इमरजेंसी से पहले पूर्व पीएम इंदिरा गांधी को क्यों लगा झटका?

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इमरजेंसी से पहले ही पूर्व पीएम इंदिरा गांधी को एक बड़ा झटका लग चुका था! पीसी सेठी, बंसीलाल, हेमवती नंदन बहुगुणा से पहले भी एक सीएम चेंज हुआ था। तब शायद इमरजेंसी की आहट नहीं थी। इसलिए संजय गांधी के कुनबे की इस हरकत की चर्चा कम होती है। ये हुआ 17 जुलाई 1973 को गुजरात में। 1972 का विधानसभा चुनाव 50 परसेंट वोट शेयर के साथ जीतने वाले गांधीवादी घनश्याम ओझा को अचानक पद से हटने का फरमान इंदिरा गांधी ने सुना दिया। ये हम सब जानते हैं कि गरीबी हटाओ के नारे से 1971 में पीएम बनी इंदिरा गांधी की सरकार दरअसल उनके बेटे संजय गांधी चला रहे थे। आरके धवन, ओम मेहता, बंसीलाल के साथ संजय की चौकड़ी इमरजेंसी के दौरान मिनटों में सीएम निपटाने का काम कर रही थी। लेकिन किसे पता था कि ओझा को गुजरात के सीएम पद से हटाने का फैसला ही देश को इमरजेंसी की आग में झोंकने का पहला पड़ाव साबित होगा। इंदिरा ने ओझा को हटाकर चिमनभाई पटेल को गुजरात की सत्ता सौंप दी। उधर मोरारजी देसाई और बाबू भाई पटेल गुजरात के चर्चित छात्र आंदोलन को हवा दे रहे थे। ये दोनों 1969 में इंदिरा गांधी को पार्टी से निकालने वाले सिंडिकेट में शामिल थे। उन सर्दियों में कांग्रेस बंटी थी तब इंदिरा ने कांग्रेस (आर) बनाई और सिंडिकेट वाले कांग्रेस (ओ) कहलाए। हालांकि 1971 के लोकसभा चुनाव में सिंडिकेट शिकस्त खा चुका था और इंदिरा फिर से प्रधानमंत्री थी। लेकिन गुजरात में नवनिर्माण आंदोलन बहुत तेज हो रहा था। इसे जय प्रकाश नारायण भी सपोर्ट दे रहे थे। तभी चिमनभाई एक मौका दे दिया।

1972 के विधानसभा चुनाव में इंदिरा के हाथों पस्त हुआ सिंडिकेड छात्रों की मांगों के साथ उग्र हो गया था और चिमनभाई ने इस आंदोलन को कुचलने की कोशिश कर दी। नौ फरवरी 1974 के दिन उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद लगभग 90 विधायकों ने आंदोलन के समर्थन में अपनी विधानसभा सदस्यता त्याग दी। ऐसा न पहले हुआ था और न उसके बाद हुआ है। गुजरात में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया। जल्दी ही नए जानदेश की मांग तेज हो गई। मोरारजी देसाई धरने पर बैठ गए। गुजरात में नए जनादेश के लिए जनसंघ भी कूद पड़ा। मोरराजी देसाई और संघ के बीच सुलह का काम किया जेपी ने। अंत में इंदिरा ने चुनाव कराने पर हामी भर दी। इंदिरा गांधी को लग रहा था बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में पाकिस्तान को जिस तरह हमने हरा दिया उससे पूरे देश में कांग्रेस (आर) के पक्ष में लहर कायम है। 1971 के लोकसभा चुनावों में वो पूर्ण बहुमत हासिल कर ही चुकी थीं। कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी सिंडिकेट धूल चाट गया था।

