Sunday, December 22, 2024
HomeIndian Newsअमेरिका की दोगली नीति के क्या है मायने?

अमेरिका की दोगली नीति के क्या है मायने?

अमेरिका हर मामलों में दोगला ही रहा है! चीन – ताइवान तनाव चरम पर है। चीन से महज 100 किलोमीटर की दूरी पर है ताइवान। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की ताकत क्या है। कितने जंगी विमान हैं। कितने एयरक्राफ्ट कैरियर या मिसाइल। वो रत्ती भर भी नहीं घबराता है। इसके पीछे उसका इतिहास है। शी जिनपिंग, हू चिंताओ और जियांग जेमिन। तीनों चीन के राष्ट्रपति और पीएलए के सुप्रीम कमांडर रहे हैं। ये पिछले 30 साल का दायरा है। इस दौरान देश-दुनिया से तार्रुफ रखने वाले मेरा जैसा इनकी धमकियों को लगातार सुनता रहा है । खबरदार, अगर ताइवान को मान्यता दी, वहां गए तो बर्बाद कर देंगे। जिनपिंग के विदेशमंत्री वांग यी ने यही धमकी अमेरिका को दी। नैन्सी पेलोसी अगर ताइवन में घुसती हैं तो प्लेन शूट कर दिया जाएगा। अमेरिका आग से न खेले, जल जाएगा। सब गीदड़भभकी साबित हुई। जब आप ये पढ़ रहे होंगे तब पेलोसी पूरी राजकीय सम्मान के साथ ताइपेई एयरपोर्ट से दक्षिण कोरिया पहुंच गई होंगी। हम अगर अपने देश की बात करें तो भले ही वन चाइना पॉलिसी को मानते हों लेकिन व्यावहारिक तौर पर ताइवान से रिश्ते किसी अलग देश जैसे ही हैं। 1995 में हमने भारत-ताइपेई एसोसिएशन के तहत वहां दफ्तर खोला। बस हम इसे दूतावास नहीं कहते। इसी साल ताइवान ने दिल्ली में ताइपेई इकॉनमिक एंड कल्चर सेंटर खोला था। 2020 में मोदी सरकार ने गौरंगलाल दास को ताइवान में बतौर डिप्लोमैट तैनात किया। वो इससे पहले विदेश मंत्रालय के यूएस डिविजन के हेड रह चुके हैं। वही यूएस जिसको डराने के लिए जिनपिंग की सेना ताइवान के चारों ओर लाइव फायर ड्रिल कर रही है।चीन में गृहयुद्ध के बाद च्यांग काई शेक ताइवान तक सीमित रह गए। यहां मार्शल लॉ लग गया। कई दशकों तक कुओमिंताग (केएमटी) का वर्चस्व रहा लेकिन 1996 में पहली बार राष्ट्रपति पद के लिए सीधे चुनाव हुए। शुरुआत में तो असली चीन कौन है इसी पर जिच बना रहा। यहां तक कि अमेरिका ने भी ताइवान वाले हिस्से को ही असली चीन की मान्यता दी थी। इधर बीजिंग मानता रहा है कि ताइवान उसका अभिन्न हिस्सा है और एक न एक दिन उसे मेनलैंड चाइना के साथ मिलाया जाएगा।

अब इतिहास में चलते हैं। दूसरे विश्व युद्ध तक ताइवान पर जापान का कब्जा था। लेकिन जंग में हार के बाद 1945 में जापान को यहां से हटना पड़ा। ताइवान पर चीन का कब्जा हो गया। इसके बाद चाइनीज नेशनलिस्ट पार्टी के नेता च्यांग काई शेक ने मिलिट्री डिक्टेटरशिप शुरू कर दिया। कम्युनिस्टों और च्यांग काई शेक की सेना के बीच भीषण गृह युद्ध शुरू हो गया। 1949 तक माओ की रेड आर्मी ने नेशनलिस्ट पार्टी को बुरी तरह कुचल दिया। मजबूर होकर कम्युनिस्ट विरोधी च्यांग काई शेक ताइवान आ गए। माओ ने ताइवान पर हमले की तैयारी कर ली। तभी कोरियाई प्रायद्वीप में लड़ाई शुरू हो गई। ये अमेरिका के लिए लिटमस टेस्ट था। कम्युनिस्टों के खिलाफ लड़ाई में अमेरिका ने च्यांग काई शेक की मदद मांगी। इसके बाद माओ को कदम पीछे हटाने पड़े।

