आखिर क्या था रामपुर तिराहा कांड?

0
90

आज हम आपको रामपुर तिराहा कांड के बारे में जानकारी देने जा रहे हैं! रामपुर तिराहा की 01 अक्टूबर 1994 की उस रात को महिला आंदोलनकारियों के साथ जो बर्बरता हुई उसे आज तक कोई भुला नहीं पाया है। शहीद हुए आंदोलनकारियों के तो शरीर गोली से छलनी हुए, लेकिन मातृशक्ति का तो स्वाभिमान ही सड़क पर छलनी हो गया था। राज्य प्राप्ति आंदोलन में सर्वस्व गंवाने वाली महिला आंदोलनकारियों ने तीन दशक तक न्याय का इंतजार किया। आज जब दो दोषी सिपाहियों को उम्रकैद का फैसला आया तो उन पीड़िताओं के जख्मों पर मरहम लगा, जो हर रोज उस भयावह मंजर को याद कर सिहर जाती हैं, लेकिन राज्य आंदोलनकारियों का एक सवाल आज भी वही है कि आखिर इस कांड के लिए आदेश देने वाले अधिकारियों पर कार्रवाई कब होगी। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, उस भयावह रात का काला सच जब सुबह सामने आया तो रामपुर तिराहा का वो मंजर देख हर कोई सिहर गया। घायल आंदोलनकारियों और वहशी पुलिसकर्मियों का शिकार बनीं महिलाओं को स्थानीय लोगों ने सहारा दिया। बस से लेकर खेतों तक फैले कपड़े रात को हुई पुलिस की बर्बरता को बयां कर रही थीं। किस तरह वे महिलाएं वहां से निकल कर अपने घरों तक पहुंचीं और तब से अब तक प्रताड़ना के किस दौर से वे गुजरी होंगी, उनका दर्द शायद ही कोई महसूस कर सकता है। जिस दुष्कर्म को लेकर समाज आाज भी महिलाओं को ही दोषी ठहराता है तो आज से तीन दशक पहले पीड़िताओं ने क्या कुछ नहीं झेला इसे कोई नहीं समझ सकता है। दबी जुबान में लोगों ने उन पीड़िताओं को ही निशाना बनाया। किसी ने यह नहीं सोचा कि वे तो राज्य आंदोलन में जा रही थीं, लेकिन रास्ते में बर्बरता का शिकार हो गई तो ऐसे में उनकी क्या गलती है। जीवनभर इसी दंश के साथ वे जीती रहीं।

इन हालात में वे न तो अपनी बात किसी से कह सकती हैं और न ही इस फैसले पर खुशी जता सकती हैं। तीन दशक तक न्याय की आस में पीड़िताओं ने समय गुजार दिया। उनमें से कइयों का तो इस फैसले को सुनने से पहले निधन हो चुका है। जो जीवित हैं, शायद यह फैसला उनके घावों पर मरहम का काम कर सके। राज्य आंदोलन के यज्ञ में मातृशक्ति ने अपनी अस्मिता की सबसे बड़ी आहुति दी, जिन्होंने इस आंदोलन में अपने भाई, पति और बेटों को खो दिया और अंत में सामूहिक दुष्कर्म का शिकार बनीं। कुछ महिलाओं को इलाहाबाद हाई कोर्ट के आदेश के बाद मुआवजा मिला, लेकिन कई महिलाएं तो समाज के डर से आगे भी नहीं आईं।

रामपुर तिराहा कांड के बाद आंदोलनकारियों का अलग पहाड़ी राज्य आंदोलन ने जोर पकड़ा। लंबे संघर्ष के बाद 09 नवंबर, 2000 को उत्तर प्रदेश से अलग राज्य उत्तराखंड बना। इस रामपुर तिराहा कांड में कई पुलिसकर्मियों और प्रशासनिक अधिकारियों पर एफआईआर दर्ज हुई और फिर 1995 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सीबीआई जांच के आदेश दिए। कांड में दो दर्जन से अधिक पुलिसवालों पर रेप, डकैती, महिलाओं के साथ छेड़छाड़ जैसे मामले दर्ज हुए। साथ ही सीबीआई के पास सैकड़ों शिकायतें दर्ज हुईं।