लेकिन गुजरात तो नई कहानी लिखने जा रहा था। छात्र आंदोलन के साथ सौराष्ट्र के पाटीदारों ने किसान आंदोलन शुरू कर दिया। इस बीच चिमनभाई कांग्रेस से बर्खास्त किए जा चुके थे। उन्होंने खुद को राजनीतिक तौर पर जिंदा रखने के लिए किसान मजदूर लोक पक्ष (KMLP) नाम का संगठन तैयार कर लिया और वो किसानों के पक्ष में बोलने लगे। धीरे-धीरे पटेल ने भी विधानसभा चुनाव जल्दी कराने की मांग कर दी। उधर जेपी लगातार गुजरात में कैंप कर रहे थे। फरवरी, 1975 में लोक संघर्ष समिति (LSS) का गठन हुआ और पूरे देश में इंदिरा गांधी के के खिलाफ आंदोलन तेज करने का आह्वान। अप्रैल में मोरारजी देसाई के आमरण अनशन के बाद चुनाव का ऐलान हो गया था। अब जेपी गैर कम्युनिस्टों का साझा जनता मोर्चा बनाना चाहते थे। लेकिन मोरारजी देसाई कांग्रेस ओ को अकेले मैदान में उतारना चाहते थे। जनता मोर्चा बन गया लेकिन साझा सिंबल पर सहमति नहीं बन पाई। जनसंघ ने तो चिमनभाई पटेल को भी साथ लाने की मांग कर दी पर देसाई ने खबरदार किया।

हालांकि इससे पहले 1957 में अलग गुजरात राज्य बनाने के लिए महा गुजरात जनता परिषद बना था जिसमें कम्युनिस्ट भी शामिल थे। फिर 1967 के चुनाव में जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी साथ आई थी। 1971 के लोकसभा और अगले साल विधानसभा चुनाव में भी गठबंधन हुआ। लेकिन 1975 का गठबंधन इन सबसे अलग था। इसमें मोर्चा ने सहमति से उम्मीदवार तय किए। जनता मोर्चा का साझा संसदी बोर्ड बना। सभी पार्टियों ने हर सीट के लिए संभावित उम्मीदवारों की लिस्ट सौंपी। 160 सीटों पर आपसी सहमति से उम्मीदवार तय हुए। जिन 22 सीटों पर सहमति नहीं बनी उन पर अंतिम फैसला लेने के लिए मोरारजी देसाई को स्वतंत्र कर दिया गया। उधर चिमनभाई ने अकेले 128 सीटों पर उम्मीदवार उतार दिए।

उधर इंदिरा गांधी प्रचार का कमान खुद संभाल रही थीं। उन्होंने विद्याचरण शुक्ल को हेड बनाया। माधवसिंह सोलंकी, कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष रतुभाई अडानी, मनुभाई शाह प्रचार के लिए निकल पड़े। इंदिरा गांधी खुद 11 दिनों तक गुजरात में रहीं और 119 जगहों पर उनकी रैलियां हुईं। इस बार गरीबी हटाओ का नारा उन्होंने नहीं दोहराया। वो स्थायी सरकार को मुद्दा बना रहीं थीं। उधर जनता मोर्चा के प्रचार का आगाज किया सर्वोदय आंदोलन के नेता आचार्य कृपलानी ने। अशोक मेहता, राज नारायण, मोरारजी देसाई भी अहमदाबाद की उस रैली में मौजूद थे। मोर्चा ने लोकतंत्र बचाए रखने और भ्रष्टाचारमुक्त सरकार को मुख्य मुद्दा बनाया। आरएसएस काभी आक्रामक मुद्रा में थी। इसके कार्यकर्ताओं की कांग्रेस के साथ झड़प भी हुई। इंदिरा गांधी की एक रैली भी प्रभावित हुई। जगजवीन राम एक हमले में घायल भी हो गए।

जब 10 जून, 1975 को नतीजे आए तो आयरन लेडी इंदिरा गांधी के होश फाख्ता हो गए। कांग्रेस आर को सबसे ज्यादा 75 सीटें मिली लेकिन बहुमत से बहुत दूर। उधर कांग्रेस ओ ने 56 सीटें हासिल की। जनसंघ ने 18 सीटों पर जीत हासिल की। हालांकि जनता मोर्चा बहुमत से 17 कदम दूर थी। अंत में बाबूभाई पटेल को चिमनभाई से हाथ मिलाना ही पड़ा। 15 जून, 1975 को गैर कांग्रेसी सरकार के अगुआ के तौर पर उन्होंने शपथ ली। ठीक इससे तीन दिन पहले यानी 12 जून को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता रद्द करने का ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। इंदिरा से ज्यादा संजय गांधी बौखला उठे। जेपी ने और चांप चढ़ा दिया। गुजरात में नई सरकार बनने के ठीक दसवें दिन 24 जून की आधी रात इंदिरा गांधी ने भारत के सबसे काले अध्याय यानी इमरजेंसी की शुरुआत कर दी।