भारत में कई क्रांतिकारी वीर पैदा हुए हैं, जिन्होंने भारत के लिए अपनी जान गवाई है!सरदार बलदेव सिंह… चंडीगढ़ के ज्यादातर लोगों को नहीं पता होगा कि उनके शहर को बसाने में इस नाम का कितना योगदान है। सिंह इसी इलाके से पहली बार 1937 में लाहौर की पंजाब असेंबली में MLA बने थे। उस वक्त यह इलाका अम्बाला जिले में आता था। पहाड़ियों से निकलने वाले झरने और नाले कहर बरपाते थे, इसकी गिनती सबसे पिछड़े इलाकों में होती थी। बंटवारे के बाद नए पंजाब की राजधानी कुछ समय के लिए शिमला रही। पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू राजधानी के रूप में ऐसा शहर बसाना चाहते थे जो नया और आधुनिक हो।नेहरू पर सरदार बलदेव सिंह का असर ही था कि इस इलाके में नई राजधानी बनाने का फैसला हुआ। आज चंडीगढ़ देश के सबसे खुशहाल शहरों में से एक है। पंजाब सिखों के प्रतिनिधि के रूप में सिंह भारत की स्वतंत्रता को लेकर चल रही सियासी बातचीत का हिस्सा थे। बंटवारे में भी सरदार बलदेव सिंह की अहम भूमिका रही। 11 जुलाई, 1902 को जन्मे बलदेव सिंह 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्र भारत के पहले रक्षा मंत्री बने।
कौन थे बलदेव सिंह?
बलदेव सिंह एक संपन्न परिवार में जन्मे। अमृतसर के खालसा कॉलेज से पढ़ाई के बाद बलदेव ने अकाली पार्टी के जरिए राजनीति में दस्तक दी। मास्टर तारा सिंह को पूरी उम्र गुरु मानने की कसम खाई।लाहौर में सिख नैशनल कॉलेज बनवाले में बलदेव सिंह की बड़ी भूमिका रही। जब दूसरा विश्व युद्ध छिड़ा तो बलदेव सिंह ने सेना में सिखों की ज्यादा से ज्यादा भर्ती की वकालत की। कांग्रेस इस विचार का विरोध कर रही थी।ब्रिटिश युद्ध कैबिनेट ने 1942 में भारत का राजनीतिक भविष्य के लिए खास प्रस्तावों के साथ क्रिप्स मिशन को भेजा। सरदार बलदेव सिंह सिखों के डेलिगेशन का हिस्सा थे। इस डेलिगेशन में मास्टर तारा सिंह, सर जोगेद्र सिंह और सरदार उज्जल सिंह थे। मिशन फेल साबित हुआ क्योंकि कोई राजनीतिक दल किसी प्रस्ताव पर सहमत नहीं हो पाया।स्वतंत्रता की कोशिशें तेज हो चली थीं मगर मुस्लिम समुदाय ने मोहम्मद अली जिन्ना को अपना इकलौता प्रवक्ता मान लिया। जिन्ना इस बात पर अड़े थे कि उन्हें मुस्लिम बहुत इलाका, मुस्लिमों के टोटल कंट्रोल में चाहिए। इसके अलावा वो कोई दूसरा प्रस्ताव मंजूर नहीं करेंगे।
जून 1942 में यूनियनिस्ट पार्टी के सर सिकंदर हयात खान पंजाब के प्रीमियर बने। सरदार बलदेव सिंह ने अकाली नेताओं और यूनियनिस्ट पार्टी के बीच लंबे वक्त से चली आ रही खींचतान खत्म कराई। दोनों दलों के बीच एक समझौता हुआ और अकाली गठबंधन सरकार का हिस्सा बने। बलदेव सिंह ने 26 जून, 1942 को विकास मंत्री के पद की शपथ ली।
दिसंबर 1942 में जब सर सिकंदर गुजरे तो मलिक खिजर हयात तिवाना सीएम बने। बलदेव सिंह 1946 तक अपने पद पर बने रहे। 2 सितंबर, 1946 को उनसे भारत की पहली राष्ट्रीय सरकार में रक्षा मंत्री के रूप में शामिल होने को कहा गया।
भावी संविधान पर भारतीय नेताओं से बातचीत करने ब्रिटिश कैबिनेट मिशन 1946 में भारत आया। बलदेव सिंह को सिखों के प्रतिनिधि के रूप में चुना गया। वह सिखों की विशेष सुरक्षा के लिए अलग से मिशन से मिले। वह देश का बंटवारा नहीं चाहते थे। बलदेव सिंह की राय थी कि एकजुट भारत हो जिसमें अल्पसंख्यकों की रक्षा के प्रावधान हों।