रामपुर तिराहा कांड मामले में पीएसी के दो सिपाहियों पर 15 मार्च को दोष सिद्ध हो चुका था। अपर जिला एवं सत्र न्यायालय संख्या-7 के पीठासीन अधिकारी शक्ति सिंह ने सुनवाई की और दोनों दोषी सिपाहियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। कोर्ट ने दोषियों पर 40 हजार रुपये अर्थदंड भी लगाया है। शासकीय अधिवक्ता फौजदारी राजीव शर्मा, सहायक शासकीय अधिवक्ता फौजदारी परवेंद्र सिंह, सीबीआई के विशेष लोक अभियोजक धारा सिंह मीणा और उत्तराखंड संघर्ष समिति के अधिवक्ता अनुराग वर्मा ने बताया कि सीबीआई बनाम मिलाप सिंह की पत्रावली में सुनवाई पूरी हो चुकी है। अभियुक्त मिलाप सिंह और वीरेंद्र प्रताप सिंह पर दोष सिद्ध हुआ था।

वर्ष 2010 से रुड़की सिविल लाइन निवासी अधिवक्ता केपी शर्मा शासकीय अधिवक्ता की जिम्मेदारी निभा रहे थे, लेकिन गत वर्ष उनके इस्तीफा देने के बाद वकील नियुक्त नहीं हो पाए। गृह विभाग ने हरिद्वार से शासकीय अधिवक्ता कुशल पाल सिंह चौहान को शासकीय अधिवक्ता नामित करने की कार्रवाई प्रारंभ की, लेकिन विधिवत आदेश नहीं किए गए। कोर्ट में सबूत पेश करने, गवाही और जिरह करने की मुख्य भूमिका सीबीआई के अधिवक्ताओं की होती है और राज्य के वकील इसमें सहायक के रूप में होते हैं। इस फैसले पर उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलनकारी मंच के अध्यक्ष जगमोहन सिंह नेगी ने कहा कि देरी से आए इस फैसले को न्याय नहीं कहा जा सकता है। रामपुर तिराहा कांड के बाद आंदोलनकारियों की पहली मांग न्याय की थी। जिसको लेकर हम सुप्रीम कोर्ट भी गए थे, क्योंकि बीच में फाइलें गायब हो गई थीं। सुप्रीम कोर्ट गाइडलाइन है कि पीड़ित जहां का होता है, वहीं पर केस चलता है।ऐसे में गढ़वाल मंडल के केस की सुनवाई देहरादून और कुमाऊं मंडल की सुनवाई नैनीताल में होनी चाहिए थी, लेकिन देहरादून से यह कब मुजफ्फरनगर शिफ्ट हो गई आज तक कोई नहीं जान पाया। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद मामले में तेजी आई। फैसला देरी से आया, लेकिन कुछ आस जगी है। इस पूरे प्रकरण के आरोपी तत्कालीन डीएम अनंत कुमार और डीआईजी बुआ सिंह के खिलाफ भी कार्रवाई होनी चाहिए, तभी न्याय को पूर्ण माना जाएगा।

रामपुर तिराहा की उस रात गोलीकांड की प्रत्यक्षदर्शी, सीबीआई की गवाह और राज्य आंदोलनकारी कल्याण परिषद की पूर्व अध्यक्ष ऊषा नेगी ने फैसले को पीड़िताओं के जख्म पर हल्का सा मरहम लगने की बात कही है। इतना लंबा इंतजार, कई तो न्याय के इंतजार में दुनिया से विदा हो गईं। यहां तक कि उनके परिजन भी इस फैसले को सुनने के लिए नहीं रहे। हां, इतना जरूर है कि सभी ने कोर्ट में सम्मान की लड़ाई लड़ी और आज यह फैसला आया। इन दोषी सिपाहियों के लिए तो उम्रकैद की सजा कुछ भी नहीं है। इन्हें तो फांसी होनी चाहिए। यह फैसला अभी निचली अदालत से आया है और इनके पास ऊपरी अदालत के विकल्प खुले हैं। ऐसे में हम सभी एक बार फिर से राज्य आंदोलन की तर्ज पर एकजुट होकर कोर्ट में लड़ाई लड़नी होगी। सशक्त पैरवी करनी होगी। अगर इस मामले में जल्द फैसला आता तो राहत मिलती।पीड़िताओं को मुआवजा देकर उनका आत्मसम्मान तो नहीं लौटाया सकता है। राज्य आंदोलन में शहादतों के साथ ही इन महिलाओं ने अपने स्वाभिमान की सबसे बड़ी आहुति दी है। उनके साथ जघन्य अपराध हुआ। इस पूरे कांड को अंजाम देने के लिए आदेश करने वाले तत्कालीन डीएम और डीआईजी को जब तक सजा मिलेगी, तभी थोड़ा राहत मिल पाएगी।