सुप्रीम कोर्ट ने गर्भपात पर एक नया फैसला सुना दिया है! महिलाओं को प्रजनन की स्वायत्ता और गर्भपात का अधिकार देने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले को परिवार स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने ऐतिहासिक बताया है। इनका कहना है कि इस निर्णय के बाद अब देश में असुरक्षित गर्भपात के मामलों में न सिर्फ कमी आएगी, बल्कि महिलाओं को सामाजिक और मानसिक स्तर पर भी लाभ होगा।देश में कम उम्र में होने वाली गर्भावस्था की समस्या से निपटने में भी इस फैसले से काफी मदद मिलेगी। सेंटर फॉर रिप्रोडक्टिव राइट्स की डॉ. अर्पणा चंद्रा बताती हैं, ‘20 वर्ष से कम आयु में गर्भधारण करना किशोरावस्था में गर्भधारण टीन एज प्रेगनेंसी कहलाता है। कम आयु में विवाह या फिर नासमझी इसके कारण हैं। राष्ट्रीय परिवार एवं स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 2019-21 के अनुसार, 15 से 19 वर्ष की लगभग तीन प्रतिशत महिलाएं सर्वे के समय या तो गर्भवती थीं या मां बन चुकी थीं।
नई दिल्ली स्थित डॉ. राम मनोहर लोहिया अस्पताल आरएमएल की निदेशक बताती हैं कि महिलाओं की सुरक्षित गर्भपात सेवाओं पर सीमित पहुंच और उनके परिवारों को गर्भपात की कानूनी मान्यता के बारे में जानकारी के अभाव के चलते असुरक्षित गर्भपात एक गंभीर समस्या बना हुआ है। मैं यह पूरे विश्वास से कह सकती हूं कि असुरक्षित गर्भपात में काफी कमी आएगी।
देश में सुरक्षित गर्भपात की तुलना में असुरक्षित गर्भपात की संख्या काफी अधिक है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की वार्षिक रिपोर्ट 2020 के मुताबिक, कुल मातृ मृत्यु दर में आठ फीसदी मौतें असुरक्षित गर्भपात की वजह से होती हैं। जो महिलाएं जीवित बच जाती हैं, उन्हें लंबे समय तक खून की कमी, संक्रमण और बांझपन जैसी जटिलताओं का सामना करना पड़ता है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष यूएनएफपीए की स्टेट ऑफ द वर्ल्ड पॉपुलेशन रिपोर्ट 2022 के अनुसार, असुरक्षित गर्भपात भारत में मातृ मृत्यु दर का तीसरा प्रमुख कारण है। हर दिन करीब आठ महिलाओं की मौत हो जाती है।
जब डॉक्टर की राय हो, गर्भ को रखने से महिला के जीवन को खतरा हो या उसके कारण महिला के शारीरिक अथवा मानसिक स्वास्थ्य को गहरी चोट पहुंच सकती हो!पैदा होने वाले बच्चे को शारीरिक या मानसिक असमानताएं होने की आशंका हो, विवाहित महिला या उसके पति द्वारा अपनाई गई गर्भनिरोधक विधि की असफलता पर, दुष्कर्म के मामले में!
कानून के प्रावधानों का उल्लंघन करने के परिणाम गंभीर हो सकते हैं। उल्लंघन करने पर न्यूनतम दो वर्ष या अधिकतम सात वर्ष का कठोर कारावास हो सकता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में प्रशिक्षित सेवा प्रदाताओं का अभाव, सेवा प्रदाताओं में संवेदनशीलता की कमी, स्वास्थ्य केंद्रों पर गोपनीयता और विश्वसनीयता का अभाव, अगर कोई किशोरी गर्भपात कराना चाहती है, तो उसे हीन दृष्टि से देखा जाना कुछ चुनौतियां हैं।
भारतीय संसद ने 1971 में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट या एमटीपी कानून पारित किया था और 2021 में इसमें संशोधन हुआ। बनने के वक्त यह दुनिया के सबसे प्रगतिशील कानूनों में से एक था। इसकी मुख्य विशेषताएं गर्भपात के लिए गर्भ अवधि की अधिकतम सीमा 20 सप्ताह तक थी लेकिन संशोधित अधिनियम 2021 में इस अवधि को 24 सप्ताह किया गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने बृहस्पतिवार को कहा कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (एमटीपी) एक्ट के तहत महिलाओं को जबरदस्ती गर्भधारण से बचाने के लिए वैवाहिक दुष्कर्म को ‘दुष्कर्म’ के दायरे में माना जाना चाहिए।
जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस जेबी पारदीवाला की पीठ ने गर्भपात से संबंधित अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा, भारतीय दंड संहिता के तहत वैवाहिक दुष्कर्म को भले ही अपवाद के रूप में रखा गया हो, इसके बावजूद गर्भवती महिला यदि बलपूर्वक होने वाली गर्भावस्था की शिकायत करती है तो इस संबंध को ‘दुष्कर्म’ माना जाना चाहिए।
हालांकि अदालत ने स्पष्ट किया कि एमटीपी अधिनियम के तहत वैवाहिक दुष्कर्म को ‘दुष्कर्म’ समझना आईपीसी की धारा- 375 के अपवाद- 2 को खत्म करना या आईपीसी में परिभाषित दुष्कर्म के अपराध की रूपरेखा को बदलना नहीं है। धारा 375 के तहत वैवाहिक दुष्कर्म को आपराधिक नहीं माना गया है।
पीठ ने कहा, यह केवल एमटीपी कानून और उसके तहत बने किसी भी नियम और विनियम के प्रयोजनों तक सीमित है।जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस जेबी पारदीवाला की पीठ ने गर्भपात से संबंधित अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा, भारतीय दंड संहिता के तहत वैवाहिक दुष्कर्म को भले ही अपवाद के रूप में रखा गया हो, इसके बावजूद गर्भवती महिला यदि बलपूर्वक होने वाली गर्भावस्था की शिकायत करती है तो इस संबंध को ‘दुष्कर्म’ माना जाना चाहिए। इसकी किसी भी अन्य व्याख्या का प्रभाव, एक महिला को बच्चे को जन्म देने और उस ‘पार्टनर’ के साथ बच्चे को पालने के लिए मजबूर करना होगा।