गुजरात में बीजेपी कैसे बनी है सबसे बड़ा सवाल है! गुजरात बीजेपी का गढ़ बन चुका है! गुजरात को बीजेपी का सबसे मजबूत गढ़ कहा जाता है। इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह यह है कि गुजरात में पार्टी पिछले 27 साल से सत्ता में है। अगर 2022 के चुनाव में पार्टी विजय का क्रम जारी रखती है तो वह गुजरात में शासन करने के मामले में कांग्रेस को पीछे छोड़ देगी। महाराष्ट्र से अलग होकर अस्तित्व में आए इस राज्य में एक ऐसा वक्त था जब कोई बीजेपी को कार्यालय के लिए किराए पर भी प्रॉपर्टी नहीं देता था। लेकिन बापू की जन्मभूमि और सरदार की कर्मभूमि वाले गुजरात में आखिर ऐसा क्या हुआ कि गुजरात गढ़ ही नहीं, बल्कि अब पार्टी के तमाम नए निर्णयों की प्रयोगशाला बन गया है।
गुजरात में बीजेपी के उभार की शुरुआत 1990 की शुरुआत से कुछ पहले हुई। 1980 बनी पार्टी गुजरात में सक्रिय थी। लालकृष्ण आडवाणी बड़े नेता थे। राज्य स्तर पर केशुभाई पटेल, शंकर सिंह वाघेला जैसे नेता थे। अभी पार्टी सात साल पुरानी ही हुई कि पार्टी को नगर निगम चुनावों में जीत मिली। 1987 में अहमदाबाद नगर निगम में कमल खिला। इस जीत ने पार्टी के अंदर मानो एक नई ऊर्जा भर दी। यह वही साल था जब नरेंद्र मोदी बीजेपी में आए, अभी तक वे संघ प्रचारक थे। इसके बाद तीन साल के अंतराल पर जब चुनाव हुए तो पार्टी पहली बार प्रदेश की सत्ता में सबसे बड़ी पार्टी बनने से महज चार सीट दूर थी। जनता दल के पास 70 सीटें थी तो बीजेपी 67 सीटों के साथ दूसरे और कांग्रेस पार्टी तीसरे नंबर थी। उसे सिर्फ 37 सीटें मिलीं थीं। दिलचस्प बात यह थी कि कांग्रेस 30.74 प्रतिशत के बाद भी नंबर तीन पर थी तो वहीं जनता दल को 29.36 फीसदी और बीजेपी को 26.69 फीसदी वोट मिले थे। ये दोनों पार्टियां सीटों के मामले में पहले और दूसरे नंबर पर थीं।
जनता दल के नेता चिमनभाई को मुख्यमंत्री बनना था तो उन्होंने बीजेपी की तरफ हाथ बढ़ाया। 4 मार्च, 1990 को 17 साल के लंबे इंतजार के बाद चिमनभाई पटेल दूसरी बार मुख्यमंत्री बन गए। चिमनभाई को बीजेपी के सहयोग से कुर्सी मिली थी, लेकिन कई मुद्दों पर उनके सैद्धांतिक मतभेद पहले से थे। इस सरकार में केशुभाई पटेल उप मुख्यमंत्री थे। लिहाजा पहले से ही चिमनभाई पटेल कई मुद्दों पर बीजेपी के साथ नहीं थे, वे मुस्लिमों के प्रति नरम रुख रख रहे थे। इसी बीच जब अयोध्या में राम मंदिर मुद्दे विश्व हिंदू परिषद का आंदोलन आगे बढ़ा तो बीजेपी आंदोलन के साथ थी। ऐसे में मतभेद खाई में बदलने लगे। राम मंदिर शिलालेख को लेकर विवाद हुआ। कारसेवकों की रवानगी और बीजेपी की आंदोलन में सक्रियता चिमनभाई को असहज कर रही थी। हालात ऐसे बने कि गतिरोध बढ़ा और आठ महीने बाद गठबंधन टूट गया। दोनों पार्टियों की राहें अलग-अलग हो गईं, हालांकि चिमनभाई पटेल ने कांग्रेस के सहयोग से अपनी सरकार बचा ली। बीजेपी की जगह पर कांग्रेस सरकार में सहयोगी बनी। कांग्रेस ने काफी सारे अहम विभाग लिए। चिमनभाई पटेल को गृह विभाग कांग्रेस को देना पड़ा और सीडी पटेल गृह मंत्री बने।
