तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने 1965 के आंदोलन की चेतावनी दे दी है! हिंदी पर हंगामा बरपा हुआ है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन 1965 जैसा आंदोलन दुहराने की चेतावनी दे रहे हैं। भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी यानी भाकपा CPI के सांसद बिनय विस्वम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर आरोप लगा चुके हैं कि ‘राजभाषा पर संसदीय समिति की 11वीं रिपोर्ट’ अन्य भाषाओं की तुलना में हिंदी को अनावश्यक महत्व देती है। सांसद महोदय की नजर में यह आपत्तिजनक है। सवाल उठता है कि आखिर क्या है राजभाषा समिति और इसने अपनी रिपोर्ट में क्या कह दिया है कि मुख्यमंत्री से सांसद तक चिढ़ गए हैं? सवाल यह भी है कि आखिर 1965 में क्या हुआ था जिसे दुहराने का डर दिखाया जा रहा है? इन सवालों से बढ़कर एक और भी सवाल है कि आखिर हिंदी को लेकर हमारा संविधान क्या कहता है और क्या संविधान के आईने में राजभाषा समिति की रिपोर्ट में कुछ गलत कहा गया है?
सबसे पहले यह जानते हैं कि आखिर हिंदी को लेकर हमारा संविधान क्या कहता है। हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार का प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 351 के तहत किया गया है। अनुच्छेद 351 कहता है, ‘संघ का कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृत्ति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी में और आठवीं अनुसूचि में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहां उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यतः संस्कृत से और गौणतः अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।’ यानी संविधान कहता है कि हिंदी भाषा का प्रचार-प्रसार किया जाए और इसे समृद्धि सुनिश्चित की जाए। संविधान ने ये जिम्मेदारियां केंद्र सरकार को सौंपी हैं। अनुच्छेद 351 हिंदी भाषा की समृद्धि का तरीका भी बताता है जिसके तहत हिन्दुस्तानी और आठवीं अनुसूचि में शामिल भारतीय भाषाओं की रूप-शैली और संस्कृत के शब्दों को अपनाने की राह दिखाई गई है।
ऊपर की बातें जानकर इतना तो स्पष्ट हो गया है कि केंद्र के कंधे पर हिंदी के प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी संविधान ने सौंपी है। इसी कारण राजभाषा समिति का गठन भी किया गया है। उसी राजभाषा समिति ने रिपोर्ट तैयार की है। ध्यान रहे कि जिस संसदीय समिति की रिपोर्ट पर सवाल उठाए जा रहे हैं, उसमें सत्ता पक्ष के साथ-साथ विपक्ष के सांसद भी मौजूद हैं। इसमें भले ही बीजेपी के सबसे ज्यादा सांसद हैं, लेकिन बीजद, कांग्रेस, जदयू, शिवसेना, लोजपा, आप और टीडीपी के भी सदस्य हैं। दरअसल, संविधान की तरफ से दिए गए दायित्वों को पूरा करने के लिए केंद्र सरकार ने वर्ष 1963 में राजभाषा अधिनियम बनाया। राजभाषा अधिनियिम 1963 की धारा चार के तहत राजभाषा पर संसदीय समिति की स्थापना वर्ष 1976 में की गई थी। समिति में 30 सदस्य होते हैं। इनमं लोकसभा से 20 जबकि राज्यसभा से 10 सांसद होते हैं। केंद्रीय गृह मंत्री इस समिति के पदेन अध्यक्ष होते हैं। समिति का मुख्य उद्देश्य हिंदी की प्रगति का खाका खींचना और किए हुए कार्यों की समीक्षा करना है। यह समिति सरकार के स्तर पर आपसी और बाहरी संपर्कों के माध्यम के तौर पर हिंदी को बढ़ावा दिए जाने की सिफारिश करती है।
