू ने कश्मीर को लेकर क्या की बड़ी गलतियां?

जवाहरलाल नेहरू ने कश्मीर को लेकर कई बड़ी गलतियां की है, यह बात कानून मंत्री किरण रिजिजू के द्वारा बताई गई है! 27 अक्टूबर को ही जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय हुआ था। इसकी 75वीं वर्षगांठ के मौके पर देश के कानून मंत्री किरन रिजिजू ने प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की कश्मीर नीति की आलोचना की है। उन्होंने एक लेख लिखकर नेहरू की पांच गलतियां गिनाई हैं। बकौल रिजिजू नेहरू की इन पांच गलतियों से कश्मीर समस्या पैदा हुई जो दशकों तक देश के गले की फांस बनी रही। उन्होंने अपने लेख की शुरुआत में लिखा है, ’27 अक्टूबर को हम दो नजरिए से देख सकते हैं। पहला यह कि इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन के जरिए कश्मीर के भारत में विलय की 75वीं वर्षगांठ के तौर पर जो ऐतिहासिक रूप से सही भी है। हालांकि, एक दूसरा नजरिया भी है जो आज के संदर्भ में देखने पर पहले से ज्यादा प्रासंगिक और उचित लगता है। 27 अक्टूबर जवाहर लाल नेहरू के सबसे बड़ी गलतियों की श्रृंखला का एक महत्वपूर्ण दिन है। उन्होंने इस तारीख से पहले और बाद में कई गलतियां की हैं जो भारत को अगले सात दशकों तक भारत के लिए सिरदर्द बना रहा।’

कश्मीर पर नेहरू की गलतियों की पूरी श्रृंखला में पहली सबसे बड़ी भूल उनके भाषण से झलकती है जिसमें उन्होंने कश्मीर के स्पेशल केस बताया था। नेहरू कहते हैं, ‘हमने दोनों (महाराजा हरि सिंह और नैशनल कॉन्फ्रेंस) को सलाह दी कि कश्मीर एक स्पेशल केस है और वहां हड़बड़ी में फैसला लेना उचित नहीं होगा।’ लेकिन नेहरू चाहते क्या थे? उनके खुद के जवाब से बेहतर और क्या हो सकता है? वर्ष 1952 के अपने भाषण में वो आगे कहते हैं, ‘महाराजा और उनकी सरकार तब भारत में विलय चाहते, तो मैं उनसे कुछ और उम्मीद करता। वो ये कि वहां लोगों की राय ली जाए।’ हालांकि, इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट में ऐसी कोई शर्त नहीं थी कि प्रिंसली स्टेट्स का भारत में विलय से पहले लोगों की राय ली जाए। भारतीय संघ से जुड़ने की शासक की इच्छा काफी थी। दूसरे प्रिंसली स्टेट्स ने ठीक वैसा ही किया।

कश्मीर अति प्राचीन काल से भारतीय सांस्कृतिक चेतना का एक केंद्र रहा है। विभाजन के वक्त कश्मीर के शासक बिना शर्तों के बाकी भारत से जुड़ना चाहते थे। इस मिलन को खारिज करने वाले और कोई नहीं, नेहरू थे। और किसलिए? नेहरू ने कश्मीर के लिए जनता की स्वीकार्यरता का पैंतरा गढ़ा क्योंकि उनकी नजर में यह ‘स्पेशल केस’ था। नेहरू की नजर में कश्मीर के लिए जो स्पेशल था, उसी के कारण वह भारत में स्वतः और बिना किसी समझौते के भारत में विलय का उम्मीदवार नहीं बन सका? हालांकि, नेहरू की गलतियां जुलाई 1947 की दगाबाजियों तक ही सीमित नहीं रहीं। विभाजन में हुए रक्तपात और हिंसा के बावजूद नेहरू कश्मीर के विलय से पहले अपना पर्सनल अजेंडा पूरा करने पर अड़े रहे।

नेहरू ने कश्मीर में जो खालीपन पैदा किया उससे पाकिस्तान को वहां दखल देने का मौका मिल गया और आखिर में कबायलियों के वेश में पाकिस्तानी सैनिकों ने 20 अक्टूबर, 1947 को कश्मीर पर हमला कर दिया। फिर भी नेहरू टस से मस नहीं हुए। पाकिस्तानी हमलावर कश्मीर की तरफ तेजी से बढ़ रहे थे। महाराजा हरि सिंह ने फिर नेहरू से आग्रह किया कि कश्मीर का भारत में विलय करवा लिया जाए। लेकिन नेहरू उस वक्त भी अपने पर्सनल अजेंडे को पूरा करने के लिए समझौता कर रहे थे।

