क्या है ऑपरेशन स्‍काईलाइट? जानिए!

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क्या आप जानते हैं कि ऑपरेशन स्काईलाइट क्या है! अंडमान एंड निकोबार आइलैंड्स से लेकर लद्दाख तक, थलसेना के सारे सैटेलाइट कम्‍युनिकेशंस सिस्‍टम्‍स 5 दिन तक ऐक्टिव रहे। 25 जुलाई से 29 जुलाई के बीच आर्मी ने यह परखा कि उसका कम्‍युनिकेशन कितना मजबूत है। दुश्‍मन के हमले की स्थिति में उसके हाई-टेक सैटेलाइट कम्‍युनिकेशन सिस्‍टम्‍स कितने तैयार हैं, यह जांचने के लिए ऑपरेशन ‘स्‍काईलाइट’ चलाया गया। 5 दिन तक इस ऑपरेशन में सेना ने अलग-अलग स्थितियों पर मॉक-ड्रिल की। मसलन संघर्ष की स्थिति में अगर कनेक्टिविटी खराब या बर्बाद हो जाए तो क्‍या करना है। ‘स्‍काईलाइट’ ऑपरेशन में ISRO व उन एजेंसियों ने भी हिस्‍सा लिया जो थलसेना के कम्‍युनिकेशंस में हाथ बंटाती हैं। भारत की थलसेना ने यह पूरी एक्‍सरसाइज चीन को ध्‍यान में रखकर की है। ड्रैगन ने स्‍पेस, साइबरस्‍पेस से लेकर इलेक्‍ट्रॉनिक वारफेयर तक के लिए घातक हथियार विकसित किए हैं। चीन के साथ लगती देश की उत्‍तरी सीमा सेना के लिए चिंता का प्रमुख विषय है क्‍योंकि यहां की टोपोग्राफी चुनौतीपूर्ण है।

ऑपरेशन की जरूरत क्यों ?

सेना कई मोर्चों पर काम कर रही है ताकि मल्‍टी-डोमेन ऑपरटर्स के लिए जगह बनाई जा सके। रिमोट एरियाज में ‘लाइन ऑफ साइट से दूर टैक्टिकल कम्‍युनिकेशन’ के लिए उसके सैटेलाइट नेटवर्क्‍स पहले से ही ऑपरेशनल हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान दुनिया ने साइबर और इलेक्‍ट्रोमैग्‍नेटिक वारफेयर के साथ-साथ कम्‍युनिकेशंस का इस्‍तेमाल होते भी देखा है। हमारे सहयोगी ‘द टाइम्‍स ऑफ इंडिया’ ने डिफेंस सोर्सेज के हवाले से लिखा है कि एलन मस्‍क की कंपनी SpaceX के मालिकाना हक वाले ‘Starlink’ ने भरोसेमंद सैटेलाइट कम्‍युनिकेशन के प्रभाव पर मुहर लगा दी है।

भारतीय थलसेना अभी ISRO के कई सैटेलाइट्स का इस्‍तेमाल करती है। इनके जरिए सैकड़ों स्‍टैटिक कम्‍युनिकेशन टर्मिनल्‍स, ट्रांसपोर्टेबल व्‍हीइकल-माउंटेड टर्मिनल्‍स, मैन-पोर्टेबल्‍स और मैन-पैक टर्मिनल्‍स कनेक्‍ट होते हैं। सेना के कम्‍युनिकेशन को तगड़ा बूस्‍ट तब मिलेगा जब उसका पहला डेडिकेटेड सैटेलाइट GSAT-7B 2015 के आखिर तक लॉन्‍च होगा। रक्षा मंत्रालय ने मार्च में 4,635 करोड़ रुपये से इस सैटेलाइट को मंजूरी दी थी। नौसेना और वायुसेना के पास पहले से ही GSAT-7 सीरीज के सैटेलाइट्स हैं।