अमित शाह की अध्यक्षता वाली राजभाषा पर संसदीय समिति ने अपनी 11वीं रिपोर्ट में कहा है कि प्रशासननिक स्तर पर बातचीत की भाषा हिंदी होनी चाहिए। सूत्र बताते हैं कि समिति ने पढ़ाई-लिखाई में भी हिंदी भाषा को बढ़ावा देने पर जोर दिया है। उसने कहा है कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने की दिशा में भी प्रयास होना चाहिए। ध्यान रहे कि इस समिति के उपाध्यक्ष ओडिशा के क्षेत्रीय दल बीजद के वरिष्ठ सांसद भर्तृहरि महताब हैं। जब समिति की सिफारिशों पर सवाल उठे तो समिति के उपाध्यक्ष ने कहा कि केरल और तमिलनाडु के मुख्यमंत्रियों की प्रतिक्रिया भ्रामक सूचनाओं पर आधारित लगती हैं। उन्होंने बताया कि तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों को राजभाषा अधिनियम, 1963 और रूल एंड रेगुलेशन एक्ट, 1976 के अनुसार छूट दी गई है। उन्होंने बताया कि राजभाषा समिति की सिफारिशें केवल ‘ए’ श्रेणी के राज्यों में लागू होती है।
आखिर भाषा के आधार पर श्रेणीकरण का क्या फॉर्मुला है। ए कैटिगिरी के तहत बिहार, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तराखंड, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और अंडमान निकोबार द्वीपसमूह आते हैं। वहीं, बी श्रेणी में गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब के साथ-साथ चंडीगढ़, दमन और दीव, नागर एवं नागर हवेली आते हैं। बाकी प्रदेशों को सी कैटिगरी में रखा गया है जहां हिंदी का उपयोग 65 प्रतिशत से कम होता है। समिति के उपाध्यक्ष भर्तृहरि महताब ने बताया कि गृह मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय में हिंदी का सौ प्रतिशत उपयोग हो रहा है, लेकिन शिक्षा मंत्रालय में अभी इस स्तर तक नहीं पहुंच सका है। उन्होंने कहा कि भाषा के उपयोग के मानदंडों पर परखे जाने पर पता चला कि दिल्ली विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी का उपयोग सिर्फ 25 से 35 प्रतिशत तक ही होता है। यह आंकड़ा तब सामने आया है जब केंद्र सरकार नई शिक्षा नीति 2020 के तहत विज्ञान की पढ़ाई भी हिंदी के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषाओं में करवाने पर जोर दे रही है।
दरअसल, संविधान बनाने वालों ने देश के गणतंत्र बनने के बाद के 15 वर्षों यानी 1965 तक हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी को भी आधिकारिक भाषा के रूप में उपयोग करने की बात कही थी। उन्होंने कहा था कि 15 वर्ष के बाद 1965 से अंग्रेजी की जगह भी हिंदी ले लेगा और हिंदी ही आधिकारिक भाषा रह जाएगी। इसका दक्षिण के राज्यों में घोर विरोध हुआ। वर्ष 1963 में ही तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने राजभाषा विधयेक पेश किया। उसमें हिंदी को भारत की एकमात्र आधिकारिक भाषा बनाए जाने का प्रावधान किया गया था। तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) ने इसके खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया। पार्टी ने ऐलान कर दिया कि उसके कार्यकर्ता संविधान के चैप्टर 17 की कॉपियां जलाएंगे जिसमें हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया है।
इस ऐलान के बाद डीएमके नेता सीएन अन्नादुरई को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें छह महीने जेल की सजा सुनाई गई। लेकिन विपक्ष आंदोलन को हवा देता रहा। नतीजा हुआ कि 25 जनवरी, 1964 को डीएमके के एक 27 वर्षीय कार्यकर्ता चिन्नास्वामी ने खुद को आग लगा ली। उसे तमिलनाडु में हिंदी के खिलाफ आंदोलन का शहीद के तौर पर पेश किया जाने लगा। हालांकि, केंद्र सरकार भी टस से मस नहीं हुई और साफ कहा कि 16 जनवरी, 1965 से भारत की एकमात्र आधिकारिक भाषा हिंदी होगी। एक दिन पहले 25 जनवरी, 1965 को अन्नादुरई समे त कई डीएमके नेता और कार्यकर्ता हिरासत में ले लिए गए। लेकिन जब तमिलनाडु से आने वाले दो केंद्रीय मंत्रियों सी सुब्रमण्यम और ओवी अलागेसन ने इस्तीफा देने की धमकी दी तब तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने ऐलान किया कि हिंदी को किसी पर थोपा नहीं जाएगा और अंग्रेजी भी आधिकारिक भाषा बनी रहेगी।