पाकिस्तानी हमले के दूसरे दिन 21 अक्टूबर, 1947 को नेहरू ने जम्मू-कश्मीर के प्रधामंत्री एमस महाजन को एक चिट्ठी के जरिए सलाह दी कि ‘ऐसे मौके पर भारत में कश्मीर के विलय की घोषणा करना संभवतः अवांछनीय होगा।’ लेकिन नेहरू की ऐसी बेतहाशा चाहत क्या थी कि आक्रमण ने भी उन्हें अपने अजेंडे से हिलने नहीं दिया? एमसी महाजन को लिखी उसी चिट्ठी में ही वो अपनी चाहत का खुलासा करते हैं। इसलिए हमें इधर-उधर की बातें करने की जगह नेहरू के शब्दों पर ही जाना चाहिए। वो कहते हैं, ‘मैंने आपको अस्थायी सरकार के गठन जैसे कुछ कदम उठाने की त्वरित कार्रवाई का सुझाव दिया था। शेख अब्दुल्ला को ऐसी सरकार बनाने को कहा जा सकता है जो स्वाभाविक रूप से कश्मीर में सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं।’

अपने दोस्त शेख अब्दुल्ला को सरकार में बिठाना नेहरू के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण था, ना कि कश्मीर का भारत में विलय करवाया जाए। जुलाई 1947 में भी नेहरू ने यही मांग रखी थी जब महाराजा हरि सिंह ने पहली बार भारत में विलय के प्रस्ताव को लेकर नेहरू से संपर्क किया था। उसी वक्त समझौता हो जाता और पूरा अध्याय ही खत्म हो जाता, बशर्ते नेहरू अपना पर्सनल अजेंडा को छोड़कर इंडिया फर्स्ट के बारे में सोचे होते। लेकिन नेहरू उस आखिरी वक्त तक विलय को टालते रहे जब पाकिस्तानी फोर्सेज गिलगिट, बाल्टिस्तान और मुज्जफराबाद पर कब्जे की तरफ बढ़ते जा रहे थे। उन्होंने लूट-मार की और रास्तेभर में कोहराम मचाते हुए 25-26 अक्टूबर, 1947 के आसपास श्रीनगर के करीब पहुंच गए। उस वक्त भी महाराजा ने जब इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन पर एकतरफा दस्तखत कर दिया, तब भी नेहरू ना-नुकुर कर रहे थे।

वर्ष 1952 में लोकसभा में दिए गए भाषण में नेहरू ने उन दिनों की चर्चा की थी। उन्होंने कहा था, ‘मुझे याद है कि 27 अक्टूबर की तारीख होगी जब दिनभर की मीटिंग के बाद हम शाम में इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सभी जोखिमों और खतरों के बावजूद हम अब इस मांग को ठुकरा नहीं सकते।’ 26 अक्टूबर, 1947 को जब पाकिस्तानी फोर्सेज श्रीनगर की दहलीज पर पहुंच गए तब भी नेहरू अपने पर्सनल अजेंडे को लेकर ही चिंतित थे जबकि देशहित की मांग कुछ और थी।

आखिरकार 27 अक्टूबर, 1947 को विलय पत्र स्वीकार कर लिया गया और भारतीय फौज कश्मीर में उतर गई। फिर तो पाकिस्तानी हमलावरों के छक्के छूटने लगे। कश्मीर का पूरा इतिहास बिल्कुल अलग रहा है। भारत में उसका विलय जुलाई 1947 में ही हो सकता था।

अगर वक्त पर विलय हो गया होता तो पाकिस्तान का हमला नहीं होता, पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर नहीं होता, मामला संयुक्त राष्ट्र तक नहीं पहुंचता, बाद के दशकों में कश्मीर पर लड़ने का पाकिस्तान के पास कोई अधिकार नहीं होता, जिहादी आतंकवाद नहीं होता और 1990 में कश्मीरी हिंदुओं का सामूहिक पलायन नहीं होता। 21 अक्टूबर, 1947 तक भी नेहरू ने ऐक्शन दिखाया होता तो भी आज पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर नहीं होता। लेकिन नेहरू की भारी गलतियां अक्टूबर 1947 को ही नहीं खत्म हुईं।

एक आदमी की गलतियों से सात दशक और अवसरों की कई पीढ़ियां हमने खो दीं। हालांकि, सात दशक बाद 5 अगस्त, 2019 को इतिहास ने नई करवट ली। 1947 से बिल्कुल इतर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बनाए जा रहे नए भारत में भारत सर्वोपरि ही एकमात्र गाइडिंग प्रिंसिपल है। इसलिए पीएम मोदी ने उन सभी गलतियों का समूल विनाश कर दिया जो 1947 से ही भारत को अंदर-अंदर चोट पहुंचा रही थीं। आर्टिकल 370 हटा दिया गया, भारतीय संविधान पूरे जम्मू-कश्मीर में लागू हो गया, अलग संघशासित प्रदेश बनाकर लद्दाख के लोगों को न्याय दिया गया और पूर्ण विलय के साथ-साथ लोगों को घावों पर मरहम लगाने का काम पूरी प्राथमिकता से शुरू हुआ।

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