क्या है समलैंगिक विवाह पर जनता की राय?

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समलैंगिक विवाह पर जनता और सरकार की अलग-अलग राय है! जब सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया, तो एक सवाल बड़ा उठा था। यह सवाल था कि यदि समलैंगिक व्यक्तियों को कानून के डर के बिना एक साथ रहने का अधिकार था, तो सरकार को उनके विवाह के अधिकार को मान्यता क्यों नहीं देनी चाहिए? यह अधिकार, कानून और न्याय से जुड़े एकेडमिक सवाल से कहीं अधिक है। यह आज अनगिनत समलैंगिक जोड़ों के लाइफ में एक व्यक्तिगत रूप से गहरी खाई जैसा है। सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिक जोड़ों की तरफ से दायर याचिका में विवाह के उनके अधिकार को लागू करने और इसे विशेष विवाह कानून के तहत मान्यता देने का अनुरोध किया गया है।पार्थ फिरोज मेहरोत्रा और उदय राज आनंद ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी। अपीलों में दो समलैंगिक जोड़ों ने अपनी शादी को विशेष विवाह कानून के तहत मान्यता देने का निर्देश दिए जाने की मांग की है। याचिकाकर्ता के तर्क दमदार हैं। उदय सरोगेसी के माध्यम से कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त दो बच्चों के माता-पिता हैं। लेकिन उनके साथी पार्थ, दो बच्चों के प्राइमरी केयरगिवर होने के बावजूद, माता-पिता के रूप में आधिकारिक मान्यता नहीं रखते हैं। जबकि बच्चों के पास दादा-दादी, चचेरे भाई और एक समृद्ध पारिवारिक अनुभव है। पार्थ के साथ कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त रिश्ते ना होना न केवल अत्यधिक पीड़ा बल्कि महत्वपूर्ण प्रैक्टिकल समस्याओं का कारण बनती है।

25 नवंबर को, सुप्रीम कोर्ट ने धर्मनिरपेक्ष विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की मांग करने वाली जनहित याचिकाओं पर केंद्र से जवाब मांगा था।आखिरकार, यह जेंडल न्यूट्रल शर्तों को लेकर आशाजनक शुरुआत थी। किसी भी दो व्यक्तियों के बीच विवाह इस अधिनियम के तहत साबित किया जा सकता है। देश में शादी के लिए पुरुष की 21 साल महिला की 18 साल की शर्त है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं देना संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के तहत समानता के अधिकार व जीवन के अधिकार का उल्लंघन है।

नियम है कि ‘किसी भी दो व्यक्तियों’ के विवाह की अनुमति देने वाला प्रावधान और उसके बाद के जेंडर रेफरेंस एक-दूसरे के विरोध में नहीं हैं। इसके बाद से अधिनियम लिंग की परवाह किए बिना किन्हीं भी दो व्यक्तियों के बीच विवाह को संपन्न कर सकता है। पार्थ और उदय के वकील, सौरभ किरपाल बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट की तरफ से कहने पर यह स्पष्ट हो जाएगा कि जहां भी पति पत्नी आदि जैसे जेंडर बाइनरी रेफरेंस का उल्लेख किया गया है, इसे समान-लिंग वाले जोड़े के लिए पति या पत्नी के रूप में पढ़ा जाएगा। इससे समलैंगिक जोड़े 18 साल की उम्र में शादी करने के योग्य हो जाएंगे, जबकि समलैंगिक जोड़े केवल 21 साल की उम्र में ही शादी कर पाएंगे। किरपाल कहते हैं कि स्पेशल मैरिज एक्ट पुरुषों और महिलाओं के लिए एक अलग न्यूनतम अनुमति आयु निर्धारित करता है, और मुझे समलैंगिक विवाहों के लिए भी इसका पालन करने में कोई समस्या नहीं दिखती है।

लेकिन इसमें केंद्र को बहुत सारी समस्याएं दिखाई देती हैं। जैसा कि पिछले साल दिल्ली हाईकोर्ट में याचिकाओं के एक समान समूह अब सुप्रीम कोर्ट में ट्रांसफर के जवाब में संकेत दिया गया था कि ‘भारत में विवाह केवल दो व्यक्तियों के मिलन का विषय नहीं है, बल्कि एक पवित्र संस्था है। एक जैविक पुरुष और जैविक महिला। केंद्र की स्टैंडिंग काउंसल मोनिका अरोड़ा कहती हैं कि शादी की तुलना में सेक्स जीवन का बहुत छोटा हिस्सा है। उनका तर्क है कि जहां आज किसी को भी किन्हीं दो लोगों के एक साथ रहने पर कोई आपत्ति नहीं है, वहीं समलैंगिक विवाह के मुद्दे पर दो जजों की तरफ से दो एडवोकेट की बात सुनकर नहीं बल्कि एक बड़ी सामाजिक बहस और संसद में फैसला किया जाना चाहिए।

ताइवान से लेकर अमेरिका तक, न्यायपालिका और विधायिका की तरफ से मिलकर समलैंगिक विवाह को बढ़ावा दिया जा रहा है। यहां तक कि भारत में, भले ही सुप्रीम कोर्ट सेम सेक्स मैरिज की अनुमति दे, फिर भी कई लैंगिक कानूनी मुद्दों के लिए विधायी समाधान की आवश्यकता होगी। इसमें गोद लेना, घरेलू हिंसा, वैवाहिक घर में रहने का पत्नी का अधिकार, तलाक आदि। इसलिए, संसद अनिश्चित काल के लिए मुद्दे को चकमा नहीं दे पाएंगे। इस बीच, अदालतों के माध्यम से होने वाली बड़ी सार्वजनिक चर्चा का मतलब है कि अधिक याचिकाएं अदालत के दरवाजे पर दस्तक देंगी। इसकी वजह है कि अधिक समलैंगिक जोड़ों को लगता है कि जिस विवाह समानता से उन्हें वंचित किया जा रहा है, वह उनका हो सकता है। यदि वे इसके लिए एकजुट होते हैं। क्या अमेरिका की तरह भारत में भी जनमत की अदालत उनके पास पहले से ही नहीं है? हालांकि, इसको लेकर जनता की राय आधिकारिक रूप या सर्वे के रूप में सामने नहीं आई है।