वरुण गांधी ने बीजेपी को एक तरफ कर दिया है! हम तो चले परदेस हम परदेसी हो गए, छूटा अपना देश हम परदेसी हो गए… क्या वरुण गांधी यही गुनगुना रहे हैं? क्या उन्होंने भगवा से भागने का मन बना लिया है? क्या भारतीय जनता पार्टी (BJP) ही उनसे किनारा करने की ठान चुकी है? अगले वर्ष लोकसभा चुनाव है। इससे पहले वरुण गांधी के रीजनीतिक भविष्य पर कई तरह के सवाल उठने लगे हैं। इन सवालों के सृजनकर्ता खुद वरुण गांधी हैं। उधर, मां मेनका गांधी का भी बीजेपी के साथ सुर-ताल बिगड़ता ही जा रहा है। अब तो वरुण गांधी के कांग्रेस में जाने की अटकलें जोर पकड़ चुकी हैं। तो क्या कांग्रेस विरोध से राजनीतिक जीवन की शुरुआत करने वाले वरुण गांधी के दिल में ‘भ्रातृ प्रेम’ उमड़ने लगा है? क्या वरुण खुद को नेहरू-गांधी खानदान का असली वारिस साबित करने का सपना त्यागकर चचेरे भाई राहुल गांधी का हाथ मजबूत करेंगे? लेकिन राहुल ने तो वरुण के लिए कांग्रेस का दरवाजा बंद कर दिया है! वरुण गांधी का राजनीतिक जीवन शुरू हुआ वर्ष 1999 में, जब उन्होंने अपनी मां मेनका गांधी के लिए लोकसभा चुनाव में प्रचार किया। वर्ष 2004 में राहुल गांधी पहली बार चुनाव लड़े। उसी वर्ष मेनका गांधी भाजपा में शामिल हो गईं। मेनका उत्तर प्रदेश की पीलीभीत लोकसभा सीट से बीजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ीं और जीत गईं। तब तक वरुण गांधी की छवि एक फायर ब्रैंड हिंदुवादी नेता की बन चुकी थी। तब वरुण गांधी भाजपा के प्रमुख रणनीतिकारों में एक प्रमोद महाजन की नजर में आ गए थे। पार्टी के नंबर दो नेता लालकृष्ण आडवाणी भी वरुण को चाहने लगे थे। इस कारण 2004 में ही वरुण के एंट्री बीजेपी में हो गई। बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष वेंकैया नायडू ने 16 फरवरी, 2004 को मेनका और वरुण को पार्टी की सदस्यता दिलाई।
बीजेपी ने मेनका और वरुण को साथ लाकर यह संदेश देने की कोशिश की कि उसके पास भी नेहरू-गांधी खानदान का वारिस है। पार्टी ने सोनिया गांधी और राहुल गांधी के मुकाबले मेनका-वरुण की जोड़ी को तुरूप का इक्का समझा। पार्टी को लगा कि सोनिया-राहुल से दो-दो हाथ के लिए मेनका-वरुण के रूप में उसे बड़ा हथियार मिल गया है। वरुण को वर्ष 2009 के अगले लोकसभा चुनाव में बीजेपी का टिकट भी मिल गया। मां मेनका ने बेटे के लिए पीलीभीत सीट छोड़कर बरेली के आंवला लोकसभा क्षेत्र का रुख कर लिया।
वरुण ने चुनाव प्रचार के दौरान एक विशेष समुदाय के खिलाफ खुलकर बातें कीं, उन्हें धमकियां दीं। वरुण के खिलाफ कोर्ट में जो दस्तावेज पेश किए, उसमें कहा गया कि वरुण ने मुसलमानों के लिए अपमानजनक शब्द कहे और गांधीजी के विचारों की खिल्ली उड़ाई। कथित तौर पर वरुण ने कहा, ‘गांधीजी कहा करते थे कि कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे तो उसके सामने दूसरा गाल कर दो ताकि वो इस गाल पर भी थप्पड़ मार सके। यह क्या है? अगर आपको कोई एक थप्पड़ मारे तो आप उसका हाथ काट डालिए कि आगे से वह आपको थप्पड़ नहीं मार सके।’
वरुण के इन ताबड़तोड़ बयानों ने मीडिया का ध्यान खींचा। देशभर की मीडिया पीलीभीत पहुंच गया। उधर, उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार ने वरुण पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) लगा दिया। मुकदमा दर्ज होते ही पुलिस ने उन्हें तलाशने लगी। वरुण पुलिस के हाथ नहीं लगे तो पीलीभीत के डीएम और एसपी को तत्काल प्रभाव से हटा दिया गया। अजय चौहान और प्रकाश डी क्रमशः नए डीएम और एसपी बनकर पीलीभीत आ गए। तभी 28 मार्च 2009 को वरुण ने आत्मसमर्पण कर दिया। अदालत ने उन्हें 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया। तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह वरुण गांधी से एकजुटता दिखाने जेल पहुंच गए। उधर, पार्टी के कद्दावर नेता लालकृष्ण आडवाणी ने वरुण की तुलना जय प्रकाश नारायण से करते हुए कहा कि जेपी और राजनारायण को भी सरकार इसी तरह जेल में डाला गया था।
