Saturday, March 15, 2025
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जब मोरारजी देसाई को रास्ते से हटाकर इंदिरा गांधी ने की मनमानी!

एक समय ऐसा भी था जब मोरारजी देसाई को इंदिरा गांधी ने रास्ते से हटाकर कई बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था! पड़ोसी मुल्क श्रीलंका कितने बुरे दौर से गुजर रहा है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वहां 4 महीने में 4 बार आपातकाल लगाया जा चुका है। आपातकाल का जिक्र होते ही भारत के लोगों को इंदिरा गांधी जरूर याद आती हैं, जिन्होंने 1975 में इमरजेंसी लगाई थी, जो करीब 21 महीनों तक चली।19 जुलाई का दिन भी इंदिरा गांधी के लिए बहुत बड़ा दिन था, क्योंकि इसी दिन 1969 में उन्होंने 14 बैंकों के राष्ट्रीयकरण का कानून पारित किया था। 14 बैंकों को नेशनलाइज कर देना उनके राजनीतिक करियर की पहली जीत थी। साल 1969 एक-दो नहीं, बल्कि तीन बड़ी घटनाओं का गवाह बना। पहला तो ये कि 14 बैंक नेशनलाइज हुए, दूसरा ये कि राष्ट्रपति चुनाव हुए और तीसरा ये कि उसी साल कांग्रेस पार्टी के दो हिस्से हुए। ये साल इंदिरा गांधी के राजनीतिक करियर में एक के बाद एक तीन बड़ी जीत दिलाने वाला साबित हुआ।

कैसे हुआ राष्ट्रीयकरण?

14 बैंकों को नेशनलाइज करना भी आसान नहीं था। बताया जाता है कि तत्कालीन वित्त मंत्री मोरारजी देसाई बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पक्ष में नहीं थे। ऐसे में जुलाई 1969 में ही मोरारजी देसाई से इंदिरा गांधी ने वित्त मंत्रालय का प्रभार वापस ले लिया, जो 1967 में ही उन्हें दिया गया था। दुखी मोरारजी देसाई ने कुछ समय बाद अपने उप-प्रधानमंत्री पद से भी इस्तीफा दे दिया। ये वही वक्त था, जब 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया। 17 जुलाई 1969 को 14 बैंकों के राष्ट्रीयकरण के अध्यादेश पर काम शुरू हुआ और 19 जुलाई 1969 को आनन-फानन में ‘बैंकिंग कम्पनीज ऑर्डिनेंस’ को लागू भी कर दिया गया। बाद में इसी नाम से विधेयक पारित हुआ और कानून बन गया।19 जुलाई 1969 को 14 बैंकों के राष्ट्रीयकरण का अध्यादेश लागू करना इंदिरा गांधी की पहली जीत थी। इसके अलावा इसी साल राष्ट्रपति पद के लिए खड़े उनके चहेते निर्दलीय कैंडिडेट वीवी गिरी जीत गए, जो इंदिरा गांधी की दूसरी बड़ी जीत साबित हुई। इसके बाद 12 नवंबर 1969 को कांग्रेस के दो हिस्से हो गए। कुछ वक्त बाद इंदिरा गांधी वाली पार्टी फिर सत्ता में आई और दूसरी पार्टी (कांग्रेस ‘ओ’) का नामोनिशां मिट गया। यह इंदिरा गांधी की तीसरी और निर्णायक जीत साबित हुई। देखने में भले ही ये तीनों घटनाएं अलग-अलग लग रही हों, लेकिन तीनों एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। 14 बैंकों के राष्ट्रीयकरण के लिए मोरारजी देसाई को किनारे करने से पार्टी के कुछ लोग खफा हुए। बचे हुए लोग राष्ट्रपति चुनाव में निर्दलीय कैंडिडेट को इंदिरा गांधी की तरफ से समर्थन देने पर खफा हुए। और इन दोनों घटनाओं का नतीजा हुआ कि कांग्रेस पार्टी दो टुकड़ों में बंट गई।

क्यों किया बैंकों का राष्ट्रीयकरण?

उस दौर में 14 बड़े बैंकों के पास देश की करीब 70 फीसदी पूंजी हुआ करती थी। बैंक प्राइवेट थे, इसलिए वह उन्हीं सेक्टर में पैसा लगाते थे, जहां से उन्हें ढेर सारा मुनाफा मिल सके। वहीं इंदिरा गांधी सामाजिक, कृषि, लघु उद्योग और निर्यात जैसे सेक्टर में इन पैसों का इस्तेमाल करना चाहती थीं। 14 बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पीछे यह एक बड़ी वजह थी। वहीं दूसरी ओर एक रिपोर्ट के मुताबिक 1947 से लेकर 1955 तक करीब 360 छोटे बैंक डूब गए, जिनमें लोगों का जमा करोड़ों रुपया भी डूब गया। कई बैंक काला बाजारी और जमाखोरी के धंधों में पैसे लगाने लगे। ऐसे में राष्ट्रीयकरण एक जरूरी कदम हो गया, ताकि ऐसे बैंकों पर भी लगाम कसी जा सके। साथ ही इससे जनता का पैसा सुरक्षित करने का एक मौका भी मिला।

देखा जाए तो बैंकों के राष्ट्रीयकरण से कई फायदे हुए तो कुछ नुकसान भी झेलने पड़े। राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों की शाखाओं में तगड़ी तेजी देखने को मिली। पहले जो बैंक सिर्फ शहरों में अपनी सेवाएं देते थे, अब उन्होंने गांव-देहात का भी रुख कर लिया। आंकड़ों के अनुसार जुलाई 1969 में देश में बैंकों की 8322 शाखाएं थीं, लेकिन 1994 तक ये आंकड़ा साढ़े सात गुना से भी अधिक बढ़कर 60 हजार के करीब हो गया। शाखाएं बढ़ने और अधिक लोगों तक पहुंच होने के चलते बैंकों के पास ढेर सारा पैसा जमा हो गया, जिसे बाद में लोन की तरह बांटा गया। इससे तमाम उद्योग धंधे भी बढ़े और रोजगार भी पैदा हुआ। हालांकि, इस दौर में ही बहुत सारे लोगों को आंख मूंद कर पैसे देने का काम हुआ, जिसके चलते बैंकों का एनपीए बढ़ने लगा। आज के वक्त में बैंकों का एनपीए करीब 8 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच चुका है।

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