अगर मुस्लिम लीग की तरफ से थोपा गया बंटवारा होता है तो बलदेव सिंह पंजाब की सीमाओं का फिर से निर्धारण चाहते थे। वह रावलपिंडी और मुल्तान जैसे मुस्लिम बहुल डिविजंस को काटकर अलग कर देना चाहते थे ताकि बाकी पंजाब में सिखों के पक्ष में पलड़ा झुका रहे।
कैबिनेट मिशन के प्रस्ताव में मुस्लिमों के ऑटोनॉमी के दावे को काफी हद तक मान लिया गया था। मई 1946 में सिखों ने पूरी कवायद का बहिष्कार करते हुए प्रस्ताव को खारिज कर दिया। जवाहरलाल नेहरू की अपील पर पंथिक प्रतिनिधि बोर्ड ने 14 अगस्त, 1946 की एक बैठक में दोहराया कि कैबिनेट मिशन योजना सिखों के साथ अन्याय है, मगर बहिष्कार वापस ले लिया।
जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में बनी कैबिनेट में सिखों के प्रतिनिधि के रूप में सरदार बलदेव सिंह 2 सितंबर, 1946 को शामिल हुए। रक्षा मंत्रालय ब्रिटिश काल में अंग्रेजों के कमांडर-इन-चीफ के पास रहता आया था। यह पद अंग्रेजी हुकूमत में वायसराय और गवर्नर-जनरल के बाद तीसरे नंबर पर था।
अंग्रेजों ने आखिरकार भारत छोड़ने और उससे पहले उसके दो टुकड़े करने का फैसला किया। कांग्रेस पार्टी, मुस्लिम लीग और सिखों के एक-एक प्रतिनिधि को लंदन बुलाया गया। इसमें जवाहरलाल नेहरू, मोहम्मद अली जिन्ना और सरदार बलदेव सिंह शामिल थे। अंग्रेजों ने पूरी कोशिश की कि सिख किसी तरह पाकिस्तान के साथ रह जाएं। वह चाहते थे कि सरदार बलदेव सिंह इस बारे में जिन्ना से मोल-भाव करें।
सिखों ने मास्टर तारा सिंह की अगुवाई में मुस्लिम लीग के सारे प्रलोभन ठुकरा दिए। सरदार बलदेव सिंह की अकाली पार्टी की कोशिशों के चलते पंजाब का बंटवारा हो पाया। एक सीमा आयोग बनाया गया। 15 अगस्त, 1947 को जब उसका फैसला आया तो सबसे तगड़ी चोट सिखों को सहनी पड़ी।
स्वतंत्रता के बाद रक्षा मंत्री के रूप में, सरदार बलदेव सिंह ने रक्षा बलों को बदलकर रख दिया। सेना के पूरी तरह से राष्ट्रीयकरण के पीछे बलदेव सिंह ही थे। कश्मीर में पाकिस्तानी घुसपैठ, जूनागढ़ और हैदराबाद में पुलिस कार्रवाई… रक्षा मंत्री के रूप में बलदेव सिंह के आगे चुनौतियां कड़ी थीं, मगर उन्होंने जिस तरह मुकाबला किया, उसकी खूब तारीफ हुई। हालांकि, सिख समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में बलदेव सिंह को लगता था कि कांग्रेस पार्टी ने सिखों को एक अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में जो संवैधानिक अधिकार देने का वादा किया था, उसे वह पूरा नहीं करवा सके।
वह नेहरू और बाकी नेताओं से स्वतंत्रता आंदोलन के समय किए गए वादों को पूरा करने की गुहार लगा रहे थे। सरदार बलदेव सिंह 1952 में सांसद चुने गए मगर उन्हें कैबिनेट में नहीं लिया गया। नेहरू के निजी सहायक रहे एमओ मथाई अपनी किताब Reminiscences of the Nehru Age में लिखते हैं कि नेहरू को बलदेव सिंह की राजनीतिक ईमानदारी पर भरोसा नहीं रह गया था, इसलिए उन्हें हटा दिया। बलदेव की जगह पंजाब से स्वर्ण सिंह को कैबिनेट में जगह दी गई। एन. गोपालस्वामी आयंगर भारत के दूसरे रक्षा मंत्री बने।
1957 में सरदार बलदेव सिंह दोबारा सांसद निर्वाचित हुए मगर उनकी तबीयत बिगड़ने लगी थी। 29 जून, 1961 को लंबी बीमारी के बाद दिल्ली में उनका निधन हो गया।