यह सवाल उठना लाजिमी है कि 17 राज्यों में सरकार बनाने के बाद अब मोदी क्या करेंगे! क्या हार में क्या जीत में, किंचित नहीं भयभीत मैं। संघर्ष पथ पर जो मिले यह भी सही वह भी सही।’ शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ की यह कविता में एक दर्शन है। हिंदी का एक शब्द है- स्थितप्रज्ञ। कविता के दर्शन का आधार यही शब्द है। और अगर इस दर्शन और उसके आधार को संयुक्त प्रतीक में ढाल दें तो एक नाम बनता है- नरेंद्र मोदी। तीन प्रमुख प्रदेशों में विधानसभा चुनाव की हैरतअंगेज जीत के शिल्पकार की यह भाव-भंगिमा देखकर आप क्या कहेंगे? जब सैकड़ों जोड़ी हाथ से तालियों की गड़गड़ाहट संसद भवन में गूंज रही हो, मोदी-मोदी के नारे लग रहे हों तब वहीं बैठे मोदी बिल्कुल धीर-गंभीर। अद्भुत उपलब्धियों का कोई अहंकार नहीं, चेहरे पर गर्व का कोई प्रमाण नहीं। मोदी इसलिए मोदी हैं। जीत गए तो जश्न जरूर है, लेकिन आंतरिक आनंद का भौंडा प्रदर्शन कभी नहीं। कभी अटल बिहारी वाजपेयी ने पुरानी संसद में कहा था- हम तो जीतकर भी विनम्र हैं, हार में तो आत्ममंथन होना चाहिए। विनम्रता जीत की मिठास बढ़ा देती है, मोदी भी यह अच्छे से जानते हैं। यह तस्वीर उनकी इस समझ की प्रतीक है। राजनीति में जीत-हार का क्रम चलता रहता है। जो जीत की खुशी में दायरे लांघ जाए, हदें पार कर जाए वो निश्चित रूप से खोखला है। खोखला व्यक्ति कभी किसी का आदर्श नहीं बन सकता- न राजनीति का, न ही समाज का। और राजनीति की विशेष शर्त है कि वो उसी को जीत का जयमाल पहनाती है जिसे समाज अपना आदर्श मान ले। आज मोदी ने सारे विशेषज्ञ अनुमानों, सारे एग्जिट पोल्स को धता बताकर न केवल राजस्थान की जीत सुनिश्चित की बल्कि वो मध्य प्रदेश में ‘शिव-राज’ को बचाने में मददगार बने। इन सबसे भी ऊपर, उन्होंने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस से सत्ता की कुर्सी छीनने का चमत्कार सी लगने वाली उपलब्धि हासिल की। जीत के बाद उन्होंने बीजेपी मुख्यालय से मतदाताओं को धन्यवाद और विजेताओं को शुभकामनाएं दीं, लेकिन विरोधियों पर प्रहार नहीं किया।
पीएम मोदी ने बीजेपी मुख्यालय के अपने भाषण के आखिर में विपक्ष से बड़े ही सधे शब्दों में कहा- नकारात्मक राजनीति छोड़िए और देश की प्रगति में हाथ बंटाइए। उन्होंने विपक्ष से यह अपील संसद सत्र के शुरुआत में मीडिया को संबोधित करने की परंपरा निभाते हुए भी जारी रखी। पीएम ने विपक्ष को फिर सलाह दी कि वो अब से ऐसा नहीं करें जिससे देशवासियों के मन में उनके प्रति संदेह गहराते रहें। उन्होंने अपने संबोधन में एक मजबूत विपक्ष पर जोर दिया। फिर संसद पहुंचे तो मोदी-मोदी के नारों के बीच बिल्कुल धीर-गंभीर बने रहे। सवाल है कि क्या विपक्ष और खासकर राहुल गांधी कुछ सीखेंगे? पूरी आशंका है कि मोदी विरोधी और राहुल के समर्थक तो इस सवाल से ही भड़क जाएंगे। उनकी दलील होगी कि यह मोदी-भक्ति की पराकाष्ठा है। मोदी इतने महान नहीं कि किसी को, खासकर राहुल को उनसे सीखना पड़े। वो सही हो सकते हैं, लेकिन कहते हैं ना कि सीखा तो बच्चे से भी जा सकता है। फिर मोदी के जादुई व्यक्तित्व के कायल तो भरे पड़े हैं। आखिर कुछ तो उनमें जरूर खास है। फिर उनसे सीखने में क्या हर्ज?
किसी से भी, किसी को सीखने में दिक्कत तभी हो सकती है जब तल्खी, दुश्मनी से भी ऊपर के स्तर की हो। वरना कहा तो यही जाता है कि हमें दुश्मन से भी सीखनी चाहिए। मैले पर पड़ा सोना भला कौन नहीं उठाएगा? वस्तु मूल्यवान हो तो भला कौन देखता है कि वह पड़ा कहां है? ऐसी परिस्थिति में वस्तु के बजाय उसकी स्थिति पर ध्यान देना समझदारी भी तो नहीं। उसे पाने का जोखिम बहुत बड़ा हो तो जरूर सोचना चाहिए। लेकिन जब परिस्थिति ऐसी हो कि चीज भी हाथ लग जाए और किसी को कानोंकान खबर भी न हो तो समझदारी उसे हासिल करने में ही है। मोदी की दी हुई सलाह या उनके व्यक्तित्व के आकर्षक पहलुओं से सीखना भी तो कुछ इसी तरह का मामला है। मोदी का विरोध जारी रखिए, लेकिन उनसे सीखिए। दोनों प्रक्रिया साथ-साथ चले तो संभव है कि एक दिन आपके मोदी विरोध को धार मिल जाए और मोदी से सीखकर ही मोदी को कमजोर कर दें।
आखिर, कई बड़े विश्लेषक यही तो कहते हैं कि मोदी ने अपने ऊपर फेंके पत्थरों से ही अपनी लोकप्रियता का आलीशान महल खड़ा कर लिया। यह कला तो हर किसी को आनी चाहिए, खासकर नेताओं को। भला इसमें क्या होशियारी कि किसी का विरोध करते-करते खुद का नुकसान करते जाएं और यह सिलसिला कभी खत्म ही नहीं हो। बेहतर तो यही है कि थोड़ा रुकें और पीछे मुड़कर देखें कि उस विरोध का हासिल क्या है। राहुल गांधी हों या मोदी-विरोध में आकंठ डूबा कोई और शख्स, अपने ‘दुश्मन’ से सीखने में हर्ज नहीं, होशियारी है। ‘पनौती अभियान’ का फायदा हुआ या नुकसान, अभियान के अगुवा राहुल गांधी इसका आकलन करेंगे?