अमेरिका की मदद से च्यांग काई शेक ने ताइवान को ही असली रिपब्लिक ऑफ चाइना घोषित कर दिया। साथ ही माओ के इलाके पर कब्जा करने की कसम खाई। ये अजीब स्थिति थी। दो चीन दुनिया के मैप पर आ गया। अब अंतरराष्ट्रीय कूटनीतिक लड़ाई छिड़ गई। इस बात की होड़ मची कि दुनिया के कौन-कौन से देश माओ के चीन को मान्यता देते हैं और कौन च्यागं काई शेक के चीन को। शुरुआत में च्यागं काई शेक को सफलता मिली। यूएन में भी उसे ही रिपब्लिक ऑफ चाइना के तौर पर मान्यता दी गई।

स्वार्थ के लिए फिसलता अमेरिका

अपने स्वार्थ के लिए किसी भी सिद्धांत को ताक पर रखने वाला अमेरिका पुराना गिरगिट है। हम आप जानते हैं कैसे रूस को रोकने के लिए अफगानिस्तान में उसने पाकिस्तान का इस्तेमाल किया। जरूरत पड़ी तो ब्लैकमेल भी हुआ और भारत के खिलाफ पाकिस्तान को धन दौलत से लेकर हथियार भी दिए। जब जरूरत खत्म हो गई तो भारत में उसे स्ट्रैटेजिक पार्टनर दिखाई दे रहा है। लद्दाख और अरुणाचल में चीन के नापाक मंसूबों पर वो हमारे साथ कैसे खड़ा है इसकी बानगी रूस-यूक्रेन जंग में हमने देख ही ली है। स्वार्थी अमेरिका ने रूस पर दबाव बनाने के लिए हमको मोहरा बनाने की कोशिश की। यहां तक कह दिया कि चीन अगर भारत की सीमा में घुसता है तो अमेरिका चुप नहीं बैठेगा। तो गिरगिट ने कोरियन वॉर के बाद रंग बदल लिया। च्यागं काई शेक की जरूरत खत्म हो गई। 60 के दशक में क्यूबा मिसाइल क्राइसिस के बाद अमेरिका के लिए रूस दुश्मन नंबर वन बन गया। उधर रूस और माओ के चीन के बीच छत्तीस का आंकड़ा था। अब आप समझ गए होंगे कि अमेरिका ने कौन सा रास्ता चुना।

1996 में चीन ने ताइवान की तरफ मिसाइल टेस्ट किए। मकसद था चुनाव में चीनविरोधी नेता डेंग को डराया जाए और वोटिंग रोक दी जाए। अमेरिकी रक्षा मंत्री विलियम पेरी ने इसका जबर्दस्त विरोध किया। आप पूछेंगे क्यों तो जवाब सोवियत संघ के विघटन में मिलेगा। शीत युद्ध खत्म होने के बाद अमेरिका के लिए रूस नहीं बल्कि चीन पर नजर रखना जरूरी था। तो तपाक से अमेरिका ने अपनी सैन्य ताकत का एहसास करा दिया। वियतनाम युद्ध के बाद एशिया में सबसे बड़ा मिलिट्री ड्रिल करने अमेरिकी बेड़ा आ चुका था। चीन परेशान था। कैसे अमेरिका को रोका जाए। बेबस चीन ने अटैक करने का प्लान छोड़ दिया।

फिर 2005 में चीन ने कानून पासकर दुनिया को बताया कि अगर ताइवान ने औपचारिक तौर पर अपने को आजाद घोषित किया तो हमला किया जाएगा। ये ताइवान को डराने का औजार बना जो काम नहीं आया। ताइवान के नौजवानों ने इसका विरोध किया। 2014 में चीन के साथ फ्री डील के विरोध में नौजवान सड़कों पर आ गए। 2019 में हांगकांग के लोकतंत्र समर्थकों के साथ जो हुआ उसके बाद तो ताइवानियों मे चीन के खिलाफ गुस्सा और भड़क गया। 2020 में चीन ने प्रौपगेंडा वीडियो जारी कर दिखाया कि अगर अमेरिका बीच में आया तो तो कैसे ग्वाम बेस को चीन के फाइटर जेट उड़ा देंगे।चीन और अमेरिका दोनों परमाणु महाशक्ति हैं। दोनों को पता है कि धमकी अगर एक छोटी गलती में बदल गई तो इसके भयानक परिणाम होंगे।

Disclaimer:

Mojo Patrakar may publish content sourced from external third-party providers. While we make every reasonable effort to verify the accuracy, reliability, and completeness of this information, Mojo Patrakar does not guarantee or endorse the views, opinions, conclusions, or authenticity of content provided by these third-party entities. Such content is presented solely for informational purposes, and it is not intended to substitute professional advice or to serve as a comprehensive basis for decision-making.

Mojo Patrakar expressly disclaims any liability for errors, omissions, or inaccuracies that may arise from third-party content, as well as any reliance readers may place upon it. Users are strongly encouraged to conduct independent verification and consult with qualified professionals as necessary before making any decisions based on information obtained through Mojo Patrakar.

RELATED ARTICLES

Most Popular

Recent Comments