अदालत के सबूत का भार सिद्धांत को निर्दोष व्यक्ति के लिए बहुत ही ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता है! कानूनी भाषा में एक शब्द होता है ‘सबूत का बोझ’। इसका मतलब यह साबित करने का काम है कि आप सही हैं। आमतौर पर माना जाता है कि जो आरोप लगा रहा है, सबूत का भार उसी पर है। हथियार डीलर संजय भंडारी के केस का जिक्र करते हुए प्रसिद्ध भारतीय अर्थशास्त्री स्वामीनाथन अय्यर ने हमारे सहयोगी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया में इस पर एक लेख लिखा है। उन्होंने भारतीय और ब्रिटिश कानून की बारीकियों को समझाते हुए एक गंभीर विषय की ओर ध्यान खींचा है। सबूत के बोझ को लेकर गुजरात हाई कोर्ट की एक महत्वपूर्ण टिप्पणी भी है। कोर्ट ने कहा है कि सबूत का बोझ उस व्यक्ति पर होता है जिसे कोई तथ्य साबित करना होता है और यह कभी बदलता नहीं है, लेकिन ‘साबित करने का बोझ’ का स्थान बदलता रहता है।
भारत में किसी आरोपी को निर्दोष साबित होने तक दोषी समझा जाता है। कथित हथियार डीलर संजय भंडारी के प्रत्यर्पण का मामला इस मानक को चुनौती देने का मजबूत आधार बन सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने बिल्कुल सही कहा है कि कानूनी प्रक्रिया अपने आप में एक सजा बन गई है। राजनीतिक बदले की कार्रवाई में लोगों और संस्थानों को सबक सिखाने के लिए पुलिस और टैक्स अधिकारियों की ओर से छापेमारी की जाती है।राजद्रोह, गैरकानूनी गतिविधियों, हेट स्पीच और मनी लॉन्ड्रिंग पर कानून अपराध को व्यापक रूप से परिभाषित करते हैं। किसी व्यक्ति के खिलाफ कई शहरों में केस शुरू हो सकते हैं, ऐसे में बचाव पक्ष के लिए देशभर में कई वकीलों को हायर करना जरूरी हो जाता है। भले ही टारगेटेड शख्स निर्दोष हो, पर उसका/उसकी प्रतिष्ठा और मानसिक शांति खत्म हो जाती है।
गंभीर केस को छोड़कर सभी मामलों में अपराध मान लेने वाली सोच पर प्रतिबंध लगाने के लिए एक मूवमेंट की जरूरत है जिससे सुप्रीम कोर्ट को सख्त शर्तें तय करने के लिए राजी किया जाए। इसकी शुरुआत काला धन और मनी लॉन्ड्रिंग पर भारतीय कानूनों के तहत अपराध के लिए कथित हथियार डीलर संजय भंडारी के लंदन से प्रत्यर्पण के सरकार के प्रयास से हो सकती है। विजय माल्या जैसे बड़े बिजनसमैन के प्रत्यर्पण के दूसरे मामलों ने खूब सुर्खियां बटोरी हैं लेकिन भंडारी के मामले ने कम ध्यान खींचा है। फिर भी यह महत्वपूर्ण साबित हो सकता है।
भंडारी का दावा है कि वह राजनीतिक प्रतिशोध का शिकार हुआ है। दूसरे प्रत्यर्पण मामलों जैसे नीरव मोदी के केस में ग्लोबल वाचडॉग इंटरपोल ने रेड नोटिस जारी किया है। लेकिन इसकी वेबसाइट कहती है कि भंडारी के खिलाफ ऐसा कोई नोटिस नहीं है। ऐसे में भंडारी दावा करता है कि यह इस बात का सबूत है कि इंटरपोल को बदले की कार्रवाई के उसके दावों में सच्चाई लगी है।
भंडारी के वकील टॉप प्रत्यर्पण एक्सपर्ट एडवर्ड फिट्जराल्ड हैं, जो इटली के पूर्व पीएम बर्लुस्कोनी, विकिलीक्स के फाउंडर जूलियन असांज और भारतीय भगोड़े मेहुल चोकसी समेत कई हाई-प्रोफाइल लोगों का केस लड़ चुके हैं। जिस काला धन कानून के तहत भंडारी के प्रत्यर्पण की मांग की जा रही है, उसमें अपराध का अनुमान लगाया गया है। वकील एडवर्ड ने कोर्ट में दलील रखी है कि काला धन रोकथाम अधिनियम 2015 का सेक्शन 54 बचाव पक्ष पर प्रूफ का बोझ लादकर मानवाधिकारों का उल्लंघन करता है।ब्रिटिश कानून के तहत किसी भी आरोपी के दोषी पाए जाने से पहले उसकी आपराधिक मनोस्थिति या गिल्टी माइंड साबित होना चाहिए। लेकिन ऐक्ट का सेक्शन 54 कहता है, ‘इस ऐक्ट के तहत किसी भी अपराध के लिए किसी भी अभियोजन में आरोपी की आपराधिक मानसिक स्थिति जरूरी है, कोर्ट इस तरह की मानसिक स्थिति को मान लेगा।’
हो सकता है कि सबूत के बोझ को पलटना आतंकवाद जैसे एक्स्ट्रीम केसेज में जरूरी हो। लेकिन यह अप्रोच भारत में हर जगह फैल गया है। यह दहेज तक भी जा पहुंचा है और इस पुरानी प्रथा को अवैध घोषित किया जा चुका है। रिवाज के कारण पत्नियों के लिए दहेज की मांग की शिकायत करना मुश्किल हो जाता है इसलिए निर्दोष साबित होने तक पतियों को दोषी मानने के लिए कानून में बदलाव किया गया। यहां तक कि वैवाहिक विवाद में वकील महिला क्लाइंट को दहेज की मांग के झूठे आरोप लगाने की सलाह भी दे देते हैं। एक प्रथा के अन्याय को सुधारने के प्रयास ने एक नया अन्याय शुरू कर दिया है।सुप्रीम कोर्ट द्वारा ऐसे कानूनों के समग्र दृष्टिकोण की समीक्षा के लिए मानवाधिकार संगठनों को मिलकर प्रयास करना चाहिए। अदालत को सबूत के बोझ के अपात्र आवेदन को रोकना चाहिए और एक्स्ट्रीम केसेज के लिए गाइडलाइंस सख्त होनी चाहिए। दूसरे लोकतांत्रिक देशों में यह प्रमुख मानवाधिकार है। ऐसा भारत में भी होना चाहिए।