नेवी का GSAT-7 सैटेलाइट (रुक्मिणी) मुख्‍य रूप से हिंद महासागर क्षेत्र को कवर करता है। GSAT-7B का फोकस उत्‍तरी सीमाओं पर होगा। यह अपनी तरह का पहला स्‍वदेशी मल्‍टीबैंड सैटेलाइट होगा जिसमें एडवांस्‍ड सिक्‍योरिटी फीचर्स होंगे। इससे न सिर्फ जमीन पर तैनात सैनिकों को जरूरी टैक्टिकल कम्‍युनिकेशन सपोर्ट हासिल होगा, बल्कि सुदूर उड़ान भर रहे रिमोटली-पायलट एयरक्राफ्ट, एयर डिफेंस वेपंस और अन्‍य मिशन क्रिटिकल और फायर-सपोर्ट प्‍लेटफॉर्म्‍स को भी।

चीन परंपरागत सैन्‍य क्षमता में तो भारत से आगे है ही। स्‍पेस, साइबरस्‍पेस, रोबोटिक्‍स, घातक ऑटोनॉमस वेपन सिस्‍टम्‍स, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और ऐसे सेक्‍टर्स में मीलों आगे है। रेस में कहीं भारत पीछे न रह जाए, यह सुनिश्चित करने के लिए सेना एकेडेमिया से लेकर प्राइवेट इंडस्‍ट्री और बाकी स्‍टेकहोल्‍डर्स से मदद ले रही है।सेना कई मोर्चों पर काम कर रही है ताकि मल्‍टी-डोमेन ऑपरटर्स के लिए जगह बनाई जा सके। रिमोट एरियाज में ‘लाइन ऑफ साइट से दूर टैक्टिकल कम्‍युनिकेशन’ के लिए उसके सैटेलाइट नेटवर्क्‍स पहले से ही ऑपरेशनल हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान दुनिया ने साइबर और इलेक्‍ट्रोमैग्‍नेटिक वारफेयर के साथ-साथ कम्‍युनिकेशंस का इस्‍तेमाल होते भी देखा है। हमारे सहयोगी ‘द टाइम्‍स ऑफ इंडिया’ ने डिफेंस सोर्सेज के हवाले से लिखा है कि एलन मस्‍क की कंपनी SpaceX के मालिकाना हक वाले ‘Starlink’ ने भरोसेमंद सैटेलाइट कम्‍युनिकेशन के प्रभाव पर मुहर लगा दी है।

भारतीय थलसेना अभी ISRO के कई सैटेलाइट्स का इस्‍तेमाल करती है। इनके जरिए सैकड़ों स्‍टैटिक कम्‍युनिकेशन टर्मिनल्‍स, ट्रांसपोर्टेबल व्‍हीइकल-माउंटेड टर्मिनल्‍स, मैन-पोर्टेबल्‍स और मैन-पैक टर्मिनल्‍स कनेक्‍ट होते हैं। सेना के कम्‍युनिकेशन को तगड़ा बूस्‍ट तब मिलेगा जब उसका पहला डेडिकेटेड सैटेलाइट GSAT-7B 2015 के आखिर तक लॉन्‍च होगा। रक्षा मंत्रालय ने मार्च में 4,635 करोड़ रुपये से इस सैटेलाइट को मंजूरी दी थी। नौसेना और वायुसेना के पास पहले से ही GSAT-7 सीरीज के सैटेलाइट्स हैं।

नेवी का GSAT-7 सैटेलाइट (रुक्मिणी) मुख्‍य रूप से हिंद महासागर क्षेत्र को कवर करता है। GSAT-7B का फोकस उत्‍तरी सीमाओं पर होगा। यह अपनी तरह का पहला स्‍वदेशी मल्‍टीबैंड सैटेलाइट होगा जिसमें एडवांस्‍ड सिक्‍योरिटी फीचर्स होंगे। इससे न सिर्फ जमीन पर तैनात सैनिकों को जरूरी टैक्टिकल कम्‍युनिकेशन सपोर्ट हासिल होगा, बल्कि सुदूर उड़ान भर रहे रिमोटली-पायलट एयरक्राफ्ट, एयर डिफेंस वेपंस और अन्‍य मिशन क्रिटिकल और फायर-सपोर्ट प्‍लेटफॉर्म्‍स को भी।

चीन परंपरागत सैन्‍य क्षमता में तो भारत से आगे है ही।