एक ऐसा समय जब कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा बना! 26 अक्टूबर 1947 वो तारीख, जिस दिन जम्मू-कश्मीर रियासत भारत संघ में शामिल हुई। इस बात को आज 76 साल पूरे हो चुके हैं, फिर भी लोगों के जहन में आज भी ये घटना रहती है। तमाम अखबारों और किताबों में जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय होने की कहानियां छपती हैं। आज हम भी जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय की कहानी बता रहे हैं, हम बताएंगे कि राजा हरी सिंह को तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने इसके लिए कैसे मनाया। कश्मीर के भारत के विलय में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ यानी आरएसएस का क्या योगदान था। ये बात हम सबको पता है कि हरी सिंह विभाजन के वक्त न पाकिस्तान के साथ जाना चाहते थे और न ही भारत के साथ। वो कश्मीर को एक स्वतंत्र राज्य बनाना चाहते थे। हरी सिंह हिंदू थे, लेकिन कश्मीर की ज्यादातर आबादी मुस्लिम थी। विभाजन 15 अगस्त 1947 को हुआ और सितंबर आते-आते कश्मीर में पाकिस्तानी घुसपैठ शुरू हो गई। इधर जेल में बंद शेख अब्दुल्ला को रिहा कर दिया गया। शेख अब्दुल्ला हमेशा मुस्लिम लीग और जिन्ना के विरोधी थे। उनकी रिहाई के बाद पंडित नेहरू से दोस्ती और गहरी होने लगी। ये सब बातें पाकिस्तान और जिन्ना को पच नहीं रही थीं। उसे लगा कि अब कश्मीर भारत में विलय कर लेगा। जैसे-तैसे सितंबर महीना बीता। 22 अक्टूबर आया, और जम्मू-कश्मीर पर पाकिस्तानी कबायलियों ने हमला बोल दिया। पाकिस्तान से घुसे कबायली लड़ाके तेजी से कश्मीर में आगे बढ़ रहे थे। कश्मीर में कत्लेआम मचा था। ये देखकर महाराजा हरी सिंह ने अपनी रियासत को बचाने के लिए भारत सरकार से मदद मांगी।
हरी सिंह 25 अक्टूबर को श्रीनगर छोड़कर जम्मू पहुंच गए। यहां उन्होंने भारत में शामिल होने का फैसला किया। 26 अक्टूबर को हरी सिंह ने भारत के विलय पत्र ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ पर हस्ताक्षर किए। इसके अगले ही दिन भारतीय सेना श्रीनगर पहुंची और कबायलियों को खदेड़ दिया। अब समूचा जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बन चुका था। कुछ इतिहासकार ये भी कहते हैं कि हरी सिंह ने श्रीनगर छोड़ने से पहले ही विलय संधि पर हस्ताक्षर कर दिए थे।
15 अगस्त 1947 से ही सरदार पटेल कश्मीर को भारत में विलय कराने की कोशिश में लग गए थे। जो भी कुछ हो सकता था सरदार पटेल ने वो सब किया। लेकिन राजा हरी सिंह को इसके लिए राजी करना इतना आसान नहीं था। अंत में हरी सिंह को मनाने की जिम्मेदारी RSS प्रमुख गोलवलकर को दी गई। कई इतिहारकारों ने इस घटना का जिक्र किया है। वॉल्टर एंडरसन और श्रीधर दामले की किताब ‘द ब्रदरहुड इन सैफ्रन’, पूर्व IAS अरुण भटनागर की किताब ‘इंडियाः शेडिंग द पास्ट’ में महाराजा हरी सिंह और गुरूजी (गोलवलकर) की मुलाकात का विस्तार से वर्णन है। गुरूजी 17 अक्टूबर 1947 को फ्लाइट से श्रीनगर पहुंचे। उन्होंने 18 अक्टूबर की सुबह महाराज से मुलाकात की। गुरूजी ने महाराजा से भारत में विलय होने की बात कही, तो इसके जवाब में महाराजा ने कहा कि ‘मेरी रियासत पाकिस्तान पर निर्भर है। यहां के रास्ते सियालकोट और रावलपिंडी से गुजरते हैं, तो एयरपोर्ट लाहौर में है। भारत से हमारे रिश्ते कहां हैं?’ इसके जवाब में गुरूजी ने कहा कि आप हिंदू महाराजा हैं। अगर आप पाकिस्तान में गए, तो आपकी हिंदू प्रजा पर संकट आ सकता है। अगर आप भारत में आएंगे तो ये आपकी प्रजा के हित में होगा। इस मुलाकात में गुरूजी ने महाराजा को साफ शब्दों में ये भी कह दिया था कि वो स्वतंत्र रियासत की कल्पना छोड़ दें। उन्होंने महाराजा को पाकिस्तानी हमले से भी आगाह किया था।
महाराजा और गुरूजी की ये बैठक सफल रही। बैठक के बाद महाराजा ने गुरूजी को पश्मीना शाल तोहफे में दी। महाराजा विलय प्रस्ताव दिल्ली भेजने को तैयार हो गए। लेकिन गुरूजी ये बात जानते थे कि ये सब इतना आसान नहीं होगा। उन्होंने संघ के कार्यकर्ताओं से जाते वक्त कहा कि अंतिम क्षण तक जम्मू-कश्मीर की रक्षा करें। इस मुलाकात को हफ्ताभर भी नहीं बीता और कबाइलियों ने कश्मीर पर हमला कर दिया। महाराजा ने नेहरू से मदद मांगी। कृष्ण मेनन कश्मीर पहुंचे, महाराजा ने विलय संधि पर हस्ताक्षर किए। लेकिन अभी भी कश्मीर से संकट नहीं हटा था। दरअसल, श्रीनगर पहुंचने का एक मात्र विकल्प था हवाई मार्ग, लेकिन सर्दियों का महीना था, एयरपोर्ट पर बर्फ जमी थी, रात में मजदूर मिलना मुश्किल था। एंडरसन और दामले की किताब के अनुसार उस वक्त भी संघ के कई कार्यकर्ता फावड़ा लेकर एयरपोर्ट पहुंचे और बर्फ हटाई। इसके बाद सेना श्रीनगर पहुंची और कबायलियों को खदेड़ा।