1962 का युद्ध तो आपको याद ही होगा! भारत और चीन के बीच पूर्वी लद्दाख से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक तनाव बना हुआ है। भारत को धमकाने के लिए चीन सीमा के पास बड़े पैमाने पर हथियार तैनात कर रहा है और सैन्य ठिकाने बना रहा है। भारत और चीन साल 1962 में जंग लड़ चुके हैं। गलवान घाटी में भी खूनी हिंसा हुई। भारत-चीन जंग के बाद नेपाल के तत्कालीन डेप्युटी पीएम कीर्ति निधि बिष्ट साल 1966 में बीजिंग यात्रा पर गए थे। इस दौरान चीन के तत्कालीन नेता माओत्से तुंग ने नेपाली डेप्युटी पीएम से भारत और पंडित नेहरू के खिलाफ कई जहरीले बयान दिए थे। यह भी बताया था कि चीन की सेना अचानक से युद्ध को रोककर पीछे क्यों हट गई थी। चीन की पीकिंग यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान की पढ़ाई कर रही नेपाली शोधकर्ता अनेका ने माओ और बिष्ट के बीच में हुई बातचीत को अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया है। महत्वपूर्ण बात यह थी कि भारत के साथ दोस्ती का दावा करने वाले नेपाल के नेता ने साल 1962 की जंग को लेकर चीन के रुख का समर्थन किया था। आइए जानते हैं माओ और नेपाल के डेप्युटी पीएम के बीच भारत को लेकर क्या-क्या बातचीत हुई थी, माओ ने नेपाल के डेप्युटी पीएम से कहा था, ‘भारत हमेशा कहता है कि हमने उनके ऊपर हमला किया और हम अभी भी वहां नहीं जाना चाहते हैं।’ इस पर बिष्ट ने कहा, ‘भारत जो कह रहा है, हम उस पर भरोसा नहीं करते हैं।’ इस पर माओ ने कहा, ‘शुरू में भारत कह रहा था कि हमने तिब्बत पर हमला किया है। यह सही है।’ नेपाली नेता ने कहा, ‘तिब्बत चीन का अभिन्न हिस्सा है और हमले का कोई सवाल ही नहीं उठता है।’ चीन के तत्कालीन सर्वोच्च नेता माओ ने कहा, ‘यह वह है जो वे (भारतीय) कहते हैं। हमारी भारत पर हमला करने की कोई योजना नहीं है। भारत की आबादी 40 करोड़ है। चीन कैसे हमला कर सकता है ? कोई भी समझौता नहीं हुआ है, मैकमोहन लाइन जैसी कोई चीज नहीं है जिसे अंग्रेजों ने खींचा था। यह इलाका छोटा नहीं है, 90 हजार वर्ग किलोमीटर का इलाका है। हम इस कथित मैकमोहन रेखा को मान्यता नहीं देते हैं और इसको पार करने को वास्तविक नियंत्रण रेखा को पार करना भी नहीं मानते हैं।’
लड़ने के लिए वहां कोई नहीं था
चीनी नेता ने कहा, ‘साल 1962 में नेहरू ने हम पर हमला किया था और हमने कहा था कि आप आए हैं तो हम भी घुस सकते हैं। इसके ठीक बाद हम घुसे और तेजपुर (असम) तक पहुंच गए। लेकिर हम तेजी से वापस लौट आए क्योंकि दूसरे पक्ष (भारत) से वहां कोई सैनिक नहीं था। उनके सैनिक मारे जा चुके थे और तितर बितर हो गए थे और वहां कोई टारगेट नहीं था।’ माओ के इस बयान पर बिष्ट ने कहा, ‘हमने इस पर रिपोर्ट को देखी है। चीन का कब्जा की हुई जमीन से एकतरफा वापस लौटना, उदारता का कदम था।’ कम्युनिस्ट नेता ने कहा, ‘अगर हम वापस नहीं आते तो वे बारे में कुछ नहीं कर सकते थे। हम वहां जंग लड़ने के लिए गए थे लेकिन उनके पास सेना नहीं थी। हम किससे लड़ते ? भारतीय भी कई बार मजाक बन जाते हैं। भारत राष्ट्र को अच्छा होना चाहिए और वहां के लोग अच्छे हैं। भारत सरकार हमारे प्रति दोस्ताना नहीं है लेकिन हम दोनों ही देशों के बीच राजनयिक संबंध हैं।’
नेपाल के डेप्युटी पीएम ने कहा, ‘अगर भारत थोड़ा बहुत समझौतापरक रवैया अपना ले तो इस समस्या को सुलझाने में बहुत ज्यादा समय नहीं लगेगा।’ इस पर माओ ने कहा, ‘यह आसान नहीं है। हम मैकमोहन रेखा को स्वीकार नहीं कर सकते हैं और इसको छोड़ देना आसान नहीं होगा। यह मामला सैकड़ों साल तक खिंचता है या दो साल तक, हमें कोई फर्क नहीं पड़ता है। आपके देश नेपाल के विपरीत भारत भूतकाल में एक उपनिवेश था। नेपाल ने ब्रिटिश शासन का विरोध किया और आप हमेशा स्वतंत्र थे।’ बिष्ट ने इस पर कहा, ‘इस तरह से आगे बढ़ना भारत के लिए अच्छा नहीं है। उनके पास पहले ही बहुत सी समस्या है जिसे वे अकेले सुलझा नहीं सकते हैं। उन्हें चीन के प्रति दोस्ताना होना चाहिए। एशियाई और अफ्रीकी देशों को एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए और आपस में मिलजुलकर रहना चाहिए लेकिन वे इसे नहीं समझते हैं।’
जंग के बीच 19 नवंबर तक चीनी सेना तवांग से 170 किलोमीटर उत्तर में बोमडिला तक पहुंच गई थी जहां से ब्रह्मपुत्र घाटी बस कुछ ही दिन की दूरी पर थी। इसी समय लद्दाख के मोर्चे पर भी चीन बड़ी तेजी से आगे बढ़ चुका था। कैलाश मानसरोवर और अक्साईचिन का इलाका कब्जे में जा चुका था। इसके बाद अचानक से 19 नवंबर को बीजिंग में भारतीय राजनयिक पूर्णेंदु कुमार बनर्जी को चीन के प्रधानमंत्री चाउ एन लाई ने तलब किया। चीनी पीएम ने बताया कि 21 तारीख से चीन की सेना वापस लौटने लगेगी। तब से लेकर अब तक यह रहस्य बना हुआ है कि चीन अचानक से वापस क्यों लौट गया। अब माओ के दावे से इस पर नया तर्क सामने आया है। माओ ने कहा कि भारतीय सैनिक लड़ने के लिए थे ही नहीं इसलिए उन्हें वापस लौटना पड़ा।