बहरहाल, 2009 के लोकसभा चुनाव में मेनका गांधी आंवला और वरुण गांधी पीलीभीत से चुनाव जीत गए। एक सांसद के रूप में वरुण की छवि काम करने वाले नेता की बनने लगी। वर्ष 2013 में वरुण गांधी अपना पूरा सांसद निधि खर्च करने वाले एकमात्र सांसद बन गए। बीजेपी में वरुण का कद दिन-ब-दिन बढ़ता गया और उसी वर्ष पार्टी ने वरुण को राष्ट्रीय महासचिव बना दिया। भाजपा के इतिहास में इससे कम उम्र का राष्ट्रीय महासचिव कभी नहीं बना था। वरुण गांधी तब 33 वर्ष के थे। पार्टी ने उन्हें 42 लोकसभा सीटों वाले प्रदेश पश्चिम बंगाल का प्रभारी बना दिया। वर्ष 2015 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव होना था। बातें उन्हें उत्तर प्रदेश के मुख्यंत्री पद का बीजेपी उम्मीदवार बनाए जाने की होने लगीं। मां मेनका गांधी ने भी वरुण को उत्तर प्रदेश का अगला मुख्यमंत्री बताने लगीं। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद मेनका ने पीलीभीत में कहा, ‘उत्तर प्रदेश की देखभाल करना मेरा दायित्व है। अगर वरुण यूपी की सरकार चलाए तो अच्छा होगा। वरुण यूपी का बेहतर मुख्यमंत्री साबित होगा।’
इससे पहले, वर्ष 2013 में ही जब गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के अगले वर्ष 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव में बीजेपी का प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाने की बात जोर पकड़ रही थी, तभी वरुण गांधी ने यूपी में लालकृष्ण आडवाणी की विशाल रैली का आयोजन करवाया। कहा जाता है कि वरुण तभी से नरेंद्र मोदी के दिल से उतरने लगे। कहा जाता है कि 2014 में वरुण को यूपी सीएम का चेहरा बनाए जाने को लेकर पार्टी पर परोक्ष दबाव बनाया जाने लगा तब मोदी का मन और भी खट्टा हो गया। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की बीजेपी दबाव बनाने वालों को कभी पसंद नहीं करती, यह कई बार देखा जा चुका है। सौदेबाजी की राजनीति में विश्वास करने वाले ‘नई बीजेपी’ में बढ़ नहीं सकते, संभवतः यह मेनका और वरुण को समझ नहीं आया।
2015 का उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव हुआ और उम्मीद के मुताबिक वरुण गांधी किनारे कर दिए गए। योगी आदित्यनाथ को देश के सबसे बड़े प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया गया। इधर, 2014 के चुनाव में बीजेपी की बंपर जीत के बाद नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने। राजनाथ सिंह को मंत्रिमंडल में शामिल हुए और जुलाई 2014 में अमित शाह को बीजेपी की कमान सौंप दी गई। अगले ही महीने शाह ने अपनी नई टीम घोषित की। तब वरुण से राष्ट्रीय महासचिव का पद और पश्चिम बंगाल का प्रभार वापस ले लिया गया। 2019 में बीजेपी के दोबारा सत्ता में आने के बाद मेनका गांधी को मंत्री नहीं बनाया गया। दो साल बाद 2021 में मेनका और वरुण, दोनों को बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से भी हटा दिया गया।
स्वाभिवक तौर पर पार्टी की कार्रवाइयों से वरुण के मन में खटास बढ़ी तो बीजेपी और पार्टी नेतृत्व के खिलाफ उनकी बयानबाजियां भी बढ़ती गईं। उनके निशाने पर बीजेपी की राज्य सरकारें भी आती रहीं। फिर तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का आंदोलन हुआ तो वरुण खुलकर समर्थन में उतर गए। वो जीएसटी, बेरोजगारी, अग्निवीर समेत कई मुद्दों पर अपनी ही सरकार को घेरने लगे। मजे की बात देखिए, जिस वरुण गांधी ने हिंदू-मुसलमान के साथ अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू की, वो ही अब जोड़ने की सीख देने लगे हैं। पिछले महीने ही वरुण के कहते सुना गया, ‘देश को जोड़ने की राजनीति होने की ज़रूरत है, न कि देश को गृह युद्ध में डालने की राजनीति। आज धर्म की राजनीति करने वाले लोग रोजगार, महंगाई के मुद्दे पर जवाब दें।’