चिमनभाई पटेल सरकार से बाहर निकलने के बाद बीजेपी के सामने फिर संघर्ष का विकल्प था। सत्ता के लिए अपने संख्या बल को बढ़ाने की बड़ी चुनौती थी। बीजेपी के हटने के बाद चिमनभाई पटेल ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार तो बचा ली थी, लेकिन प्रदेश में बहुत कुछ ऐसा घटित हो रहा था जो वे नहीं चाहते थे और जो वे चाहते थे वह हो नहीं पा रहा था। वजह थे गृह मंत्री सीडी पटेल। इसके चलते प्रदेश में गुंडगर्दी बढ़ने की स्थिति का निर्माण हुआ। तो दूसरी तरफ भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे थे। तभी अहमदााबद में कांग्रेस के सांसद रउफउल्ला की हत्या कर दी गई। आरोप कुख्याल अब्दुल लतीफ के ऊपर लगा। भय के बीच आक्रोश का माहौल था। अहमदाबाद के कुख्यात डॉन लतीफ का खौफ इतना ज्यादा था कि पोपटीयावाड मोहल्ले में जाने से पुलिस भी डरती थी। इस हत्याकांड से कांग्रेस में गुस्सा था लेकिन वह सत्ता में भागीदार थी, इसलिए मुखर होकर नहीं बोल पा रही थी। विपक्ष में बैठी बीजेपी को बैठे-बिठाए सामने से एक बड़ा मुद्दा मिला। बीजेपी नेता केशुभाई पटेल ने लतीफ के गढ़ पोपटीयावाड में लोक दरबार लगाने का ऐलान कर दिया। केशुभाई गए और दरबार लगाया। इतना ही नहीं उन्होंने लतीफ डॉन से कांग्रेस सरकार की मिलीभगत का आरोप भी लगाया। इसका असर यह हुआ कि आम जनमानस में भी यह धारण बन गई कि लतीफ पर चिमनभाई पटेल का हाथ या फिर उनकी चुप्पी है। लोगों के बीच धीरे-धीरे यह मुद्दा बना गया। लोगों में परसेप्शन बना कि इससे बीजेपी ही निपट सकती है। हुआ भी ऐसा ही। 1995 में बीजेपी सत्ता में आई और इसके बाद नंवबर 1997 में लतीफ एक पुलिस एनकाउंटर में मारा गया। 2017 में आई बॉलीवुड मूवी रईस लतीफ के जीवन पर ही थी। इसमें शाहरुख खान ने लतीफ के किरादार को निभाया था।
एक तरफ बीजेपी चिमनभाई पटेल के खिलाफ मोर्चा खोले हुए थी तो दूसरी तरफ राम मंदिर आंदोलन जोर पकड़ चुका था। 12 महीने के अंतराल पर अयोध्या में विवादित ढांचा ढहा दिया गया। इसके बाद मुंबई में सीरियल बम ब्लास्ट हुए। महाराष्ट्र से अलग होकर बने गुजरात में इन सभी बातों की तीखी प्रतिक्रिया थी। रामलला की लहर पर सवार बीजेपी ने कांग्रेस की चुनौती बनी खाम (क्षत्रिय-हरिजन-आदिवासी-मुस्लिम) थ्योरी के खिलाफ हिंदुत्व का कार्ड खेला। इससे पार्टी ने भय, भूख, भ्रष्टाचार हटाने का नारा बुलंद किया। 1992 की अयोध्या की घटना के तीन साल बाद चुनाव हुए तो बीजेपी अपने बूते पर सत्ता में थी। बीजेपी को 121 सीटें मिलीं, जबकि कांग्रेस को 45 और 16 निर्दलीय जीते। जनता दल का सूपड़ा साफ हो गया। ये किसी करिश्मे से कम नहीं था। इस जीत का श्रेय लालकृष्ण आडवाणी, केशुभाई पटेल, शंकर सिंह वाघेला के साथ नरेंद्र मोदी को दिया गया। केशुभाई मुख्यमंत्री बने। इसी चुनाव से गुजरात की राजनीति फिर से दो पार्टियों में बंट गई। 2001 में नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बने और फिर यहां से मोदी युग शुरू हुआ। वे 2014 तक मुख्यमंत्री रहे। इसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी नरेंद्र मोदी के चेहरे पर उतरी और 30 साल बाद ऐसा हुआ जब किसी पार्टी ने लोकसभा में अकेले दम पर बहुमत हासिल किया। जीत का कारवां 2019 में और आगे बढ़ा और इस बार मोदी मैजिक ने बीजेपी के आंकड़े को 303 सीटों तक पहुंचा दिया।